बिजली, पानी और सड़क ये तीनों किसी भी राज्य के विकास मानक होते हैं. राज्य में आधारभूत संरचना के विकास में इनकी अहम भूमिका होती है. ऐसे में सरकार के सामने भी एक बड़ी चुनौती है कि कैसे इस बिजली की निर्भरता को पूरा करे और राज्य में बेहतर सुविधा उपलब्ध कराये. इसके लिए यह बहुत जरूरी है कि राज्य बिजली बोर्ड अपने संसाधनों को मजबूत करे और कंडम हो रहे प्लांटों पर अविलंब ठोस निर्णय ले.
झारखंड के साथ दुर्भाग्य है कि यहां पीटीपीएस, टीटीपीएस और हाइडल जैसे कई बिजली उत्पादन सेंटर होने के बावजूद राज्य में बिजली की किल्लत है. आज राजधानी को छोड़ दें, तो यहां के अन्य जिलों में बिजली की स्थिति काफी खराब है. औसतन पांच से छह घंटे ही बिजली मिलती है. ग्रामीण इलाकों में तो स्थिति और भी बदतर है.
पलामू, गुमला, देवघर, सिंहभूम के इलाके में तो बिजली भगवान भरोसे है. इसी राज्य में कई ऐसे औद्योगिक क्षेत्र है, जहां बिजली निर्बाध रूप से रहती है. ऐसे में यह बड़ा सवाल है कि जब इसी राज्य में एक ओर जहां बिजली की स्थिति अच्छी है तो क्यों नहीं वैसी ही व्यवस्था राज्य सरकार में भी लागू हो जिससे लोगों को राहत मिले. राज्य बनने के बाद जीरो कट बिजली की बात मंत्री से लेकर अधिकारी तक बोलते रहे हैं. लेकिन जीरो कट तो क्या, जरूरतभर बिजली भी नहीं दे पाये. पतरातू में 1320 मेगावाट के नये प्लांट का टेंडर अभी तक लंबित है.
दिसंबर 2013 में ही निविदा निकाली गयी थी. तब से लगातार निविदा की तिथि बढ़ायी जा रही है. यही स्थिति भवनाथपुर पावर प्लांट को लेकर है. पावर प्लांट का शिलान्यास मुख्यमंत्री व ऊर्जा मंत्री ने कर दिया. लेकिन आजतक निविदा नहीं निकाली गयी है. ट्रांसमिशन लाइन बिछाने का काम भी जैसे-तैसे चल रहा है. मार्च 2014 तक पूरे राज्य में ट्रांसमिशन नेटवर्क का जाल बिछाना था. संताल-परगना में यह काम अभी पूरा नहीं हो सका है. दिसबंर 2013 से ही संबंधित कंपनी ने काम बंद कर दिया है. ये सब काम छोटे-छोटे कारणों से लंबित हैं. जरूरत है कि इन पर आगे बढ़कर ठोस निर्णय लेने का. क्योंकि काम नहीं करने के सौ बहाने हो सकते हैं. लेकिन राज्य हित देखते हुए बहानों को नजरअंदाज कर सर्वसम्मति से पहल की जाये तो शायद झारखंड बिजली के मामले में देश में एक उदाहरण पेश कर सकता है.