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गणतंत्र‍@70 : समृद्ध होता गणतंत्र, पंचायती राज का गठन

संविधान के अनुच्छेद 40 में राज्यों को ग्राम पंचायतों के गठन का निर्देश दिया गया है. संविधान के लागू होने के बाद विभिन्न राज्यों द्वारा ग्राम पंचायतों की स्थापना के प्रयास शुरू किये गये. इसके बाद 1952 में गांवों के सर्वांगीण विकास के लिए सामुदायिक विकास कार्यक्रम तथा 1953 में राष्ट्रीय विस्तार सेवा योजना शुरू […]

संविधान के अनुच्छेद 40 में राज्यों को ग्राम पंचायतों के गठन का निर्देश दिया गया है. संविधान के लागू होने के बाद विभिन्न राज्यों द्वारा ग्राम पंचायतों की स्थापना के प्रयास शुरू किये गये. इसके बाद 1952 में गांवों के सर्वांगीण विकास के लिए सामुदायिक विकास कार्यक्रम तथा 1953 में राष्ट्रीय विस्तार सेवा योजना शुरू की गयी. इन कार्यक्रमों की सफलता सुनिश्चित करने और जन सहयोग जुटाने के लिए बलवंत राय समिति का गठन किया गया.

इस समिति ने नवंबर, 1957 में अपने प्रतिवेदन के जरिये त्रिस्तरीय पंचायती राज योजना का प्रारूप पेश किया. इस प्रारूप में ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत, खंड यानी ब्लॉक स्तर पर पंचायत समिति तथा जिला स्तर पर जिला परिषद के गठन का सुझाव दिया गया था. इस सुझाव के तहत 2 अक्बतूर, 1959 को राजस्थान के नागौर जिले में पहली बार पंचायती राज व्यवस्था लागू की गयी और इस व्यवस्था को लागू करने वाला राजस्थान स्वतंत्र भारत का पहला राज्य बना.

इसके बाद इस प्रणाली को सुदृढ़ बनाने के लिए दिसंबर 1977 में अशोक मेहता समिति, 1985 में जीवीके राव समिति एवं 1986 में एलएम सिंघवी समिति का गठन किया गया. इन समितियों ने पंचायती राज को मजबूत बनाने के लिए अनेक सिफारिशों के साथ अपनी रिपोर्टें पेश कीं, लेकिन वे लागू नहीं हो सकीं. इसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने सितंबर 1991 में पंचायती राज को लेकर एक नया विधेयक संसद में पेश किया.

वर्ष 1992 में 73वें संविधान संशोधन अधिनियम 1992 के रूप में यह विधेयक लोकसभा में पारित हो गया. इसके बाद थोड़े-बहुत बदलाव के बाद 24 अप्रैल, 1993 को पंचायती राज कानून बनाया गया और देशभर में इसे लागू किया गया. इस संशोधन के तहत ग्राम स्तर पर ग्राम सभा की स्थापना, त्रिस्तरीय पंचायती राज संरचना की स्थापना, प्रत्येक पांच वर्ष पर पंचायत में नियमित चुनाव, एससी-एसटी के लिए जनसंख्या के अनुपात में सीटों का आरक्षण, महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटों का आरक्षण आदि प्रावधान शामिल किये गये.

औद्योगिक विकास
आजादी के समय हमारे पास बड़ी संख्या में औद्योगिक संसाधन और कच्चे माल उपलब्ध थे, ऐसे में स्वतंत्रता के बाद बड़े पैमाने पर उद्योग लगाने का कार्य शुरू हुआ. आजादी के पहले डेढ़ दशक में भिलाई, बोकारो, राउरकेला, रांची, जमशेदपुर, रेणुकूट आदि स्थान प्रमुख औद्योगिक केद्रों के रूप में उभरे. इसके बाद लगभग सभी राज्यों में मध्यम और लघु स्तर के उद्योग लगाने का काम शुरू हुआ. हालांकि, यह सब इतना अासान नहीं था.
साल 1950 के शुरुआती दौर में हमारे पास उत्पादक माल (प्रोड्यूसर/कैपिटल गुड) के मुकाबले उपभोक्ता माल (कंज्यूमर गुड/वेज गुड) की अधिकता थी. इस अवधि में कंज्यूमर गुड्स व प्रोड्यूसर गुड्स का अनुपात 62:38 था. इतना ही नहीं, औद्योगिक क्षेत्र की अवसंरचना बेहद कमजोर थी और यह क्षेत्र बहुत ही अविकसित था.
इस दौरान उद्योगों का स्वामित्व महज कुछ लोगों के हाथों में सिमटा था व तकनीकी व प्रबंधकीय क्षमता वाले लोग भी काफी कम थे. उद्योग जगत की ऐसी हालत देखते हुए पहली पंचवर्षीय योजना (1950-1965) शुरू की गयी. इस अवधि में औद्योगीकरण को एक व्यावहारिक रूप देने का प्रयास किया गया और कैपिटल गुड सेक्टर के विकास पर ध्यान केंद्रित किया गया. इसके तहत सार्वजनिक क्षेत्र के कई उद्योग स्थापित किये गये.
इनमें महत्वपूर्ण थे हिंदुस्तान शिपयार्ड, हिंदुस्तान टूल्स, इंटीग्रल कोच फैक्टरी आदि. इसके साथ ही लौह व इस्पात, कोयला, भारी इंजीनियरिंग, मशीन बिल्डिंग, भारी रसायन व सीमेंट उद्योग में निवेश को बढ़ावा दिया गया. इसका नतीजा औद्योगिक उत्पादन के तेज दर के रूप में सामने आया और प्रथम, द्वितीय और तृतीय चरण में विकास दर क्रमश: 5.7 से 7.2 और अंतत: 9.0 प्रतिशत पर पहुंच गयी. इस अवधि की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि कैपिटल गुड इंडस्ट्री के तीनों चरणों में क्रमश: 9.8, 13.1 और 19 प्रतिशत की वृद्धि प्राप्त करना रहा.
प्रथम पंचवर्षीय योजना के तहत कंज्यूमर गुड सेक्टर, जो ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ होती है, को नजरअंदाज करने के कारण द्वितीय पंचवर्षीय योजना (1965-1980) की अवधि में उद्योगों की वृद्धि दर के साथ ही अर्थव्यवस्था में भी गिरावट दर्ज हुई. 1965-66 में खाद्यान्न की भयंकर कमी हो गयी. इसके बाद सरकार ने कृषि क्षेत्र को मेकेनाइज करने पर जोर दिया और हरित क्रांति को अपनाया. साल 1965 से 1975 की अवधि में औद्याेगिक वृद्धि दर 9.0 प्रतिशत से गिर कर 4.1 प्रतिशत पर पहुंच गयी.
1979-80 में औद्योगिक विकास दर गिर कर 1.6 प्रतिशत पर आ गयी. 1980 से 1991 का दौर, विशेषकर 1980 का दशक उद्योगों को पटरी पर लाने का रहा. छठी योजना की अवधि में आैद्योगिक वृद्धि दर छह प्रतिशत से अधिक रही और सातवीं योजना में यह 8.5 प्रतिशत पर पहुंच गयी. 1991 का वर्ष आर्थिक उदारीकरण के लिए जाना जाता है. इसी अवधि में भारत ने औद्योगिक क्षेत्र के प्रदर्शन को बेहतर बनाने के लिए प्रमुख निर्णय लिये. वर्ष 2002-03 की अवधि औद्योगिक क्षेत्राें के पुनरुद्धार की रही.
दसवीं योजना के समय औद्योगिक क्षेत्र की विकास दर 5 प्रतिशत रही, जबकि इस योजना की कुल अवधि में विकास दर 8.2 प्रतिशत रही. हालांकि वैश्विक मंदी के कारण 2008-09 के दौरान विकास दर कम होकर 2.8 प्रतिशत पर आ गयी. हालांकि 2009-10 में एक बार फिर औद्योगिक विकास दर 10 प्रतिशत पर पहुंच गयी, लेकिन 2010-11 में फिर से 8.2 प्रतिशत पर आ गयी. इसके बाद विकास दर में कमी आयी और 2011-12 में 2.9, 2012-13 में 1.1, 2013-14 में 0.1 पर आ गयी. इसके बाद इसमें थोड़ा सुधार हुआ और 2014-15 में यह 2.8 और 2015-16 में 3.1 प्रतिशत पर पहुंच गयी.
हिंसक आंदोलनों का शांतिपूर्ण समाधान
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से आज तक, देश-निर्माण की रणनीति के एक हिस्से के रूप में, हिंसक संघर्षों का समाधान, भारतीय नेतृत्व के लिए एक कठिन कार्य रहा है. पिछले छह दशकों की अवधि में देश ने कई हिंसक संघर्षों का सामना किया है, जिसमें से नौ प्रमुख हैं. इनमें से छह अलगाववादी थे और तीन स्वायत्तता से संबंधित थे. पंजाब, तमिलनाडु, असम, नागालैंड, मिजोरम और मणिपुर राज्यों में हिंसक अलगाववादी आंदोलन हुए, जिसमें बोडो (असम), गोरखाओं (पश्चिम बंगाल), और त्रिपुरियों (त्रिपुरा) द्वारा स्वायत्तता की मांग की गयी थी.
इन ज्यादातर हिंसक संघर्षों के अंतर्निहित कारणों में जातीय समूहों की नाराजगी थी. आम तौर पर समान सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अधिकारों का खंडन संघर्ष का कारण बनता है. कुछ समूहों ने केंद्र सरकार की विषम प्रवृत्ति के सामने शक्तिहीन भी महसूस किया है. सभी संघर्षों में, जातीय समूहों की कथित या वास्तविक नाराजगी और राज्य की प्रतिक्रिया की प्रकृति ने संघर्ष के आयामों को निर्धारित किया है.
इनमें से सभी ने हिंसक रूप धारण कर लिया था, हालांकि इनकी तीव्रता भिन्न थी. पंजाब में पैदा हुए संघर्ष ने तो साल 1984 में सिखों के खिलाफ सामूहिक हिंसा देखी. नागालैंड, मिजोरम, असम और पंजाब में हुए पांचों संघर्षों ने, गृहयुद्ध का रूप धारण कर लिया था.
विद्रोहियों और सरकारी सुरक्षा बलों के बीच लंबे समय तक सैन्य संघर्ष जारी रहा. शांति प्रक्रिया में हिंसा एक महत्वपूर्ण कारक रही है. भारत ने समय-समय पर शांति स्थापना के लिए बलप्रयोग का इस्तेमाल भी किया है और मिश्रित परिणाम प्राप्त किये हैं. सभी नौ प्रमुख शांति समझौते कायम करने की प्रक्रिया में छह संघर्षों पर विराम लगाया जा सका था. तीन अन्य संघर्षों में- तमिलनाडु, असम और मणिपुर में, कोई राजनीतिक वार्ता नहीं हुई. हालांकि, त्रिपुरियों, बोडो और मिजोस में शांति समझौते के अंतर्गत शांति कायम की गयी है.
भारत सरकार ने हमेशा उदारवादी नेताओं के साथ पहले बातचीत करना पसंद किया है. इन वार्ताओं की विफलता के बाद ही सरकार उग्रवादी नेतृत्व के साथ बातचीत करती है. दो संघर्ष (मिजो और गोरखा) अब तक राजनीतिक समाधान से ही समाप्त हृुए हैं. पंजाब और तमिलनाडु में भी हिंसक संघर्ष सरकार द्वारा सैन्य दमन या बल प्रयोग से समाप्त किया गया है.
हालांकि, पंजाब के मामले में, उदारवादी सिख नेतृत्व के साथ शांति समझौते पर हस्ताक्षर किये थे. हालिया दशकों में असम में बोडो संघर्ष के मामले में शांति समझौते के पूर्ण रूप से लागू होने की उम्मीद है. इसके अलावा, कश्मीर घाटी में पिछले तीन दशकों से जारी हिंसक अलगाववादी संघर्ष के खात्मे के लिए सैन्य बलों का प्रयोग किया जा रहा है.
खाद्य आत्म-निर्भरता
वर्ष 1947 में जब हमें आजादी मिली उस समय खेती के महज 10 प्रतिशत क्षेत्र में सिंचाई की सुविधा उपलब्ध थी और नाइट्रोजन-फास्फोरस-पोटेशियम (एनपीके) उर्वरकों का औसत इस्तेमाल एक किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से भी कम था. गेहूं और धान की औसत पैदावार आठ किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के करीब थी. इस स्थिति में बदलाव लाने के लिए पहली दो पंचवर्षीय योजनाओं (1950-60) में सिंचित क्षेत्र के विस्तार व उर्वरकों का उत्पादन बढ़ाने पर जोर दिया गया. वहीं पैदावार बढ़ाने के लिए इसी दशक में भारत-जापान धान संकरण कार्यक्रम की शुरुआत हुई.
इसके बाद साठ के दशक में फिलीपींस व ताईवान से धान की अर्द्ध-बौनी किस्मों को विकसित करने का कार्यक्रम शुरू हुआ. 1964 में प्रति हेक्टेयर 4 से 5 टन पैदावार दे सकने वाले मेक्सिको मूल के अर्द्ध-बौने गेहूं के बारे में पता चला, जबकि हमारे लंबे किस्म के गेहूं करीब दो टन पैदावार ही देते थे. पैदावार बढ़ाने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने मैक्सिको से बौने गेहूं के बीजों के आयात की मंजूरी दे दी.
साथ ही सिंचाई और उर्वरक पर भी ध्यान दिया गया. इससे गेहूं के उपज में वृद्धि दर्ज हुई. 1968 में हमारे किसानों ने रिकॉर्ड 170 लाख टन गेहूं का उत्पादन किया, जबकि इससे पहले 1964 में सर्वाधिक 120 लाख टन गेहूं का उत्पादन हुआ था. गेहूं और धान की पैदावार में वृद्धि के साथ-साथ हमारे वैज्ञानिकों ने मक्का, ज्वार और बाजरे की संकर किस्में तैयार कीं. इस प्रकार हमारा खाद्यान्न उत्पादन बढ़ता गया. कृषि मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि 1951 में जहां हमारे देश का खाद्यान्न उत्पादन 50.82 मिलियन टन था वह 1961 में बढ़ कर 82.02, 1971 में 108.42, 1981 में 129.59, 1991 में 176.39, 2001 में 211.9, 2011 में 244.49 और 2016 में 275.11 मिलियन टन पर पहुंच गया.
आर्थिक सर्वेक्षण 2018 की वार्षिक रिपोर्ट की मानें, तो वर्ष 1961 व 1971 में प्रति व्यक्ति अनाज की उपलब्धता जहां 468.7 व 468.8 ग्राम थी वह 2018 में 487 ग्राम प्रति दिन, प्रति व्यक्ति हो गयी थी. इस आत्म-निर्भरता के बावजूद कृषि की बढ़ी लागत, बढ़ती आबादी, शहरीकरण, शहरों की बढ़ती जनसंख्या, खेती के छोटे होते रकबे, भोजन की बढ़ती मांग आदि कारणों से भविष्य में हमारे लिए खाद्य सुरक्षा बनाये रखना एक चुनौती होगी.
नगरीकरण
गणतंत्र की स्थापना के बाद से देश में नगरीकरण में तेजी देखी गयी है. हमारी कुल आबादी का 31 फीसदी से अधिक हिस्सा शहरों में निवास करता है. इस वक्त, देश की कुल जीडीपी का लगभग 65 फीसदी हिस्सा नगरों से आता है. जानकारों के अनुसार आगामी 15 वर्षों में शहर हमारी कुल जीडीपी में तकरीबन 75 फीसदी आय अर्जित करेंगे. इसके अलावा, साल 2031 तक नगरों में लगभग 600 मिलियन भारतीय नागरिक निवास करेंगे. वर्ष 2050 तक भारत की जनसंख्या लगभग 1.65 अरब हो जायेगी. उस वक्त देश की 50 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या शहरों में रहने वालों की होगी.
सफल स्वायत्त क्षेत्रों की स्थापना
साल 1947 के बाद से देश में कई सफल स्वायत्त क्षेत्र निर्मित हुए हैं. स्वायत्त क्षेत्र उन्हें कहा जाता है, जिन्हें भारतीय राज्य के कानूनों और प्रक्रियाओं में विभिन्न स्तरों पर भारत के संविधान की छठी अनुसूची के आधार पर स्वायत्तता मिली हुई है.
असम के बोडोलैंड प्रादेशिक परिषद को 1990 दशक के मध्य में स्वायत्त क्षेत्र घोषित किया गया था. बोडोलैंड क्षेत्रीय परिषद के पास 40 से अधिक आधिकारिक क्षेत्रों में विधायी, प्रशासनिक, कार्यकारी और वित्तीय अधिकार हैं. इसके अलावा, दीमा हसाओ स्वायत्त जिला परिषद, कार्बी आंगलांग स्वायत्त जिला परिषद स्वायत्त क्षेत्र में आता है.
मणिपुर में सदर हिल्स स्वायत्त जिला परिषद स्वायत्त क्षेत्र में आता है. मणिपुर के चूड़ाचांदपुर, चंदेल, सेनपति, तामेंगलांग और उखरूल भी स्वायत्त क्षेत्र हैं.
जम्मू और कश्मीर क्षेत्र के लद्दाख स्वायत्त पर्वतीय विकास परिषद के अंतर्गत लेह व कारगिल स्वायत्त क्षेत्र में आते हैं.
मेघालय में गारो हिल्स स्वायत्त जिला परिषद का गठन किया गया था और इसमें पूर्वी गारो हिल्स जिला, पश्चिम गारो हिल्स जिला, दक्षिण गारो हिल्स, उत्तरी गारो हिल्स जिले और दक्षिण पश्चिम गारो हिल्स जिले भी आते हैं.
मिजोरम का चकमा स्वायत्त जिला परिषद चकमा लोगों के विकास के लिये स्वायत्त घोषित किया गया है. लाइ जनजाति के लिए लाइ स्वायत्त जिला परिषद, मारा जनजाति के लिए मारा स्वायत्त जिला परिषद स्थापित किया गया था.
त्रिपुरा का त्रिपुरा जनजातीय क्षेत्र स्वायत्त जिला परिषद स्वायत्त क्षेत्र है
पश्चिम बंगाल का गोरखालैण्ड क्षेत्रीय प्रशासन एक अर्ध-स्वायत्त प्रशासनिक निकाय है, जिसका गठन दार्जिलिंग पहाड़ियों के विकास हेतु किया गया था.
नार्थ सेंटिनल द्वीप भारत के अंडमान और निकोबार द्वीप समूह की द्वीप श्रृंखला में स्थित है. यह विश्व के कुछ आखिरी ऐसे आदिवासियों (सेंटिनलीज) का घर है, जिनका बाहरी दुनिया से संपर्क नहीं है और ये किसी भी तरह का हस्तक्षेप नहीं स्वीकार करते.
महिलाओं की भागीदारी
स्वतंत्रता के बाद देश में लगभग हर क्षेत्र में प्रगति हुई है. भारतीय अर्थव्यवस्था आर्थिक शक्ति बनने की ओर कदम बढ़ा रही है. सामाजिक तौर पर भी बदलाव देखे गये हैं. किसी भी सेक्टर की बात की जाये, तो पुरुषों के साथ-साथ कदम बढ़ाते-आगे निकलते महिलाओं को देखा जा सकता है. विज्ञान से लेकर खेलों तक, भारतीय महिलाओं ने अपना लोहा मनवाया है.
अपनी सीमित भागीदारी में ही महिलाओं ने देश में सर्वोच्च प्रदर्शन करके दिखाया है. विजय लक्ष्मी पंडित साल 1953 में यूनाइटेड नेशंस जनरल एसेंबली की पहली महिला अध्यक्ष बनी थीं. साल 1963 में सुचेता कृपलानी उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं, उस वक्त किसी भी भारतीय राज्य में यह पद संभालने वाली पहली महिला थीं.
कैप्टन दुर्गा बनर्जी साल 1966 में भारतीय एयरलाइंस की पहली भारतीय महिला पायलट बनीं. इसी वर्ष चुनी गयी इंदिरा गांधी ने पंद्रह वर्षों तक भारत के प्रधानमंत्री के रूप में काम किया और दुनिया की सबसे लंबे समय तक सेवारत महिला प्रधानमंत्री बनीं. साल 1972 में किरण बेदी पहली महिला आइपीएस बनी. मदर टेरेसा ने नोबेल शांति पुरस्कार प्राप्त किया. बछेंद्री पाल माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने वाली पहली भारतीय महिला हैं. न्यायमूर्ति एम फातिमा बीवी भारत के उच्चतम न्यायालय की पहली महिला जज रह चुकी हैं.
कल्पना चावला, भारत में जन्मी प्रथम महिला थीं जो अंतरिक्ष में गयीं थीं. साल 2007 में प्रतिभा पाटिल को देश का राष्ट्रपति चुना गया था. हाल ही में, मैरीकॉम ने विश्व मुक्केबाजी में नंबर वन की रैंकिंग हासिल की है. महिलाओं ने अपने सभी मौकों को भुनाया है और राष्ट्र निर्माण में भूमिका निभायी है, लेकिन देश के विभिन्न क्षेत्रों के कुल कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी अपेक्षा से कम है.
इकनॉमिक सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक साल 2018 में भारत की 24 फीसदी महिलाएं ही कामकाजी थीं. वैश्विक महिला-पुरुष असमानता इंडेक्स में भारत 108वें स्थान पर था. साल 2004 से 2011 के बीच कामकाजी महिलाओं की संख्या में 2 करोड़ की कमी देखी गयी है. इस स्थिति को सुधारने की जरूरत है.

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