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संसद में उपस्थिति

देश की सबसे बड़ी पंचायत अपना कामकाज ठीक ढंग से कर सके, इसके लिए जरूरी है कि सांसद और मंत्री सदन की बैठकों में मौजूद रहें. एक चलन यह है कि सरकार का प्रतिनिधित्व करने के लिए मंत्रियों की एक सूची बनायी जाती है, जिसके अनुसार बारी-बारी से मंत्रियों का समूह सदन में हाजिर रहता […]

देश की सबसे बड़ी पंचायत अपना कामकाज ठीक ढंग से कर सके, इसके लिए जरूरी है कि सांसद और मंत्री सदन की बैठकों में मौजूद रहें. एक चलन यह है कि सरकार का प्रतिनिधित्व करने के लिए मंत्रियों की एक सूची बनायी जाती है, जिसके अनुसार बारी-बारी से मंत्रियों का समूह सदन में हाजिर रहता है.

चालू सत्र के दौरान ऐसा ठीक से नहीं होने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नाराजगी जतायी है और अनुपस्थित मंत्रियों की सूची तलब की है. अनेक विपक्षी नेताओं ने उनसे मंत्रियों की गैर-हाजिरी की शिकायत की थी.

उन्होंने अपने सांसदों को भी सदन में रहने की फिर नसीहत दी है. वे पहले यह भी इंगित कर चुके हैं कि मंत्रिपरिषद गठन में उन्होंने सांसदों की मौजूदगी और चर्चाओं में शामिल होने के रिकॉर्ड का भी संज्ञान लिया था. प्रधानमंत्री ने उचित ही कहा है कि सत्र की अवधि में सदन में नहीं रहने का कोई कारण नहीं हो सकता है. कानून बनाने और अहम मसलों पर चर्चा करने का जिम्मा लोकसभा और राज्यसभा का है.

इसी जिम्मेदारी को निभाने के लिए जनता ने उन्हें संसद में भेजा है. बहसों में सरकार से जवाब तलब करना और सरकार की ओर से अपना पक्ष रखना सदन की कार्यवाही का महत्वपूर्ण हिस्सा है. अगर सांसद और मंत्री सदन में ही नहीं होंगे, तो सत्र का मतलब क्या रह जाता है? यह भी देखा जाता रहा है कि प्रश्न काल में जब मंत्री जवाब देने के लिए मौजूद होते हैं, तो सवाल पूछनेवाले सांसद ही गायब रहते हैं.

कुछ साल पहले इस समस्या के कारण राज्यसभा ने अपने नियमों में कुछ संशोधन करते हुए यह व्यवस्था कर दी है कि ऐसे सांसदों के न रहने पर भी मंत्री मौखिक रूप से जवाब दे सकते हैं और उपस्थित सदस्य पूरक प्रश्न पूछ सकते हैं. इससे सरकार की जवाबदेही को पुख्ता करने में मदद मिली है. आम तौर पर साल में संसद के सत्रों की अवधि सौ दिन के आसपास होती है.

संसद का खर्च छह सौ करोड़ रुपये से भी अधिक है. कुछ आकलनों के मुताबिक संसद का हर मिनट का खर्च ढाई लाख होता है. ऐसे में मंत्रियों और सदस्यों के न रहने, हंगामा होने, स्थगन होने जैसे कारकों से समय के साथ धन की भी बर्बादी होती है. जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों को यह ध्यान में रखना चाहिए कि उनके वेतन-भत्ते और सुविधाओं का खर्च जनता ही उठाती है.

अनुपस्थिति और अव्यवस्था से विधेयकों पर चर्चा भी बाधित होती है. कई बार सत्र के अंतिम एक या दो दिन में अनेक विधेयकों को मामूली चर्चा या बिना बहस के पारित करना पड़ता है. हमारे हालिया संसदीय इतिहास में ऐसे मौके भी आये हैं, जब न्यूनतम उपस्थिति के अभाव में सत्र रद्द करना पड़ा है.

सदन चलाने में विपक्ष की भूमिका भी महत्वपूर्ण है, पर इसकी अधिक जिम्मेदारी सत्ता पक्ष की है. प्रधानमंत्री मोदी ने अपने मंत्रियों और सांसदों को सदन में रहने का निर्देश देकर एक बड़ी मिसाल कायम की है.

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