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भारतीय उदारवादियों का दोहरा रवैया

प्रभु चावला एडिटोरियल डायरेक्टर द न्यू इंडियन एक्सप्रेस prabhuchawla @newindianexpress.com उदारवादी धर्मनिरपेक्षवादियों के स्वप्निल संसार में अल्पसंख्यकों के सरोकार ही सर्वप्रमुख होते हैं. पर अब यह समुदाय सामाजिक, सियासी एवं आर्थिक रंगभेद का शिकार बन जाने की जोखिम में है. एक नये मध्य वर्ग और एक नव-महत्वाकांक्षी सहस्राब्दी के उदय के साथ उदारवाद एक विचार […]

प्रभु चावला
एडिटोरियल डायरेक्टर
द न्यू इंडियन एक्सप्रेस
prabhuchawla
@newindianexpress.com
उदारवादी धर्मनिरपेक्षवादियों के स्वप्निल संसार में अल्पसंख्यकों के सरोकार ही सर्वप्रमुख होते हैं. पर अब यह समुदाय सामाजिक, सियासी एवं आर्थिक रंगभेद का शिकार बन जाने की जोखिम में है. एक नये मध्य वर्ग और एक नव-महत्वाकांक्षी सहस्राब्दी के उदय के साथ उदारवाद एक विचार और आदर्श के रूप में अपनी वास्तविकता तथा प्रासंगकिता खो चुका है. वर्ष 2019 का जनादेश इसकी ताबूत में अंतिम कील की तरह ही था. अब वे अपनी हताशापूर्ण कोशिश के अंतर्गत पिछले कुछ सप्ताहों में हर वैसे अवसर का उपयोग करते हुए मोदीवाद और नया भारत के उनके ब्रांड को मिले जनादेश को मलिन करने में लगे हैं.
भारत-पाक क्रिकेट मैच के सैद्धांतिक पिच पर उनके ‘नो बॉल’ भारतीय ‘कवर ड्राइव’ के सामने विचलित हो गये. उदारवाद की मुहावरेदार कमेंटरी ने इस मैच को सिर्फ एक और आयोजन के रूप में लिया- ‘क्रिकेटप्रेमी बेहतर टीम की हौसलाअफजाई करें.’ उन्होंने यह मान लिया कि पाकिस्तान की टीम विराट कोहली की खूंखार टीम जितनी ही बेहतर है. उधर विश्व के विभिन्न हिस्सों से दस हजार भारतीय प्रशंसकों का विशाल दर्शक वर्ग कीमती हवाई टिकटों पर दिल खोलकर खर्च करते हुए यह मानकर मैच देखने लंदन पहुंच गया कि भारतीय टीम विश्व की सर्वश्रेष्ठ टीम से भी बेहतर है.
पर बहुतेरे उदारवादी नेता और स्तंभकार-सह-तथाकथित क्रिकेट विशेषज्ञों ने पाकिस्तानी टीम की तारीफ के कसीदे गाने लगे. इसमें कोई संशय नहीं कि यह सिर्फ एक खेल ही था, मगर उदारवादियों ने एक शैतान देश के साथ शांति तथा संवाद के अपने आत्यंतिक लगाव की वजह से इसे अपने सैद्धांतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने का बहाना बना लिया. मेनचेस्टर में जो कुछ हुआ, अब वह इतिहास का हिस्सा है. अमित शाह के शब्दों में यह एक घातक 22 गजी ‘चोट’ थी, जिसने पाकिस्तान के दंभ को चूर कर दिया.
मुस्लिमों पर नकारात्मक असर डालनेवाली घटनाओं के लिए ‘बैटिंग’ करते हुए बहुसंख्यक-बहुल संस्थाओं की निंदा करना उदारवादियों का एकमात्र खेल रह गया है. उदाहरण के लिए कोलकाता के डॉक्टरों पर हमले के सांप्रदायिक रंग की अनदेखी कर दी गयी. भीड़ द्वारा किसी पर हिंसक हमले की रिपोर्ट सुनकर उदारवादी क्षोभ से भर जाते हैं. ऐसे कुछ विरोध तो उचित होते हुए भी इसलिए पक्षपाती ही होते हैं कि जब ऐसी किसी घटना का शिकार कोई हिंदू होता है, तो उनका गुस्सा गायब हो जाता है. जब कट्टरवादी मुस्लिम दलितों के साथ अमानवीय व्यवहार करते हैं, तो इनकी उदारवादी चेतना नींद लेने लगती है.
भारतीय उदारवादियों ने उदारवाद की परिभाषा को पुनर्भाषित किया है. वे राज्य अथवा सैद्धांतिक नियंत्रण के विचार का विरोध करते हैं. मगर यदि उनके विचार भारतीय संदर्भ में विश्लेषित किये जायें, बहुमतवाद के प्रति उनकी आपत्ति का सरोकार अंततः संघ परिवार से संबद्ध किसी भी एवं सभी चीजों पर ही जा टिकता है. वे आर्थिक मामलों में कम से कम सरकारी हस्तक्षेप की वकालत करते हैं. फिर भी वे गरीबों को सब्सिडी का विरोध करते हुए अमीरों के लिए बड़े प्रोत्साहनों की सलाह देते हैं.
वे सार्वजनिक शिक्षा के लिए तो भारी सहायता सुलभ कराने की बातें करते हैं, किंतु अपने बच्चों को देश और विदेश के सबसे महंगे स्कूलों में पढ़ने भेजते हैं. वे आदिवासियों, मजदूरों, किसानों तथा गरीब महिलाओं के अधिकारों की रक्षा पर बोलते हैं, लेकिन स्वदेश और विदेशों में विलासितापूर्ण परिसंवादों में स्वयं को अंगरेजी में अभिव्यक्त करना पसंद करते हैं. ऐतिहासिक रूप से भारत में उदारवादियों का उदय सीधी तरह अल्पसंख्यकों के अवनति से जुड़ा रहा है. अधिकतर मुस्लिम आबादी मलिन बस्तियों में रहती है, राष्ट्रीय प्रतिव्यक्ति आय से कम उपार्जित करती है और सार्वजनिक संपत्तियों तक उनकी पहुंच सीमित होती है.
मगर यह निराशापूर्ण तथ्य भी इन उदारवादियों को पृथ्वी के चक्कर लगाते हुए अपने संकीर्ण नजरिये के श्रोताओं को आनंदित करने के उपाय और साधन तलाशने से नहीं रोकता. भारत के उच्चवर्गीय मुस्लिम नेतृत्व के उत्तरोत्तर बढ़ते सामाजिक-आर्थिक पराभव ने विदेशों में शिक्षित उच्चवर्गीय हिंदुओं के लिए जगह खाली कर दी, जो राज्य एवं उसके द्वारा प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से नियंत्रित कई संस्थाओं द्वारा मुहैया सुविधाओं पर पलते रहे. उनकी संतानें सर्वोत्तम स्कूलों में दाखिल हुईं, उन्हें विदेशी छात्रवृत्तियां मिलीं और वे कमाऊ तथा प्रभावशाली पदों तक पहुंच गये. उन्होंने शैक्षिक संस्थानों, मीडिया तथा सांस्कृतिक संस्थानों के नियंत्रण थाम लिये और उनसे अपने आनुवांशिक उदारवादी एजेंडे के हित साधने लगे.
जो लोग एक कश्मीरी दहशतगर्द को गोली लगने पर तो चीख उठते थे, मगर कश्मीरी पंडितों को कश्मीर से हिंसक रूप से निकाले जाने पर उनके समर्थन से बाज रहे, वे ही अब निशाने पर हैं. जब पृथ्वी पर स्वर्ग सरीखी कश्मीर की वनाच्छादित घाटियां सीमापार के परजीवियों द्वारा अपनी शिकारस्थली बनायी जा रही थी, तो यहां तक कि नेहरूवादी भी चुप्पी साधे बैठे रहे. एक पक्षपातरहित मानवीयता का सवाल आज बहुत मौजूं बन गया है.
उनका खून तब क्यों नहीं खौला, जब 32-वर्षीया महिला पुलिस अधिकारी सौम्या पुष्करन को उसके ही एक सहकर्मी एजाज ने आग की लपटों के हवाले कर दिया? क्यों उन्होंने निर्धन हिंदुओं का बलात धर्मपरिवर्तन कर उन्हें मुस्लिम बनाने की रिपोर्टों को नजरअंदाज कर दिया? जब वे विजय माल्या और नीरव मोदी जैसों के खून के प्यासे बने बैठे हैं, तो क्यों बेंगलुरु के उदारवादी उन 26 हजार मुस्लिमों की तकलीफ से अछूते नजर आते हैं, जिनके पैसे एक छद्म बैंकर मुहम्मद मंसूर खान के फर्जीवाड़े के हवाले हो गये? क्यों ऐसी घटनाओं पर मीडिया में तीखी बहसें नहीं होतीं? यह एक विरोधाभास ही है कि जब कांग्रेस तथा वाम दल जैसी उदारवादी पार्टियों ने अपने बहुमत विरोधी रुख नरम कर लिये, तो उनके ये समर्थक अपनी अकड़ पर अब भी अड़े हुए हैं.
मैं अभी तक भी मोदी प्रभाव को नहीं समझ सका हूं. नया भारत नेहरू के उदारवादी ढांचे के अस्पष्ट भारत से रंग और शिल्प में बहुत भिन्न है. इस नयी पारिस्थितिकी से अपना तालमेल बिठाने हेतु भारतीय उदारवादियों को अपने अत्यधिक अहंकार के डीएनए की फिर से तलाश करनी होगी. बहुमत की लोकतांत्रिक आवाज को अपनी उच्च वर्गीयता तथा संकीर्ण संपर्कीयता से डराकर चुप कर देने का समय अब गुजर गया.

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