जीवन के दो युग आमने- सामने हैं. मेरा चौदह वर्षीय बेटा अक्सर शीशे के सामने खड़ा होकर अपने आप को निहारा करता है और अपनी उगती हुई हल्की दाढ़ी पर हाथ फेर कर पूछता है कि मैं कब शेव करूंगा?
और उसी वक्त मैं भी उसी शीशे के सामने अपने बचे हुए बालों को समेटते हुए उनको रंगने की जद्दोजहद में लगा रहता हूं, जिससे अपनी बढ़ती उम्र को छुपा सकूं. बाल तो ठीक हैं, पर पकी हुई दाढ़ी को कितना भी क्यों न रंग लो, एक-दो बाल छूट ही जाते हैं, जो आपकी बढ़ती हुई उम्र की चुगली कर ही देते हैं.
मैं और मेरा बेटा उम्र के एक ऐसे ही दौर से गुजर रहे हैं, जहां हम जो हैं, वह मानने को तैयार नहीं हैं. अब वह किशोरावास्था में है, जब बच्चों के लिए बड़ा हो गया है और जवानों के लिए बच्चा ही है. उसका बाप यानी मैं अपनी जवानी की उम्र छोड़ आया है, पर बुढ़ापा अभी आया नहीं है. दोनों उम्र के जिस मुकाम पर हैं, उसे बदलना चाहते हैं.
मैं अपने सफेद बालों को काले रंग से रंगना चाहता हूं, जिससे लोग मुझे अधेड़ न मानें और बेटा जल्दी-से-जल्दी दाढ़ी उगा कर बड़ा हो जाना चाहता है. एक आगे निकल जाना चाहता है और एक पीछे लौटना चाहता है. दोनों ही दौर थोड़े मुश्किल होते हैं, पर जहां किशोरवस्था में सपने उम्मीदें और आनेवाले एक बेहतर कल का भरोसा होता है, वहीं चालीस पार का जीवन थोड़ा परेशान करता है. जिंदगी का मतलब रिश्तों के साथ से होता है, पर उम्र के इस पड़ाव पर इनसान का सबसे पहला करीबी रिश्ता टूटता है, यानी माता –पिता या तो वे जा चुके होते हैं या उम्र के ऐसे मुकाम पर होते हैं, जब कभी भी कोई बुरी खबर आ सकती है.
जिंदगी में एक अजीब तरह की स्थिरता आ चुकी होती है (अपवादों को छोड़ कर), जहां से आप आसानी से अंदाजा लगा सकते हैं कि आप कितनी दूर और जायेंगे. इस चालीस पार के जीवन में वे बातें अब अजीब लगती हैं, जिनका हमने खुद अपने चौदह पार के जीवन (किशोरावस्था ) में बड़े मजे से लुत्फ उठाया था, जैसे- जोर-जोर से गाने सुनना और बार–बार शीशे में चेहरा देखना. बेटे को जल्दी है, ये समय जल्दी से बीत जाये और वह बड़ा हो जाये. मैं समय को रोक देना चाहता हूं, ताकि कुछ समय और मिल जाये. इन दिनों मुझे लखनऊ के शायर मीर अनीस साहब का एक शेर ज्यादा याद आता है
‘दुनिया भी अजब सराय फानी देखी,
हर चीज यहां की आनी-जानी देखी,
जो आके ना जाये वो बुढ़ापा देखा,
जो जाके ना आये वो जवानी देखी.’
मुकुल श्रीवास्तव
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