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महिलाओं को सशक्त करने की जरूरत

आशुतोष चतुर्वेदी प्रधान संपादक प्रभात खबर भारतीय महिलाएं जिंदगी के सभी क्षेत्रों में सक्रिय हैं. चाहे वह राजनीति का क्षेत्र हो या फिर शिक्षा,कला-संस्कृति अथवा आइटी या फिर मीडिया का क्षेत्र, सभी क्षेत्रों में महिलाओं ने सफलता के झंडे गाड़े हैं. इंदिरा गांधी जैसी सशक्त महिला देश की प्रधानमंत्री रही हैं. भारत का संविधान भी […]

आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक
प्रभात खबर
भारतीय महिलाएं जिंदगी के सभी क्षेत्रों में सक्रिय हैं. चाहे वह राजनीति का क्षेत्र हो या फिर शिक्षा,कला-संस्कृति अथवा आइटी या फिर मीडिया का क्षेत्र, सभी क्षेत्रों में महिलाओं ने सफलता के झंडे गाड़े हैं.
इंदिरा गांधी जैसी सशक्त महिला देश की प्रधानमंत्री रही हैं. भारत का संविधान भी सभी महिलाओं को बिना किसी भेदभाव के सामान अधिकार की गारंटी देता है. संविधान में राज्यों को महिलाओं और बच्चों के हित में विशेष प्रावधान बनाये जाने का अधिकार भी दिया है ताकि महिलाओं की गरिमा बरकरार रहे. लेकिन इन सबके बावजूद देश में महिलाओं की स्थिति अब भी मजबूत नहीं है. उनकी सुरक्षा को लेकर अक्सर चिंता जाहिर की जाती है. उन्हें निशाना बनाया जाता है, कानून के बावजूद कार्यस्थलों पर उनके साथ भेदभाव किया जाता है.
हाल में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने प्लान इंडिया की ओर से तैयार की गयी रिपोर्ट को जारी किया. यह रिपोर्ट चौंकाने वाली है. इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में महिलाओं के लिए सबसे सुरक्षित राज्य गोवा है, जबकि देश की राजधानी को महिलाओं की सुरक्षा की दृष्टि से खराब राज्यों में से एक है.
सुरक्षा के मामले में गोवा के बाद केरल, मिजोरम, सिक्किम और मणिपुर आते हैं. चिंता की बात यह कि जिन राज्यों में महिलाएं सबसे अधिक असुरक्षित हैं उनमें बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और देश की राजधानी दिल्ली शामिल है. राज्यों के लिए लिंगभेद सूचकांक यानी जेंडर वल्नरेबिलिटी इंडेक्स (जीवीआई) तैयार किया गया और उस कसौटी पर सभी राज्यों की कसा गया. देश के 30 राज्यों की इस सूची में बिहार सबसे निचले पायदान पर है. इससे ऊपर 29वें स्थान पर उत्तर प्रदेश का स्थान है. देश की राजधानी दिल्ली 28वें और झारखंड 27वें स्थान पर है.
इस रिपोर्ट के अनुसार बिहार में महिलाएं और बेटियां अन्य राज्यों की तुलना में सबसे कम स्वस्थ और असुरक्षित पायी गयीं. शिक्षा के मामले में भी वे पिछड़ी हैं. रिपोर्ट के मुताबिक 39 फीसदी लड़कियों की विवाह की वैधानिक उम्र (18 वर्ष) से पहले शादी हो जाती है और लगभग 12 फीसदी 15 से 19 वर्ष की उम्र में या तो गर्भवती हो जाती हैं या फिर मां बन जाती हैं.
लेकिन मैं व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर यह कह सकता हूं कि महिलाओं और बेटियों को लेकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बेहद संवेदनशील हैं और बिहार सरकार उनकी शिक्षा और स्वास्थ्य को लेकर अनेक कार्यक्रम चला रही है. हालांकि इस सर्वेक्षण में इसके परिणाम नहीं दिखाई देते हैं लेकिन मुझे पूरी उम्मीद है कि आगामी कुछ वर्षों में सकारात्मक परिणाम दिखने लगेंगे. लड़कियों की अशिक्षा का सबसे बड़ा कारण गरीबी है.
अभिभावक पोशाक की कमी के कारण लड़कियों को स्कूल नहीं भेजते थे, इसके लिए बिहार सरकार ने मिडिल स्कूल में पढ़ रही बालिकाओं के लिए बालिका पोशाक योजना शुरू की. साथ ही सरकार ने नवीं कक्षा की लड़कियों के लिए बालिका साइकिल योजना की शुरुआत की. आंकड़े बताते हैं कि जिस समय यह योजना शुरू की गयी थी, उस समय नवीं कक्षा में लड़कियों की संख्या एक लाख 70 हजार से भी कम थी, जो आज नौ लाख से ज्यादा पहुंच गयी है.
झारखंड में भी मूल समस्या गरीबी और अभाव है. पिछले कुछ वर्षों में झारखंड से बच्चियों की तस्करी के कई मामले सामने आये हैं जिसमें बच्चियों के मां बाप को बहला फुसलाकर उन्हें दिल्ली से सटे गुरुग्राम ले जाया गया है. यहां बड़े मल्टीनेशनल अथवा बड़ी आइटी कंपनियों में काम करने वाले अधिकारी रहते हैं.
महिलाएं भी अक्सर काम करती हैं, उन्हें गृह कार्य के लिए दाइयों की जरूरत होती है. इस इलाके में तमाम प्लेसमेंट एजेंसियां हैं जो उन्हें ये उपलब्ध कराती हैं. ऐसी अनेक घटनाएं सामने आयीं हैं कि इनमें से कुछ लड़कियां का या तो एजेंसी मालिक अथवा जिनके यहां काम करती हैं, उन्होंने इनका शारीरिक शोषण तक किया. अमानवीय व्यवहार की घटनाएं तो आम हैं. अभी तक इन्हें कामगारों की श्रेणी में नहीं रखा गया है जिसके कारण उनके अधिकारों की अनदेखी होती है.
सबसे बड़ी समस्या असमान वेतन है. इन्हें अपने काम के अनुरूप वेतन नहीं मिलता है. इनका न्यूनतम वेतन, काम के घंटे, छुट्टियां, कुछ भी निर्धारित नहीं है. दूसरी गंभीर समस्या अमानवीय व्यवहार है. कानूनन 18 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों से घरेलू कामकाज नहीं कराया जा सकता है, लेकिन देश में ऐसे कानूनों की कोई परवाह नहीं करता. यह केवल झारखंड की बच्चियों की समस्या नहीं, पूरे देश की बेटियों और महिलाओं का यह दर्द है.
लेकिन परिदृश्य ऐसा भी नहीं है जिसमें उम्मीद की कोई किरण नजर न आती हो. पिछले कुछ वर्षों में सरकारी कोशिशों और सामाजिक जागरूकता अभियानों के कारण महिलाओं की स्थिति में धीरे धीरे ही सही, मगर सुधार आया है. यह बदलाव शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य तक के आंकड़ों में दिखाई देता है.
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार शिक्षा में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है. एक दशक पहले हुए सर्वेक्षण में शिक्षा में महिलाओं की भागीदारी 55.1 प्रतिशत थी जो अब बढ़ कर 68.4 तक पहुंच गयी है यानी शिक्षा के क्षेत्र में 13 फीसदी से अधिक की वृद्धि दर्ज की गयी है. बाल विवाह की दर में गिरावट को भी महिला स्वास्थ्य और शिक्षा के लिहाज से महत्वपूर्ण माना जा रहा है. कानूनन अपराध घोषित किये जाने और सरकारों के लगातार जागरूकता अभियानों के कारण इसमें कमी तो आयी है, लेकिन बाल विवाह का चलन खासकर गांवों में अब भी बरकरार है.
सर्वेक्षण के अनुसार, सन 2005-06 में 18 वर्ष से कम उम्र में शादी 47.4 प्रतिशत से घट कर 2015-16 में 28.8 रह गयी है. इसका सीधा लाभ महिला स्वास्थ्य पर भी पड़ा है.
मोदी सरकार के मुहिम के कारण बैंकिंग व्यवस्था में भी महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है. शिक्षा और जागरूकता का सीधा संबंध घरेलू हिंसा से है. अब इन मामलों में भी कमी आयी है. रिपोर्ट के अनुसार वैवाहिक जीवन में हिंसा का सामना करने वाली महिलाओं का प्रतिशत 37.2 से घटकर 28.8 प्रतिशत रह गया है. यह सही है कि महिलाओं के सशक्तीकरण की दिशा में प्रगति हुई है लेकिन अब भी यह नाकाफी है और इस क्षेत्र में व्यापक कार्य किया जाना बाकी है.

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