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”आप” के पांच साल

मुक्तिबोध की एक कविता की पंक्तियां हैं- ‘मैं एक थमा हुआ मात्र आवेग/ रुका हुआ एक जबरदस्त कार्यक्रम/ मैं एक स्थगित हुआ अगला अध्याय/ मैं एक शून्य में छटपटाता हुआ उद्देश्य.’ आम आदमी पार्टी के पांच सालों के सफर पर ये पंक्तियां सटीक बैठती हैं. भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन जब एक राजनीतिक पार्टी में तब्दील हुआ, […]

मुक्तिबोध की एक कविता की पंक्तियां हैं- ‘मैं एक थमा हुआ मात्र आवेग/ रुका हुआ एक जबरदस्त कार्यक्रम/ मैं एक स्थगित हुआ अगला अध्याय/ मैं एक शून्य में छटपटाता हुआ उद्देश्य.’ आम आदमी पार्टी के पांच सालों के सफर पर ये पंक्तियां सटीक बैठती हैं. भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन जब एक राजनीतिक पार्टी में तब्दील हुआ, तब सवाल यह था कि क्या नैतिकता की राजनीति सत्ता से बाहर रहकर नहीं की जा सकती? आंदोलन के सिद्धांतकारों का उत्तर था कि जन-आंदोलनों के जरिये सत्ता के फैसलों पर असर डाला जा सकता है, परंतु जब तक सत्ता की बागडोर आंदोलनकारियों के हाथ नहीं आ जाती है, भारत में ‘तंत्र’ के हाथों ‘लोक’ मजबूर होता रहेगा. पार्टी ने अपने पूर्ववर्ती आंदोलनकारी रूप में राजनीति की नयी परिभाषा देते हुए कहा कि ‘शुभ को सच करने का नाम है राजनीति.’ पार्टी ने चुनाव लड़ा, लोगों का साथ मिला और एक अचरज घटा.

पूरे देश में जब विपक्षी दिग्गज मोदी-महारथ के आगे धराशायी नजर आ रहे थे, तब अरविंद केजरीवाल की छोटी-सी पार्टी ने करिश्मा कर दिखाया. दिल्ली के चुनावी मैदान में परंपरागत पार्टियांे की राजनीति हार गयी और एक नयी राजनीति को जीत मिली, जिसका वादा लोगों की सत्ता लोगों के हाथ में देने का था. इस विराट वादे और बीते सालों की कठिन कसौटी को सामने रखकर देखें, तो आम आदमी पार्टी पूरी तरह खरी साबित नहीं होती है. कुछ नेताओं की महत्वाकांक्षा और सत्ता के मोह ने पार्टी के आंदोलनधर्मी आवेग को बांध दिया है.

आरोपों और सियासी समझौतों से पार्टी और केजरीवाल की साख में बट्टा जरूर लगा है. एक पार्टी, जिसे नैतिकता की एक परियोजना के रूप में अखिल भारतीय होना था, दिल्ली तक सिमटी नजर आ रही है. इस लिहाज से ‘आप’ अब एक ‘रुका हुआ जबर्दस्त कार्यक्रम’ भर है. लेकिन, इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता है कि इसकी सीमित चुनावी सफलताएं तथा दिल्ली सरकार के कुछ लोक कल्याणकारी योजनाएं सार्वजनिक जीवन में इस पार्टी की मौजूदगी को अहम बनाती हैं.

दिल्ली नगर निगम में उम्मीद से बहुत कम सीटें पाना जहां पार्टी की कमजोरी को दर्शाता है, वहीं एक उपचुनाव में जीत यह भी इंगित करती है कि उसका दबदबा एक स्तर पर बरकरार है. यह नयी पार्टी एक नेता और एक-दो राज्यों के इर्द-गिर्द चक्कर काटती नजर तो आती है, पर यह भी एक तथ्य है कि नयी जनोन्मुखी राजनीति की उम्मीद की वह मिसाल भी बन चुकी है. राजनीति में पांच साल इतने भी ज्यादा नहीं होते कि उसके आधार पर एक दल के भविष्य के बारे में दावे से भले कुछ कह दिया जाये, पर यह स्वीकार करना पड़ेगा कि आंतरिक और बाह्य झंझावातों के बाद भी ‘आप’ का वजूद बचा हुआ है. आशा है कि पार्टी अपनी इस यात्रा पर गंभीरता से मंथन करेगी. ऐसा करना, पार्टी और लोकतंत्र में नयी आवाजों की जगह बन सकने की संभावनाओं, दोनों के लिए भी आवश्यक है.

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