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पहले राज्यों में मजबूत हो कांग्रेस

II आकार पटेल II कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया aakar.patel@gmail.com पूर्वोत्तर राज्यों के चुनाव में लोगों में इतनी दिलचस्पी हमने पहले कभी नहीं देखी थी, जितनी पिछले सप्ताह देखने को मिली. मैं लगभग पांच बजे सुबह जग जाता हूं और शनिवार को यह देखकर आश्चर्यचकित था कि सुबह सात बजे से पहले ही सभी समाचार […]

II आकार पटेल II
कार्यकारी निदेशक,
एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
aakar.patel@gmail.com
पूर्वोत्तर राज्यों के चुनाव में लोगों में इतनी दिलचस्पी हमने पहले कभी नहीं देखी थी, जितनी पिछले सप्ताह देखने को मिली. मैं लगभग पांच बजे सुबह जग जाता हूं और शनिवार को यह देखकर आश्चर्यचकित था कि सुबह सात बजे से पहले ही सभी समाचार चैनल अपने पैनलिस्टों के साथ तैयार बैठे त्रिपुरा, मेघालय और नागालैंड के चुनाव परिणामों का इंतजार कर रहे थे.
एक राष्ट्र के तौर पर यह हमारे लिए अच्छा संकेत है. मुझे याद है, कुछ वर्ष पहले इंडिया टुडे पत्रिका ने शिकायती लहजे में संपादकीय लिखा था कि किस तरह हमारा देश पूर्वोत्तर के राज्यों को नजरअंदाज कर रहा है. इसी मुद्दे पर कुछ आठ राज्यों या इतने ही राज्यों में होनेवाले विधानसभा चुनाव को कवर करते हुए इस पत्रिका के आवरण कथा में केवल उत्तर भारत के पांच बड़े राज्यों का जिक्र था, जबकि पूर्वोत्तर के राज्यों में होनेवाले चुनाव को नजरअंदाज कर दिया गया था.
आज यह मनोवृत्ति बदलती दिख रही है और इसी कारण मैंने कहा कि यह हमारे लिए अच्छा है. इस बार के पूर्वोत्तर राज्यों के परिणाम दिलचस्प थे, खास तौर पर त्रिपुरा के. भारत उन प्रमुख लोकतांत्रिक देशों में एक है, जहां हमारी राजनीति में बेहतर रंग और मूल्य जोड़नेवाले सक्रिय कम्युनिस्ट पार्टियां आज भी मौजूद हैं, भले ही उनका जनाधार बहुत कम क्यों न हो गया हो. हालांकि, आज मैं कांग्रेस पर ध्यान केंद्रित करना चाहता हूं.
फरवरी में राजस्थान में कुछ सीटों पर हुए उपचुनाव में जीत के बाद कांग्रेस के नेता सचिन पायलट ने कहा था कि राज्यों का चुनाव जीतने के लिए आपको नगरपालिका चुनाव, वार्ड चुनाव आदि जीतना होगा.
ये वे चुनाव हैं, जो किसी भी संगठन का आधार तैयार करते हैं. हमें राज्यों को जीतना होगा. कोई भी दल राष्ट्रीय स्तर पर तब तक सरकार बनाने के बारे में नहीं सोच सकता, जब तक पर्याप्त संख्या में राज्यों में उनके दल की सरकार न हो.
यहां प्रश्न यह है कि आखिर राष्ट्रीय दलों के लिए राज्यों को जीतना इतना जरूरी क्यों है? स्थानीय ताकत का महत्व क्या है? इस ओर हमें इसलिए ध्यान देना होगा, क्योंकि आज कांग्रेस अधिकतर राज्यों में सत्ता से बाहर है, ऐसा इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ.
इस वर्ष के अंत में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में चुनाव होनेवाले हैं, हो सकता है इसके बाद कांग्रेस की स्थिति में बदलाव आये. वर्ष 2019 के आगमन के पहले के कुछ महीनों में होनेवाले चुनाव में कांग्रेस का बेहतर प्रदर्शन करना पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी के लिए क्यों जरूरी है? इसका पहला फायदा तो सबसे ज्यादा स्पष्ट है. राजनीति का मतलब ही सत्ता में बने रहना है. इससे सत्ताधारी दल अपनी विचारधारा की विशिष्ट बातों को लागू कर सकता है और उसके बाद वह अपना एजेंडा तय कर सकता है. मसलन, भाजपा हरियाणा और महाराष्ट्र में गोमांस और पशु वध पर प्रतिबंध लगाने के बाद महीनों तक इसे राष्ट्रीय मुद्दा बना सकती है.
दूसरा लाभ यह है कि निगम और राज्य विधानसभा स्तर पर सत्ता राजनेताओं को उनके मतदाताओं के सेवा का साधन उपलब्ध कराती है. अधिकतर नेताओं के दिन की शुरुआत और उनका अंत जनता द्वारा बिजली कनेक्शन से लेकर बच्चों के स्कूल में प्रवेश सहित तमाम ऐसी परेशानियों को लेकर आने के साथ होती है. सत्ता में रहनेवाले दल ही इन परेशानियों को हल कर सकते हैं, विपक्षी दल नहीं.
तीसरा पक्ष वित्त पोषण का है. यह दो तरीके से काम करता है. वास्तविकता यह है कि नेता अपने दल के लिए धन कमाते हैं और लेते हैं, यहां तक कि वे व्यक्तिगत तौर पर भ्रष्ट नहीं हैं, तब भी उन्हें ऐसा करना होता है. इस संबंध में पत्रकार स्वर्गीय धीरेन भगत की पुस्तक ‘कंटेंपररी कंजर्वेटिव’ में पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह से संबंधित एक शानदार किस्सा है. आधिकारिक तौर पर कॉरपोरेट्स द्वारा होनेवाला वित्त पोषण भी स्पष्ट कारणों से सत्ताधारी दल की तरफ ही जायेगा.
इसका चौथा और इससे संबंधित पहलू यह है कि इस राशि को उम्मीदवारों द्वारा खर्च किया जाता है. आम तौर पर विपक्ष में रहनेवाले दल की तरफ से चुनाव में खड़े होनेवाले उम्मीदवार अपने चुनाव अभियान में बहुत ज्यादा पैसा खर्च नहीं कर सकते. इसका नतीजा होता है कि ऐसे उम्मीदवार चुनावी प्रतियोगिता में बहुत ज्यादा देर नहीं ठहरते.
इसका पांचवां पहलू है कि सत्ताधारी दल संदेशों को नियंत्रित कर सकता है. उदाहरण के लिए, विज्ञापन पर सरकारी खर्चे के माध्यम से. भारत में सबसे बड़ा विज्ञापनदाता केंद्र सरकार है. पिछले साल इसने प्रधानमंत्री और उनकी योजनाओं के विज्ञापन पर 1,280 करोड़ रुपये खर्च किये थे.
इस संदर्भ में अन्य आंकड़ों को परिप्रेक्ष्य में रखकर देखते हैं. हिंदुस्तान यूनीलीवर, जो एक्स डियोड्रंट से लेकर लक्स साबुन व ताजमहल चाय तक बेचता है, ने विज्ञापन पर 900 करोड़ रुपये खर्च किये. भारत की दूरसंचार कंपनी का कुल खर्च भी केंद्र सरकार से कम था. सभी राज्य सरकारों के पास प्रचार बजट होता है, जो मुख्य रूप से खुद के प्रचार के लिए इस्तेमाल होता है. अरविंद केजरीवाल की दिल्ली सरकार ने वर्ष 2015 में प्रचार पर 526 करोड़ रुपये खर्च किये थे.
इसका छठवां पहलू यह है कि विज्ञापन के मद में खर्च की जानेवाली ये बड़ी राशि मीडिया को सत्ताधारी दल के पक्ष में बनाये रखती है. यह बात क्षेत्रीय समाचारपत्रों, जिनकी सरकारी विज्ञापन पर उच्च निर्भरता होती है, के लिए विशेष रूप से सही है. इसका एक उदाहरण राजस्थान पत्रिका है, जो 1.5 करोड़ से अधिक पाठकों के साथ भारत का सातवां सबसे बड़ा समाचार-पत्र है, ने उच्चतम न्यायालय का रुख किया था, क्योंकि वसुंधरा राजे सरकार ने उसे विज्ञापन देने से मना कर दिया था (संभावित रूप से प्रतिकूल कवरेज के कारण).
इसका सातवां और अंतिम कारण है राज्य प्रशासन का इस्तेमाल. कुछ हद तक चुनाव आयोग इन बातों पर नजर रखता है, लेकिन केवल तभी जब चुनाव तारीख की घोषणा हो जाती है. बाकी के पांच वर्षों के लिए सत्ताधारी दल पुलिस बल का इस्तेमाल, अपने समर्थकों को पद देने और सामान्यत: सरकारी तंत्र का सही और गलत तरीके से उपयोग कर सकते हैं.
ये सारी बातें, विशेषकर हमारे राजनीतिक दलों को पोषित करती हैं और उनका अस्तित्व बनाये रखती हैं. स्थानीय शक्ति के जरिये लगातार और नियमित रूप से ताकत और सहारा प्राप्त किये बिना वर्ष 2019 में राष्ट्रीय प्रतिद्वंद्वी बने रहना राहुल गांधी के लिए मुश्किल होगा.

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