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न्यायपालिका पर उधार तीन काम

II कुमार प्रशांत II गांधीवादी विचारक k.prashantji@gmail.com मुझे इस बात की रत्तीभर भी खुशी नहीं है कि कर्नाटक में कांग्रेस समर्थित कुमारस्वामी की सरकार बन रही है. मुझे जरा भी अफसोस नहीं है कि भाजपा की तिकड़म विफल हुई अौर कर्नाटक में येदियुरप्पा दो दिन भी नहीं टिक सके. मुझे इस बात की बेहद खुशी […]

II कुमार प्रशांत II
गांधीवादी विचारक
k.prashantji@gmail.com
मुझे इस बात की रत्तीभर भी खुशी नहीं है कि कर्नाटक में कांग्रेस समर्थित कुमारस्वामी की सरकार बन रही है. मुझे जरा भी अफसोस नहीं है कि भाजपा की तिकड़म विफल हुई अौर कर्नाटक में येदियुरप्पा दो दिन भी नहीं टिक सके. मुझे इस बात की बेहद खुशी है कि कर्नाटक की इस गलीज से हमारा लोकतंत्र कुछ साफ व शक्तिशाली बना है.
मुझे बेहद संतोष है कि हमारी न्यायपालिका ने एक बार फिर यह साबित किया है कि अगर वह संविधान की किताब अौर उसकी अात्मा के प्रति वैसी ही ईमानदार रही, जिसकी कल्पना संविधान निर्माताअों ने की है, तो भारतीय लोकतंत्र को घुटने टेकने पर मजबूर करना किसी के लिए भी टेढ़ी खीर है. मैं, भारत के अाम मतदाता का सच्चा प्रतिनिधि, जब इतने सारे मनोभावों से गुजर रहा हूं जो लगता है कि परस्पर विरोधी हैं, तो अाम लोग कितने हैरान व परेशान होंगे!
अाज दिल्ली अौर देश में जो कुछ चल रहा है, वह भारतीय दलीय राजनीति का 70 सालों में बना असली चेहरा है. यह चेहरा पहले से ही इतना ही दागदार था. भाजपा की मोदी सरकार का योगदान इतना ही है कि उसने सत्ता अौर लोलुपता के बीच जो एक पर्दा था, उसे उतार फेंका है. उसने इस नंग को ही राजनीति माना है. वह कहती है कि जो कुछ है वह ‘राज-नीति’ है, जिसमें ‘राज’ ही एकमात्र सच है और ‘नीति’ वह गंदी गठरी है, जिसे जल्दी से कहीं गहरे दफना देने की जरूरत है.
कर्नाटक में वह यही करने में लगी थी, लेकिन विफल हुई. फिर सफल कौन हुअा? जिनकी सरकार बन रही है क्या वे सफल हुए? अगर सरकार बना लेना सफलता है, तब तो मोदी-मार्का राजनीति को सबसे सफल मानना होगा, क्योंकि भाजपा को उन्होंने जैसी चुनावी सफलता दिलायी है, उसका तो सपना भी भाजपा ने नहीं देखा होगा.
सरकार बनाना लोकतंत्र का जरूरी पक्ष है, लेकिन कैसे बनाना, क्यों बनाना अौर कैसे चलाना भी उतना ही प्रमुख पक्ष है. इस कसौटी पर कर्नाटक में सभी दल मिलकर लोकतंत्र को हराने में लगे थे, जिसे वक्ती तौर पर न्यायपालिका ने रोक दिया है.
मुझे इंतजार इसका नहीं है कि कुमारस्वामी किसे लेकर सरकार बनाते हैं, बल्कि अदालत की उस सुनवाई का इंतजार है जिसे वह 15 दिनों बाद करनेवाली है, जिसमें इस प्रकरण की गहरी छानबीन की बात उसने कही है. मुझे इंतजार है कि कर्नाटक के राज्यपाल वजूभाई वाला को राष्ट्रपति किस दिन हटाते हैं. हर राज्यपाल राज्य के संवैधानिक शील की पहरेदारी करनेवाला, राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त पहरेदार है.
वजूभाई वाला ने केंद्र के प्रति अपनी अंधी वफादारी का चाहे जितना सबूत दिया हो, संवैधानिक शील को अौर उस बहाने राष्ट्रपति की गरिमा को उन्होंने गिराया है. उनकी यह अशोभनीय विफलता यदि उनकी बर्खास्तगी तक नहीं पहुंचती है, तो यह शर्म राष्ट्रपति के खाते में भी लिखी जायेगी.
राष्ट्रपति हो कि राज्यपाल, इनके निर्णय हमेशा ही संवैधानिक दायरे में होने ही चाहिए. बल्कि सूरदास को भी दिखायी दे जाएं, इस तरह होने चाहिए.
दिल्ली की सरकारें राज्यपाल या राष्ट्रपति के रूप में जिस तरह अपने एजेंट नियुक्त करने की कोशिश करती हैं, वह संविधान को विफल करने की चालाकी है. किसी भी जीवंत व स्वस्थ संविधान की एक पहचान यह है कि वह जरूरत अाने पर बोलता है, अन्यथा चुप रहता जाता है. हमारे लोकतंत्र ने ऐसा ही संविधान न्यायपालिका को सौंपा है.
इस तरह न्यायपालिका की कसौटी यह बन गयी है कि वह संविधान की चुप्पी को पढ़ने का विवेक रखती है या नहीं. सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठतम न्यायमूर्ति जे चेलमेश्वर ने जाते-जाते इसी चुप्पी को पढ़ने की कला को जजों का संवैधानिक अवदान कहा था. संविधान को जहां विवेक का साथ मिलता है, वह अत्यंत मारक दस्तावेज बन जाता है.
सत्तर सालों से तीन बड़े काम न्यायपालिका पर उधार हैं- उसे राष्ट्रपति अौर राज्यपाल के चयन के तथा राज्यसभा में सरकारी मनोनयन के संवैधानिक अाधार सुनिश्चित करने चाहिए. अभी हमारा लोकतंत्र जहां पहुंचा है, उसमें राष्ट्रपति, राज्यपाल व राज्यसभा की व्यवस्था खत्म करना जल्दीबाजी होगी या वैसा ही अर्थहीन कदम होगा जैसा योजना अायोग को भंग कर नीति अायोग बनाना! ये तीनों ही संवैधानिक व्यवस्थाएं हैं, तो उनका अाधार भी संवैधानिक ही होना चाहिए. अाज तो इन तीनों जगहों पर चयन ऐसे होते हैं, मानो कोई अपने हैट में से खरगोश निकालकर दिखा दे. राज्यसभा किसी को उपकृत करने की जगह नहीं है.
यह लोकसभा पर एक किस्म का नैतिक व बौद्धिक अंकुश रखने की व्यवस्था है. हमें किसी सचिन या किसी रेखा की वहां जरूरत है ही नहीं, लेकिन हमें वहां विभिन्न क्षेत्रों के बहुत सारे जावेद अख्तरों की जरूरत है. न्यायपालिका जरूरी समझे, तो अवकाशप्राप्त न्यायमूर्ति जे चेलमेश्वर की अध्यक्षता में एक संविधान पीठ बना दे, जिसे अगले छह माह में इसकी रूपरेखा बनाकर पेश करनी हो. क्यों न पक्ष-विपक्ष-न्यायालय-सार्वजनिक जीवन के चुने प्रतिनिधियों की एक स्वतंत्र समिति बने, जिसे अधिकार हो कि वह इन जगहों के लिए उपयुक्त नामों की सूची तैयार करती रहे.
इस सूची में से सरकारें अपना चयन करें अौर इन पदों को भरें. इन पदों की अय्याशी कम कर इनका संवैधानिक दायित्व तय किया जाये अौर इनकी अवधि एक बार से अधिक की न हो. ये संविधान का पालन करने के लिए हों, न कि केंद्र सरकार के नापाक मंसूबों को अंजाम देने के लिए. सत्तर सालों बाद किसी महल की गहरी सफाई जरूरी होती है. हमारा देश तो लोकतंत्र का मंदिर है. इसे हम गंदा कैसे छोड़ सकते हैं!

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