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नायपॉल-वाजपेयी का जाना

आकार पटेल कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया aakar.patel@gmail.com बीते दिनों दो प्रसिद्ध व्यक्तियों की मृत्यु हुई है और उनके बारे में कई बातें भी लिखी गयी हैं. भारत में हमारी यही परंपरा है, और सामान्यत: दुनियाभर में भी, कि मृतक के बारे में अच्छी बातें कही जाएं, लेकिन कोई भी व्यक्ति दोषमुक्त नहीं होता, और […]

आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक,
एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
aakar.patel@gmail.com
बीते दिनों दो प्रसिद्ध व्यक्तियों की मृत्यु हुई है और उनके बारे में कई बातें भी लिखी गयी हैं. भारत में हमारी यही परंपरा है, और सामान्यत: दुनियाभर में भी, कि मृतक के बारे में अच्छी बातें कही जाएं, लेकिन कोई भी व्यक्ति दोषमुक्त नहीं होता, और हमें स्वयं के प्रति ईमानदार होना चाहिए. इसी भावना के साथ दोनों मृतकों के कुछ पहलुओं पर नजर डालते हैं.
इन दोनों व्यक्तियों में अधिक दिलचस्प लेखक वीएस नायपॉल थे. उनका पहला नाम विदियाधर था और वे त्रिनिदाद के थे. इनके पूर्वज गिरमिटिया मजदूर बनकर उन जगहों पर गये थे, जिन्हें आज हम वेस्ट इंडीज कहते हैं. वे अपने देश नहीं लौट पाये और वहीं रह गये तथा उन्हीं जगहों पर उन्होंने इंडो-कैरीबियन संस्कृति का विकास किया.
नायपॉल कोई भारतीय भाषा नहीं बोलते थे, लेकिन वे स्पेनिश व अंग्रेजी जानते थे. वे समझते थे कि उनके पहले नाम विदिया का मूल लैटिन व अंग्रेजी के शब्द वीडियो (जिसका अर्थ ‘मैं देखता हूं’ होता है) के समान ही है.
उन्होंने छात्रवृत्ति पर ऑक्सफोर्ड में पढ़ाई की और उसके बाद लंदन में बीबीसी के लिए काम किया. अपने बीसवें दशक में उन्होंने उपन्यासों और यात्रा वृतांत की शृंखला लिखनी शुरू कर दी. इनमें उन्होंने विभिन्न संस्कृतियों व उनके बीच के अंतर और उनकी कमियों की पड़ताल की है. उनमें अवलोकन करने की अद्भुत क्षमता थी. उदाहरण के लिए, वे ईरान गये और समझ गये कि शिया मौलानाओं द्वारा जो काली पोशाक और सिर पर दस्तार पहनी जाती है, उसी से ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज के दीक्षांत आयोजनों की खास पोशाक प्रेरित है. यह पूरी दुनिया में आज आम है.
नायपॉल ने लिखा कि भारतीयों में अवलोकन करने की क्षमता नहीं होती है. विदेश की यात्रा करनेवाले भारतीय ग्रामीण लोगों की तरह होते हैं, जिनके पास अपनी व विदेशी संस्कृति, विशेषकर पश्चिमी संस्कृति के फर्क को जानने की समझ नहीं है.
उन्होंने यह सिद्धांत विकसित किया कि अपने जीवन के उत्तरार्ध में भारतीय दोषपूर्ण हो जाते हैं. वे 1960 के दशक में जब भारत आये, तो यह देखकर परेशान हो गये कि यह देश इतना गंदा और अक्षम क्यों है? भारत पर लिखी उनकी पहली पुस्तक ‘एेन एरिया ऑफ डार्कनेस’ में वर्णन है कि कैसे भारत में ज्यादातर चीजें खराब हैं. इस संबंध में उन्होंने कहा कि भारत में जो कुछ भी देखा, उससे उन्हें सदमा पहुंचा, क्योंकि उनके माता-पिता और संबंधियों ने उन्हें जो कहानियां सुनायी थीं, वह कुछ हद तक परिलोक जैसी थीं.
उन्होंने कहा कि ‘एेन एरिया ऑफ डार्कनेस’ पुस्तक का लेखन उनके लिए बहुत आसान नहीं था. भारत में नायपॉल को तकरीबन वैसे सभी लोग नापसंद करते थे, जिन्होंने नायपॉल की पुस्तक पढ़ी है या जिन्होंने मीडिया रिपोर्ट के जरिये भारत के बारे में उनके लेखन को जाना. इस तरीके से लेखक के अस्तित्व के बारे में अधिक लोगों को पता चला था. भारतीयों को लेकर नायपॉल का जो दूसरा आरोप है, वह यह है कि हम लोग पढ़ते नहीं हैं.
उनका दावा था कि ज्यादातर भारतीयों ने न तो गांधी की आत्मकथा पढ़ी है और न ही नेहरू के विचारों से अवगत हैं, जबकि वे उन दोनों को लेकर कई तरह की राय रखते हैं.
बाद में भी नायपॉल ने निष्कर्ष निकाला कि हिंदू सोचने-समझने की क्षमता नहीं रखते हैं और अंतर्मुखी हैं, क्योंकि वे सदियों के इस्लामिक शासन के बौद्धिक उपनिवेश के शिकार रहे हैं. बाबरी मस्जिद के खिलाफ हुआ आंदोलन उनकी नजर में एक सकारात्मक कदम था और वे मानते थे कि मस्जिद गिराये जाने के अच्छे परिणाम होंगे.
इस हिंसा से कुछ मायनों में हिंदू भावना जागृत होगी और यह हिंदुओं को अधिक जीवंत बनायेगी. ऐसा कहने के बाद वे एक बार फिर से भारत में बहुत लोगों द्वारा नापसंद किये गये. यह सच था कि अपनी बात के समर्थन में उनके पास कोई प्रमाण नहीं था, यहां तक कि कोई दृष्टांत भी नहीं था. उन्होंने जो महसूस किया, उसे ही बस कह दिया.
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी आज एक भद्र पुरुष के रूप में जाने जाते हैं, जो अपने दल के बाकी लोगों से कई मायनों में अलग थे. वाजपेयी एक ऐसी सांस्कृतिक व राजनीतिक विचारधारा से आते थे, जिसके निशाने पर अल्पसंख्यक होते हैं, लेकिन वे उदार थे और इसी कारण उन्हें सभी राजनीतिक दलों से संबद्ध लोग पसंद करते थे.
उनके नेतृत्व में भाजपा ने तीन मुख्य राजनीतिक मुद्दों को उठाया- बाबरी मस्जिद पर काबिज होना, जम्मू-कश्मीर की संवैधानिक स्वायत्ता की समाप्ति और भारतीय मुसलमानों के पर्सनल लॉ को हटाना. लालकृष्ण आडवाणी के साथ मिलकर उन्होंने इन मुद्दों को जोरदार तरीके से उठाया और वे राजनीति में धार्मिक भावनाओं को लाने में कामयाब रहे, जो कि आजादी के बाद के पहले चार दशकों में राष्ट्रीय राजनीति से गायब थे. भाजपा को इसका भरपूर फायदा हुआ तथा उसके मुख्य राजनीतिक दल के तौर पर उभारने का श्रेय वाजपेयी और आडवाणी को ही जाता है. वाजपेयी इस अर्थ में सैद्धांतिक थे कि वे वास्तव में हिंदुत्व में विश्वास रखते थे, लेकिन अतिवाद या हिंसा में नहीं.
इसी कारण वे अपने ही दल में अनुपयुक्त थे, जो सड़कों पर कुछ कर गुजरने के लिए उद्धत रहता था, जैसा कि नायपॉल चाहते थे. वाजपेयी के चरित्र के इसी द्वंद्व के कारण ही एनडीए की पहली सरकार में हमें गौरक्षकों की हिंसा नहीं दिखायी देती थी.
वे भी गाय की सुरक्षा चाहते थे, लेकिन इस भावना से पैदा होनेवाली सड़क की हिंसा को लेकर वे सहज नहीं थे. इसी विरोधाभास के कारण वाजपेयी पसंद किये गये और जॉर्ज फर्नांडीस और ममता बनर्जी जैसे नेता उनकी सरकार में शामिल हुए.
ऐसी राजनीतिक समझ के कारण पैदा होनेवाली समस्या 2002 में तब सामने आयी, जब वाजपेयी ने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री को हटाने की कोशिश की, लेकिन कार्यकर्ताओं ने उन्हें ऐसा नहीं करने दिया. भावनात्मक विचारधारा रखनेवाली किसी भी संस्था में हमेशा ही आशंका रहती है कि अपेक्षित रूप से उदार व्यक्ति अधिक अतिवादी व्यक्ति से पिछड़ सकता है, क्योंकि उसके समर्थक भी वैसा ही चाहते हैं.
वाजपेयी और आडवाणी ने जिस आंदोलन को शुरू किया था, उसकी स्वाभाविक परिणति यही होनी थी. हालांकि, वाजपेयी शायद इसे समझ नहीं पाये थे, लेकिन नायपॉल ने निश्चित तौर पर उसे भांप लिया था.

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