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गांधी-टैगोर की वैचारिक समता

डॉ असीम श्रीवास्तव प्राध्यापक, अशोका यूनीवर्सिटी editor@thebillionpress.org एक ऐसा वर्ष जब देश बापू का 150वां जन्मदिवस मना रहा है, हमें एक ऐसा सुअवसर प्रदान करता है, जब हम उनके द्वारा आधुनिकता की आलोचना पर विचार करते हुए उसकी उनकी ही पीढ़ी के एक अन्य महापुरुष टैगोर के विचारों से तुलना कर सकते हैं. संयोग से […]

डॉ असीम श्रीवास्तव
प्राध्यापक, अशोका यूनीवर्सिटी
editor@thebillionpress.org
एक ऐसा वर्ष जब देश बापू का 150वां जन्मदिवस मना रहा है, हमें एक ऐसा सुअवसर प्रदान करता है, जब हम उनके द्वारा आधुनिकता की आलोचना पर विचार करते हुए उसकी उनकी ही पीढ़ी के एक अन्य महापुरुष टैगोर के विचारों से तुलना कर सकते हैं. संयोग से कुछ ही सप्ताह बाद 7 अगस्त को रवींद्रनाथ टैगोर की 78वीं पुण्यतिथि भी है.
आजकल महात्मा गांधी तथा टैगोर की भिन्नताओं को कुछ ज्यादा ही उजागर किया जाता है. यह सही है कि उन दोनों ने दुनिया के कई पहलुओं को एक भिन्न नजरिये से देखा. फिर भी जब बात मानव जीवन को लेकर उनके विचारों की आती है, तो उनका बुनियादी चिंतन उल्लेखनीय रूप से एक जैसा है. इनकी कुछ बानगी इस प्रकार है:
पहला, उन दोनों ने विश्व तथा उसमें भारत की स्थिति के संबंध में एक सभ्यतामूलक दृष्टि अपनायी. इसका अर्थ यह था कि उनकी समझ में भारत का इतिहास एवं संस्कृति आधुनिक तथा शहरीकृत पश्चिम से बहुत भिन्न रही है.
वे दोनों यह मानते थे कि पश्चिम की यह आधुनिकता न केवल पूरी मानवता के लिए विभिन्न संकटों का स्रोत है, बल्कि वह स्वयं ही एक घातक संकट का शिकार है. इसके बावजूद, टैगोर का मूल्यांकन किंचित सूक्ष्म भेदयुक्त था. वर्ष 1924 में अपनी चीन यात्रा के दौरान टैगोर ने कहा, ‘हम एक सदी से से भी अधिक समय से समृद्ध पश्चिम के रथ के पीछे घिसटते हुए इसे ही सभ्यता की प्रगति मानने पर सहमत रहे हैं. यदि हमने कभी यह प्रश्न करने की हिम्मत की कि यह प्रगति किस ओर और किसके लिए है, तो इस संशय को हमारी पौर्वात्य प्रवृत्ति माना गया.
गांधी तथा टैगोर दोनों ने आधुनिकता के दोषों की सटीक पहचान करते हुए इस तथ्य की ओर इंगित किया कि यह सत्ता तथा आवश्यकताओं की अपनी अदम्य चाहत में असीम ऊर्जा की बर्बादी करते हुए पैसे और मशीन को सर्वोच्च स्थान देकर अंततः नैसर्गिक विश्व की लूट तथा कामगार मानवता के गहरे शोषण के लिए जिम्मेदार है.
उन्होंने आधुनिक यूरोपीय जीवन की छिछली कृत्रिमता पर सादगी के चिरसम्मानित भारतीय आदर्शों को तरजीह दी. नतीजतन, उन्होंने अपने उन शिक्षित देशवासियों की आलोचना की, जो पश्चिम की ओर श्रद्धाभरी दृष्टि रखते हुए खुद की परंपराओं तथा नवीकरण की स्वयं की क्षमताओं में विश्वास खो चुके थे.
दूसरा, उनके द्वारा पश्चिम की यह आलोचना इस तथ्य में बद्धमूल थी कि वह निर्ममतापूर्वक भौतिकवादी है और मानवता को केवल उसके भौतिक पहलू में ही देखता है.
रवींद्र ने उस आधुनिक यकीन को खारिज कर दिया जो ‘मानव में उसके भौतिक शरीर को ही सर्वोच्च सत्य’ समझता है. उनके लिए मानवता बुनियादी तौर पर ‘आध्यात्मिक’ थी. वे दोनों यह मानते थे कि इस समझ के अभाव ने ही आधुनिकता को अंतर्निहित रूप से प्रतियोगी एवं आक्रामक बना डाला है, जिसका परिणाम वहां हिंसा तथा युद्ध के रूप में प्रकट हुआ करता है.
तीसरा, जहां तक शहर तथा गांव के संबंधों का सवाल है, प्रायः गांधी पर गांवों को आदर्श मानने का दोष मढ़ा जाता है. हमें अच्छी तरह पता है कि अन्य जगहों की ही तरह भारतीय गांव भी संरचनात्मक अन्यायों से मुक्त नहीं हैं.
गांधी भी इससे भलीभांति वाकिफ थे, फिर भी वे महसूस करते थे कि जब तक शहर तथा गांव के बीच का सत्ता संतुलन गांव की ओर स्थानांतरित नहीं होता, सच्चा स्वराज संभव नहीं है. आधुनिकता के द्वारा जिस आक्रामक महानगरीकरण को थोपा जा रहा है, वह शहर तथा गांव दोनों के बाशिंदों के लिए समस्याओं को जटिल बनायेगा. दूसरी ओर, टैगोर भी मानते थे कि गांव मानवता के पोषक हैं, निसर्ग के निकट हैं, इसलिए जीवन स्रोत के निकटतर हैं.
चौथा, गांधी एवं टैगोर दोनों के लिए भारत में जीवन समाज आधारित है, राज्य आधारित नहीं. यह पाश्चात्य दुनिया से बहुत भिन्न है, जहां राज्य समस्त मानवीय मामलों का केंद्र है. गांधी ने संसदों को ‘दासता के प्रतीकों’ की संज्ञा दी.
यह भी इसके कई वजहों में एक है कि गांधी के ‘स्वराज’ का अंगरेजी में एक मोटा अनुवाद ‘डेमोक्रेसी’ (लोकतंत्र) नहीं हो सकता. दोनों महापुरुषों ने खासकर भारत में आधुनिक राज्य के दमनकारी लक्षणों को पहचाना, जिसकी बुनियाद हमेशा ही औपनिवेशिक रही है. इसका प्रतिकार एक ऐसे सार्वजनिक जीवन से ही हो सकता है, जिसमें राज्य की बजाय समुदाय मानवीय मामलों को निदेशित करेगा.
पांचवां, गांधी तथा रवींद्रनाथ दोनों की पूरी आस्था भारतीय परंपराओं के सृजनात्मक पुनर्नवीकरण में थी, जिसे मुख्यतः शिक्षा द्वारा हासिल किया जाना था. इस संबंध में टैगोर का जो विजन शान्ति-निकेतन के रूप में प्रकट हुआ, वह गांधी के विजन के भी सर्वथा निकट था.
नेहरू एवं आंबेडकर के विपरीत गांधी या टैगोर ने भारत की चुनौतियों को ‘विकास’ की आधुनिक भाषा में वर्णित अथवा समझने की चेष्टा नहीं की. अंततः, गांधी एवं टैगोर दोनों पृथ्वी की पारिस्थितिकीय संकट के शुरुआती अग्रदूतों में थे. यदि टैगोर आज जीवित होते, तो वे नैसर्गिक दुनिया के साथ हमारे संबंधों की पुनर्स्थापना एवं पोषण की मांग करते, जिसके बगैर मानवता बच नहीं सकेगी.
(अनुवाद: विजय नंदन)

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