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राजनीति में कुंवारों का बड़ा नाम है

।। रूपम कुमारी।। (प्रभात खबर, रांची) मंच, माइक, रोड शो, रैलियां, टोपियां, झंडे-बैनर, गाड़ियों के काफिले, जिंदाबाद के स्वर और गले में मालाएं, अब इन सबका दौर थम रहा है. चुनाव आयोग ने मंडप सजा रखा है. कुंवारे और शादीशुदा लोग बैंड-बाजे लेकर निकल पड़े हैं. पर दिल्ली की दुल्हनिया तो किसी एक ही के […]

।। रूपम कुमारी।।

(प्रभात खबर, रांची)

मंच, माइक, रोड शो, रैलियां, टोपियां, झंडे-बैनर, गाड़ियों के काफिले, जिंदाबाद के स्वर और गले में मालाएं, अब इन सबका दौर थम रहा है. चुनाव आयोग ने मंडप सजा रखा है. कुंवारे और शादीशुदा लोग बैंड-बाजे लेकर निकल पड़े हैं. पर दिल्ली की दुल्हनिया तो किसी एक ही के गले में वरमाला पहनायेगी, बाकी को बैरंग लौटना पड़ेगा. सबने अपने-अपने सितारों के जादू से जनता को रिझाने का हर संभव प्रयास किया.

आयोग की नजर से बच-बचा कर पियक्कड़ों को दारू से लेकर गरीबों को पैसे तक बांटे गये. पर अब जो करना है जनता को करना है. लोगों ने ‘नमक’ का कर्ज अदा किया या नमकहरामी की, यह तो तब पता चलेगा जब फिर से एक बार ढोल-नगाड़े, रोड शो, टोपियां, झंडे, बैनर, गाड़ियों के काफिले, जिंदाबाद के स्वर और गले में मालाएं पहने प्रत्याशी अपनी जीत का सेहरा बांध कर धन्यवाद जुलूस में निकलेंगे. खैर, पिछले दो-तीन महीनों से चल रही इस चुनावी नौटंकी में बहुत कुछ देखने को मिला. चेहरे पर कालिख, थप्पड़ से पिटाई, गैर शादीशुदा की नौटंकी और कुंवारों का राजनीति के प्रति लगाव.

वैसे, इन दिनों, ‘जित देखूं तित कुंवारों’ का आलम है. मजाल है कि इनके सामने कोई शादीशुदा चूं-चप्पड़ कर दे. शायद इन कुंवारों को इतना वक्त ही नहीं मिला कि ब्याह के बारे में सोचते. बस देश सेवा को ही उन्होंने अपना चिर संगी बना लिया है. अब वे उसी में पूरे समय मग्न हैं. अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से लोगों में यह भरोसा बढ़ गया है कि कुंवारे रह कर भी सत्ता के केंद्र तक पहुंचा जा सकता है. राहुल बाबा की दाढ़ी के बाल भी अब सफेद होने लगे हैं, पर उन्हें सात फेरों की फिक्र नहीं.

राहुल से एक बार किसी ने शादी के बारे में पूछा, तो वह मुस्करा कर सवाल टाल गये, पर इस सवाल से उनके गाल पर पड़नेवाला गड्ढा, जिसे अंगरेजी में डिंपल कहते हैं, कुछ ज्यादा गहरा हो गया, जिसे कुंवारे पत्रकारों ने गौर से देखा और बड़ी सफाई से अपने फ्लैश में ले लिया. दरअसल, राजनीति का नशा होता ही ऐसा है कि उसके आगे सब कुछ बेस्वाद लगने लगता है. राजनीति के रमता जोगियों का यही अखाड़ा है.

इस चुनावी मौसम में नामांकन से पहले उछल-कूद भी खूब देखने को मिली. पार्टियां चलाना मेंढक तौलने जैसा रहा. तेरह कूदे, तो लालू ने झपट कर नौ दबोच लिये, बाकी हाथ नहीं आये. वैसे, दलों के भीतर अनुशासन रखने में कुंवारों का जवाब नहीं. वे शादी का मसला छोड़ बाकी सारी फैसले त्वरित ढंग से लेते हैं. कुरसी पाने की इस दौड़ में सिर्फ राहुल नहीं, बल्कि जयललिता, नवीन पटनायक, मायावती और ममता बनर्जी भी शामिल हैं.

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