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किताबों से अब मुलाकात नहीं होती

आशुतोष चतुर्वेदी प्रधान संपादक, प्रभात खबर ashutosh.chaturvedi @prabhatkhabar.in गुलजार साहब ने किताबों को लेकर लंबी कविता लिखी है. किताबों से जुड़ी यह कविता मुझे बेहद पसंद है. उसकी चंद लाइनें हैं – किताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से बड़ी हसरत से तकती हैं महीनों अब मुलाकातें नहीं होतीं जो शामें उनकी सोहबत में […]

आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक, प्रभात खबर
ashutosh.chaturvedi
@prabhatkhabar.in
गुलजार साहब ने किताबों को लेकर लंबी कविता लिखी है. किताबों से जुड़ी यह कविता मुझे बेहद पसंद है. उसकी चंद लाइनें हैं –
किताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाकातें नहीं होतीं
जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थीं
अब अक्सर गुजर जाती है कंप्यूटर के परदे पर
बड़ी बैचेन रहती हैं किताबें
उन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गयी है़
गुलजार साहब की यह कविता किताबों से हमारे बदलते रिश्ते को दर्शाती है, लेकिन हाल में ब्रिटेन के साउथम्पटन शहर से सुखद खबर मिली. वहां अक्तूबर बुक्स नामक एक किताब दुकान को स्थानांतरित किया जाना था. इस स्टोर ने सोशल मीडिया पर अपील की कि उसे इसके लिए लोगों के सहयोग की आवश्यकता है. अपील में स्पष्ट लिखा था कि किताब के भारी बक्सों को लाने ले जाने में मदद की जरूरत है.
उम्मीद थी कि आठ से 10 स्वयंसेवी तो जुट ही जायेंगे, लेकिन उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, जब सभी आयुवर्ग के 250 से अधिक लोग मदद के लिए जुट गये. स्टोर के प्रबंधकों ने तत्काल अपनी रणनीति बदली और किताबों को बॉक्स में भर कर इधर-से-उधर करने की बजाय मानव श्रृंखला बनवा दी. हजारों किताबें हाथों हाथ एक स्थान से दूसरे स्थान पहुंच गयीं. स्टोर अब नये स्थान पर आरंभ हो गया है. लोगों की मदद से किताब का नया स्टोर भी खरीदा गया है. यह धनराशि लोगों के दान और कर्ज से जुटायी गयी है. कर्ज की राशि को स्टोर एक से पांच साल में लोगों को चुकायेगा.
ऐसे दौर में, जब लोगों ने किताबों को पढ़ना एकदम कम कर दिया है, यह एक सुखद खबर है. पुरानी कहावत है कि किताबें ही आदमी की सच्चा दोस्त होती हैं, लेकिन अब दोस्ती के रिश्तों में कमी आयी है.
किताबों के प्रति लोगों की दिलचस्पी बनाये रखने के लिए बड़े शहरों में पुस्तक मेले और साहित्य उत्सव आयोजित किये जाते हैं, लेकिन ये प्रयास भी बहुत कारगर साबित नहीं हो पा रहे हैं. पिछले साल रांची में प्रभात खबर ने भी टाटा समूह के साथ एक ऐसे ही साहित्य उत्सव का आयोजन किया था, लेकिन लोगों में खास उत्साह नजर नहीं आया. यह सर्वविदित है कि साहित्य में एक जीवन दर्शन होता है और यह सृजन का महत्वपूर्ण हिस्सा है.
साहित्य की समाज में एक छोटी, मगर महत्वपूर्ण भूमिका है. इसे पढ़े-लिखे अथवा प्रबुद्ध लोगों की दुनिया भी कह सकते हैं. साहित्य की विभिन्न विधाओं ने समाज का मार्गदर्शन किया है और समाज के यथार्थ को प्रस्तुत किया है.
बावजूद इसके मौजूदा दौर में साहित्य और किताबों को अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. टेक्नोलॉजी के विस्तार ने किताबों के सामने गंभीर चुनौती पेश की है. यह सही है कि किताबें जीवित हैं और उसने तकनीक के साथ एक रिश्ता कायम कर लिया है, लेकिन समय आ गया है कि हम आत्मचिंतन करें कि इस रिश्ते को कैसे मजबूत करें.
मेरा मानना है कि नयी तकनीक ने दोतरफा असर डाला है. इसने किताबों का भला भी किया है और उसे नुकसान भी पहुंचाया है. टेक्नोलॉजी ने लिखित शब्द और पाठक के बीच के अंतराल को बढ़ाया है.
लोग व्हाट्सएप, फेसबुक में ही उलझे रहते हैं, उनके पास पढ़ने का समय ही नहीं है. किताबों को तो छोड़िए, लोग अखबार तक नहीं पढ़ते, केवल शीर्षक देख कर आगे बढ़ जाते हैं. गूगल ने तो किताबों को लेकर एक बड़ी योजना शुरू की है.
उसने सौ देशों से चार सौ भाषाओं में करीब डेढ़ करोड़ किताबें डिजिलाइट की हैं. उसका मानना है कि भविष्य में अधिकतर लोग किताबें ऑनलाइन पढ़ना पसंद करेंगे. वे सिर्फ ई-बुक्स ही खरीदेंगे, उन्हें वर्चुअल रैक या यूं कहें कि अपनी निजी लाइब्रेरी में रखेंगे और वक्त मिलने पर मोबाइल, किंडल अथवा कंप्यूटर पर पढ़ेंगे. ई-कॉमर्स वेबसाइटों ने किताबों को उपलब्ध कराने में भारी सहायता की है. किंडल, ई-पत्रिकाओं और ब्लॉग ने इसके प्रचार-प्रसार को बढ़ाया है.
एक शोध के मुताबिक अमेरिका में ई-बुक डिवाइस का इस्तेमाल करने वाले लोगों की संख्या दो करोड़ से ज्यादा तक पहुंच जायेगी. ऑनलाइन बिक्री के आंकड़े भी बताते हैं कि हिंदी किताबों की बिक्री बढ़ी है. हिंदीभाषी महानगरों से तो ऐसा आभास होता है कि हिंदी का विस्तार हो रहा है, लेकिन थोड़ा दूर जाते ही हकीकत सामने आ जाती है. पहले हिंदी पट्टी के छोटे-बड़े सभी शहरों में साहित्यिक पत्रिकाएं और किताबें आसानी से उपलब्ध हो जाती थीं. लेकिन अब जाने-माने लेखकों की भी किताबें आसानी से नहीं मिलेंगी.
हिंदी भाषी क्षेत्रों की समस्या यह रही है कि वे किताबी संस्कृति को विकसित नहीं कर पाये हैं. नयी मॉल संस्कृति में हम किताबों के लिए कोई स्थान नहीं निकाल पाये हैं.
एक बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोगों से अपील की थी कि लोग भेंट में एक दूसरे को किताबें दें, लेकिन इसका कोई प्रभाव नजर नहीं आया. दीपावली का समय है, इस अवसर पर भी लोग एकदूसरे को भेंट देते हैं, लेकिन कहां कोई किसी को अच्छी किताबें भेंट करता है. हम सभी जानते है कि एक अच्छे पुस्तकालय के बिना ज्ञान अर्जित करना मुश्किल है. दुर्लभ किताबें यहीं पर मिलती हैं. अपने आसपास देख लीजिए, अच्छे पुस्तकालय बंद हो गये हैं.
यदि चल भी रहे हैं, तो उनकी स्थिति दयनीय है. लोग निजी तौर पर भी किताबें रखते थे और इसको लेकर लोगों में एक गर्व का भाव होता था कि उनके पास इतनी बड़ी संख्या में किताबों का संग्रह है, लेकिन हम ऐसी संस्कृति नहीं विकसित कर पाये हैं. इसका सबसे बड़ा नुकसान विचारधारा के मोर्चे पर हुआ है. तकनीक ने पढ़ने की प्रवृत्ति को प्रभावित किया है, इसका नतीजा है कि नवयुवक किसी भी विचारधारा के साहित्य को नहीं पढ़ रहे हैं. वे नारों में ही उलझ कर रह जा रहे हैं. उन्हें विचारों की गहराई का ज्ञान नहीं हो पा रहा है. इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है.
और अंत में जाने माने रंगकर्मी सफदर हाशमी की कविता की कुछ लाइनें. कई वर्ष पहले दिल्ली के पास एक नुक्कड़ नाटक करते वक्त उनकी हत्या कर दी गयी थी :
किताबें करती हैं बातें, बीते जमानों की, दुनिया की, इनसानों की
आज की, कल की, एक-एक पल की
खुशियों की, गमों की, फूलों की, बमों की
जीत की, हार की, प्यार की, मार की
क्या तुम नहीं सुनोगे, इन किताबों की बातें
किताबें कुछ कहना चाहती हैं, तुम्हारे पास रहना चाहती हैं.

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