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सुनवाई में तेजी

लंबित मुकदमों के निपटारे के मोर्चे पर कुछ राज्यों को बड़ी कामयाबी मिली है. हरियाणा, पंजाब, हिमाचल, केरल और चंडीगढ़ की निचली अदालतों में 10 साल या इससे ज्यादा समय से लंबित तकरीबन सभी मुकदमों को पूरा कर दिया गया है. दिल्ली, असम, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में भी ऐसे पुराने लगभग 99 […]

लंबित मुकदमों के निपटारे के मोर्चे पर कुछ राज्यों को बड़ी कामयाबी मिली है. हरियाणा, पंजाब, हिमाचल, केरल और चंडीगढ़ की निचली अदालतों में 10 साल या इससे ज्यादा समय से लंबित तकरीबन सभी मुकदमों को पूरा कर दिया गया है. दिल्ली, असम, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में भी ऐसे पुराने लगभग 99 फीसदी मुकदमों का निपटारा हो गया है. फैसले की बाट जोह रहे मुकदमों की संख्या ऊपरी अदालतों में भी ज्यादा है, लेकिन सर्वाधिक बोझ निचली अदालतों पर है.
एक रिपोर्ट के मुताबिक, ऊपरी अदालतों में दिसंबर, 2014 तक 31.16 लाख दीवानी और 10.37 लाख फौजदारी के मुकदमे लंबित थे. इसमें 10 साल से पुराने दीवानी मुकदमों की संख्या 5.89 लाख थी और फौजदारी के ऐसे मुकदमों की संख्या 1.87 लाख. निचली और अधीनस्थ अदालतों में दिसंबर, 2014 में 82.34 लाख दीवानी और 1.82 करोड़ से अधिक फौजदारी के मुकदमे लंबित थे. इसमें दीवानी के छह लाख और फौजदारी के कुल 14 लाख मुकदमे 10 साल से भी ज्यादा वक्त से सुनवाई की प्रक्रिया में हैं.
लंबे समय लटके मुकदमों की इस बड़ी तादाद का मतलब बहुत गंभीर होता है, बशर्ते हम ध्यान रखें कि देश में फौजदारी के छोटे-मोटे मामलों में गिरफ्तार विचाराधीन कैदियों की तादाद बहुत ज्यादा है और ऐसे हर मामले में इंसाफ मे देरी का मतलब एक तरह से उसका इंकार करना है. समाधान के रूप में जजों की संख्या बढ़ाने पर जोर दिया जाता है. पूर्व प्रधान न्यायाधीश टीएस ठाकुर ने मई, 2016 में कहा था कि लंबित मुकदमों की तादाद को देखते हुए फिलहाल 70 हजार जजों की जरूरत है, लेकिन 18000 जजों से काम चलाना पड़ रहा है.
लेकिन, इस जरूरत के बरक्स विधि आयोग के एक अध्ययन में दावा किया गया कि कुछ राज्यों (मिसाल के गुजरात जहां प्रति 10 लाख आबादी पर जजों की संख्या 32 है) में जजों की संख्या बेहतर है, तो भी वहां लंबित मुकदमों का निपटारा ठीक नहीं हो रहा है, जबकि कुछ राज्यों (जैसे कि तमिलनाडु, प्रति 10 लाख आबादी पर 14 जज) में जजों की तादाद बहुत कम है, पर लंबित मामलों के निपटारे की दर वहां बेहतर है.
इस आधार पर एक निष्कर्ष यह निकाला गया कि जजों की संख्या को तात्कालिक तौर पर बढ़ाये बिना भी सुनवाई की रफ्तार बढ़ायी जा सकती है. इसके उपायों का सुफल कुछ राज्यों में दिख रहा है और बाकी राज्यों को चाहिए कि वे ऐसे उपायों पर अमल करें.

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