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अजीम प्रेमजी का परोपकारी व्यक्तित्व

आकार पटेल कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया delhi@prabhatkhabar.in धनी व्यक्ति को अपनी संपति समाज को वापस सौंप देना चाहिए और उसे धनवान के रूप में नहीं मरना चाहिए, यह विचार एंड्र्यू कार्नेगी का है. कार्नेगी एक अमेरिकी उद्यमी थी, वे खुद के बूते बने थे और उन्होंने इस्पात का साम्राज्य खड़ा किया था. उन्होंने 35 […]

आकार पटेल

कार्यकारी निदेशक,

एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया

delhi@prabhatkhabar.in

धनी व्यक्ति को अपनी संपति समाज को वापस सौंप देना चाहिए और उसे धनवान के रूप में नहीं मरना चाहिए, यह विचार एंड्र्यू कार्नेगी का है. कार्नेगी एक अमेरिकी उद्यमी थी, वे खुद के बूते बने थे और उन्होंने इस्पात का साम्राज्य खड़ा किया था. उन्होंने 35 वर्ष की उम्र से अपनी संपत्ति दान करना शुरू कर दिया था. सौ वर्ष पूर्व 1919 में उनकी मृत्यु हो गयी और उस समय तक उन्होंने अपनी कुल संपत्ति का 90 प्रतिशत दान में दे दिया था.

अपनी मृत्यु के 30 वर्ष पहले 1889 में, जब उनकी उम्र 50 से 60 के बीच थी, उन्होंने ‘द गॉस्पेल ऑफ वेल्थ’ नाम से एक पुस्तक लिखा था. इसमें उन्होंने व्याख्या की थी कि क्यों अधिशेष धन का सबसे अच्छा उपयोग इसे वापस समाज में लाना था.

उन्होंने धनी लोगों द्वारा फिजूलखर्ची और भोग-विलास में डूबे रहने को हतोत्साहित किया और निष्क्रिय लोगों पर कर बढ़ाने के लिए सरकार को प्रोत्साहित किया.

उन्नीसवीं सदी के पहले केवल अभिजात लोग ही धनी थे, जिनके पास भूमि होती थी और जिससे उन्हें किराया या कर मिलता था. इंग्लैंड की महारानी अाज भी लंदन के एक हिस्से की मालकिन हैं और कर वसूलती हैं. बेशक कुछ व्यापारी भी थे, लेकिन उनकी संख्या अधिक नहीं थी. संपत्ति आम तौर पर भूमि के रूप में होती थी.

उस अवधि में दान की सोच अज्ञात थी, हालांकि चर्च वैसे लोगों से आय का एक हिस्सा वसूलता था, जो दे सकते थे. उसे दशमांश कहा जाता था और प्राय: आय का 10 प्रतिशत भाग होता था. इसका कुछ स्वरूप आज भी चलन में है.

भारतीय शिया समुदाय के दाउदी बोहरा और इस्माइल खोजा तबके अपनी आय का एक भाग अपने धर्म प्रमुख सैयदना और आगा खान को देते हैं. इस पैसे को धर्म प्रमुख प्राय: दान-पुण्य के कार्यों, जैसे- अस्पताल या स्कूल में खर्च करते हैं. हिंदू भी मंदिरों में दान देते हैं, लेकिन उनमें से ज्यादा सोने के रूप में होता है. इसका इस्तेमाल नहीं हो सकता है. अभी मैं केरल में हूं और मैंने तिरुअनंतपुरम स्थित पद्मनाभस्वामी मंदिर का दर्शन किया. यह भारत के सबसे धनी मंदिरों में से है, पर इसका अधिकांश धन सोने के रूप में है.

इस संस्कृति पर अजीम प्रेमजी ने अपनी छाप छोड़ी है. पिछले सप्ताह वे विप्रो समूह के प्रमुख के पद से सेवामुक्त हुए. वे विश्व के महान परोपकारियों में हैं. प्रेमजी डेढ़ लाख करोड़ रुपये दान कर चुके हैं. हममें से अधिकतर को ये पता भी नहीं होगा कि यह राशि कितनी होती है. इसे एक संदर्भ में रखकर देखें, तो इससे भारत के स्वास्थ्य और शिक्षा बजट की भरपाई हो सकती है. यह राशि प्रेमजी के जीवनभर के कामों का प्रतिनिधित्व करती है. उन्होंने 21 वर्ष की उम्र में तेल बनानेवाली एक छोटी कंपनी विप्रो की कमान संभाली थी. उन्होंने दशकों तक इसका विस्तार किया, विशेष रूप से सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में. यहीं से उन्होंने ज्यादातर संपत्ति अर्जित की.

प्रेमजी जब धन कमा रहे थे, तभी उन्होंने इसे दान देना और न्यास बनाना शुरू कर दिया था. इससे यह सुनिश्चित हुआ कि अनुभवी पेशेवरों के हाथ में उनके पैसों का नियंत्रण था और वे प्रेमजी की तरफ से दान करते थे. यह प्रेमजी को असाधारण बनाता है, खासकर भारत में. हमारे धनिकों को वैभव पसंद है, जैसे- महलनुमा मकान, नौकाएं, निजी जेट और चित्ताकर्षक कारों का बेड़ा आदि. हम जैसे मध्य वर्ग के बाकी लोग इस तमाशे का बस आनंद लेते हैं और हम इसे पेज थ्री संस्कृति कहते हैं.

विश्व के धनाढ्य लोगों में से एक होने के बावजूद अजीम प्रेमजी ने बेहद सादगी के साथ अपना जीवन जिया है. उनकी यह सादगी तब भी दिखी थी, जब उन्होंने अपने पद को छोड़ने की घोषणा करते हुए विप्रो कर्मचारियाें को एक पत्र लिखा. शुरुआत से लेकर पत्र का अधिकांश हिस्सा नये अध्यक्ष और नये प्रबंध निदेशक का परिचय देने के लिए समर्पित है. इस पत्र में उन्होंने अपना जिक्र एकदम अंत में किया है और खुद के बारे में अपने स्वभाव के अनुसार बहुत कम लिखा है. इस ंपत्र में उनकी अपनी उपलब्धियों का कोई उल्लेख नहीं है. मैं इस तरह के दूसरे किसी त्यागपत्र के बारे में नहीं जानता हूं, विशेषकर किसी ऐसे व्यक्ति का, जिसके नाम के साथ ऐसी उपलब्धियां जुड़ी हुई हैं.

एक भारतीय के रूप में हमारे पास व्यक्तिगत व्यवहार के आदर्श के रूप में बहुत कम प्रेरणास्रोत हैं. हम दिखावटी और करिश्माई व्यक्तियों को पसंद करते हैं, जिनके आचार-व्यवहार फिल्मी सितारों की तरह होते हैं.

हमें इस बात को अवश्य रेखांकित करना चाहिए कि आज के ऐसे माहौल में एक अरबपति ने ऐसा काम किया है, जो आज तक किसी ने नहीं किया है तथा उन्होंने ऐसा पूरी विनम्रता और सम्मान के साथ किया है.

आधुनिक युग में कुछ ही चीजें मुझे गुजराती होने पर गर्व महसूस कराती हैं. लेकिन प्रेमजी का जीवन निश्चित तौर पर उनमें से एक है. हम सभी इसे एक उदाहरण के रूप में देख सकते हैं और कह सकते हैं: ‘यही वह है, जिसके लिए मनुष्य सक्षम है.’

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