आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक,
एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
aakar.patel@gmail.com
शुक्रवार (15 मार्च, 2019) को रेडियो पर समाचार सुनते हुए मुझे न्यूजीलैंड में हुए नरसंहार के बारे में पता चला. संवाददाता स्थानीय मुस्लिमों से उनकी प्रतिक्रिया ले रहे थे और साफ तौर पर वे आवाजें दक्षिण एशियाई थीं. शनिवार सुबह एक समाचारपत्र की रिपोर्ट में बताया गया था कि हमले के बाद लापता हुए लोगों में अहमदाबाद और हैदराबाद के नौ भारतीय शामिल हैं.
गोलीबारी की रिपोर्ट के बाद की कमेंट्री (जो बीबीसी के रेडियो-4 की थी, जिसे मैं हर सुबह सुनता हूं) एक दूसरी कहानी में बदल गयी. ऑस्ट्रेलिया के पहले पियानों को खोज निकाला गया था और उसे मरम्मत के लिए इंग्लैंड भेजा गया था. यहां प्रश्न है कि इंग्लैंड ही क्यों? क्योंकि वहीं इसे बनाया गया था. वर्ष 1788 की जनवरी में 11 जहाजों के साथ यह ऑस्ट्रेलिया आया, जिसे पहले बेड़े के रूप में जाना जाता है. ये सभी इंग्लैंड के पोर्ट्समाउथ के मूल जहाज थे, जो अपने औपनिवेश की शुरुआत करते हुए एक हजार से अधिक यूरोपीय लोगों को ऑस्ट्रेलिया ले आये थे. यह बहुत पहले की बात नहीं है, मराठों और अफगानों के बीच पानीपत की अंतिम लड़ाई के बाद की बात है, मुगल शासन के पतन के काफी बाद की. ब्रिटिशर्स पहली बार 1608 में सूरत आये थे और इसलिए ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड औपनिवेशिक प्रक्रिया में नये हैं.
न्यूजीलैंड में आप्रवासन और विदेशियों को लेकर हमलावार के जो विचार हैं, वे गौरतलब हैं. नरसंहार से पहले लिखे नोट में वह कहता है कि लोगों की हत्या करने के पीछे उसका मकसद, ‘यूरोप की भूमि से आप्रवासन की दर को प्रत्यक्ष तौर पर कम करना है’. वह न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया (जहां उसका जन्म हुआ था) को यूरोप मानता है, जबकि यूरोप के लोग यहां खुद ही आप्रवासी हैं. ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के औपनिवेशवाद ने यहां के मूल निवासियों, जिन्हें आदिवासी कहा जाता है (आमतौर पर भारतीयों और उनका जीन एक जैसा है), पर काफी अत्याचार किये हैं. आदिवासी होने का मतलब है, जो काफी पहले से रह रहे हैं, जैसे हम भारत के सबसे प्राचीन निवासियों को आदि-वासी कहते हैं.
यूरोपीय औपनिवेशकों ने आदिवासी आबादी को बर्बाद कर दिया था. इन लोगों ने आदिवासियों की जमीन पर कब्जा करने के लिए क्रूरता का सहारा लिया था और अपने साथ यहां बीमारी लेकर भी आये थी. कब्जे के बाद जगहों का बाकायदा नामकरण किया गया. विक्टोरिया, न्यू साउथ वेल्स, वेलिंगटन, ऑकलैंड, क्वींसलैंड वे नाम हैं, जिनसे हम आज परिचित हैं. ये वे नाम हैं, जिन्हें औपनिवेशकों ने आदिवासियों की इच्छा के विरुद्ध कब्जाई गयी जमीनों पर थोप दिया.
न्यूजीलैंड को ब्रिटिशर्स ने स्थानीय माओरी आबादी से हड़प लिया था. जमीन हड़पने के बाद भी यूरोपीय लोगों ने आदिवासियों पर बहुत अत्याचार किये. अपने संसद के अधिनियम के तहत उन्होंने आदिवासियों के बच्चों को उनके माता-पिता से अलग करना शुरू किया. आज इन्हें स्टोलन जेनरेशन के नाम से जाना जाता है. यह नीति 1960 के दशक तक जारी रही. यहां तक कि आज भी यहां आदिवासियों को भेदभाव का सामना करना पड़ता है, जिसमें आपराधिक न्यायिक प्रणाली भी शामिल है. यह सब कथित तौर पर ऑस्ट्रेलियाई भावना दर्शानेवाले उनके हंसमुख और उत्साही आचरण के नीचे छुप जाता है (बेशक, इन दिनों हम ऑस्टेलियाई भावना को उनके छल के माध्यम से भी जानने लगे हैं).
ऊपर जो कुछ मैंने लिखा है, वह सामान्य जानकारी है और हर ऑस्ट्रेलियन और न्यूजीलैंडर को यह सब मालूम है. यूरोपीय औपनिवेशवाद ने दुनिया के दूसरे हिस्सों को भी बर्बाद किया है. अगर आज हम कनाडा, वर्जीनिया, जॉर्जिया, वाशिंगटन, अमेरिका, बोलिविया और अर्जेंटीना जैसे नामों से परिचित हैं, तो इसलिए क्योंकि विदेशियों ने इन जगहों पर कब्जा किया और उन पर ये नाम थोपे. यूरोपीय औपनिवेश ही है, जिसने दुनियाभर में बंदूक कानून बनाया, जिसने लोगों, मतलब गोरे औपनिवेशकों को प्रत्यक्ष तौर पर अपनी रक्षा के लिए बंदूक रखने की अनुमति दी.
हमले के बाद न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री ने कहा कि वे देश के बंदूक कानून को बदल देंगी. बेशक यह भविष्य में होनेवाली हिंसा पर रोक लगायेगा. यह आश्चर्यजनक है कि राष्ट्र अपने नागरिकों को उच्च क्षमता वाले उन राइफलों को खरीदने और रखने की अनुमति दे देते हैं, जिनका एकमात्र उद्देश्य युद्ध करना है. बंदूक नियंत्रण पर अमेरिका के विरोध ने उनके अपने बच्चों सहित समूची आबादी पर सर्वाधिक नरसंहारों को थोपा है.
यह सब इसलिए इतना उल्लेखनीय है, क्योंकि हमलावर ब्रेंटन टैरेंट को महसूस करना चाहिए कि वे दूसरे लोग हैं, जो आप्रवासी हैं और अपनी संस्कृति थोप रहे हैं. पाठकों को यह जानने में रुचि हो सकती है कि ब्रिटिश मूल के शब्द ‘टैरेंट’ व ‘ट्रेसपासर’ का मूल एक ही है. यह शब्द उस व्यक्ति के लिए प्रयोग किया जाता है, जो बिना अनुमति कहीं प्रवेश करते हैं, हिंदी में जिसे ‘घुसपैठिया’ कहा जाता है.
टैरेंट कहते हैं कि जो लोग अपने देश में रहते हैं, वे उनसे घृणा नहीं करते, लेकिन उन्हें ‘उन आक्रमणकारियों से समस्या है, जो दूसरों की जमीन पर कब्जा करते हैं’. हालांकि, वे यह भी लिखते हैं कि ‘मेरी भाषा की उत्पत्ति यूरोपीय है, मेरी संस्कृति यूरोपीय है, मेरी राजनीतिक-दार्शनिक मान्यताएं यूरोपीय हैं, मेरी पहचान यूरोपीय है और सबसे महत्वपूर्ण, मेरा खून यूरोपीय है’. अगर हमलावर पहचान के संकट को इतनी दृढ़ता से महसूस कर रहा था, तो निर्दोष लोगों को मारने की जगह उसे यूरोप चले जाना चाहिए था.
लेकिन, हमें यह सवाल खुद से पूछना चाहिए कि आखिर क्यों हिंसक विजेताओं और औपनिवेशकों के वंशज आज भी खुद के पीड़ित होने का दावा करते हैं. यह स्वाभाविक नहीं है. सच बात तो यह है कि आप्रवासियों एवं खासकर मुसलमानों के खिलाफ इस तरह की भावना घृणा और कट्टरता की संस्कृति से उत्पन्न होती है, जिसे हम अपने चारों ओर देख रहे हैं. कट्टरता की यह संस्कृति विभाजन की राजनीति से निर्मित हुई है और दुर्भाग्यवश भारत सहित दुनियाभर में गैर-जिम्मेदार मीडिया द्वारा फैलायी गयी है.