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जनतंत्र और जन-घोषणापत्र

मनींद्र नाथ ठाकुर एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू manindrat@gmail.com चुनाव का माहौल बनता जा रहा है. व्यवस्था के तौर पर जनतंत्र की जटिलता भी बढ़ती जा रही है. निश्चित रूप से जनतंत्र में बहुमत की सरकार बनती है. लेकिन, किस मुद्दे पर किस पार्टी का क्या विचार है और उनसे कितने लोग सहमत हैं, इसे जान पाना […]

मनींद्र नाथ ठाकुर
एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू
manindrat@gmail.com
चुनाव का माहौल बनता जा रहा है. व्यवस्था के तौर पर जनतंत्र की जटिलता भी बढ़ती जा रही है. निश्चित रूप से जनतंत्र में बहुमत की सरकार बनती है.
लेकिन, किस मुद्दे पर किस पार्टी का क्या विचार है और उनसे कितने लोग सहमत हैं, इसे जान पाना आसान नहीं है. जनतंत्र में जब राजनीतिक दलों का आविर्भाव हुआ, तो इन्होंने अलग-अलग मुद्दों पर अपने विचारों को लिपिबद्ध किया, ताकि मतदाता उन विचारों को देखकर सहमति और असहमति का निर्णय ले सकें.
दलों ने अपनी नीतियों-कार्यक्रमों से बहुमत को रिझाने का प्रयास किया. लेकिन, सूचना तकनीकी में भारी विस्तार के बाद क्या इसका कोई महत्व है या यह सिर्फ औपचारिकता मात्र ही है? क्या पार्टियां इसे लेकर गंभीर हैं? क्या जनता घोषणापत्र को गंभीरता से लेती है? क्या चुनाव पर इसका कोई प्रभाव पड़ता भी है?
आम तौर पर किसी पार्टी के घोषणापत्र को ठीक से पढ़ा जाये, तो हमें उसका जनाधार, उसकी विचारधारा और उसके कार्यक्रमों के बारे में पूरी जानकारी मिल सकती है.
जैसा हम जानते हैं ‘कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो’ मार्क्स एवं एंगेल्स ने आंदोलन को दिशा देने के लिए लिखा था, एक बेहतरीन उदाहरण है घोषणापत्र का. उसे पढ़कर आप अंदाजा लगा सकते हैं कि कम्युनिस्ट आंदोलन समाज को कैसे समझता है और परिवर्तन के लिए किस तरह की योजना उसके विचारों में सही है. बाबा साहेब अांबेडकर का प्रसिद्ध लेख या गांधी का हिंद स्वराज औपचारिक तौर पर घोषणापत्र तो नहीं है, लेकिन आज भी जनांदोलनों को प्रभावित करता है.
एक तरह से ये तीनों घोषणापत्र हैं, जो लोगों के स्वतंत्र और स्वाभाविक जीवन जीने में आनेवाली बाधाओं से मुक्ति के लिए आंदोलन की रूपरेखा देते है. इनमें दर्शन भी है, समस्याओं का विश्लेषण भी है और उनसे निकालने के लिए संघर्ष का आह्वाहन भी. राजनीतिक दलों का घोषणापत्र इतना गंभीर तो नहीं होता है और उनमें दर्शन से ज्यादा कार्यक्रम होता है, लेकिन यदि सही विश्लेषण करें, तो पार्टियों के स्वभाव के बारे में बहुत कुछ समझ में आ जाता है.
भारतीय राजनीति में घोषणापत्र को बहुत गंभीरता से नहीं लिया जाता है. हर पार्टी के पास इसे लिखनेवालों की एक टीम तो जरूर रहती है, लेकिन है यह औपचारिकता मात्र ही. बहुत सी पार्टियां तो घोषणापत्र जारी ही नहीं करती हैं. उन्हें शायद यह लगता है कि इसका कोई मतलब इसलिए नहीं है कि मतदाता कभी उसे पढ़कर मत नहीं देता है. नतीजा है कि चुनाव में वादों की बरसात होती है. इन मौखिक वादों का कोई लेखा-जोखा चुनाव के बाद तो होता ही नहीं है.
यदि जनता किसी नेता से कहती है कि आपने चुनाव के समय ऐसा कुछ कहा था, तो एक ही जवाब मिलता है कि यह तो कहने की बात है इसे लागू करना संभव नहीं है. वैसे भी आजकल पार्टियाें द्वारा उनके घोषणापत्र में किये गये वादे ठीक उसी तरह हैं, जैसे साल के अंत में हिसाब-किताब देने कि लिए एक खास तरह का लेखा-जोखा तैयार किया जाता है.
अब समय आ गया है कि चुनाव के समय जारी किये गये घोषणापत्रों को गंभीरता से लिया जाये. जनता को यह वैधानिक अधिकार दिया जाये कि इन घोषणाओं की जांच कर सके और इन्हें लागू करवाने के लिए उन्हें न्यायालय तक जाने की छूट मिले. इसे एक तरह से जनता और राजनीतिक दलों के बीच का कांट्रैक्ट समझा जाये और वादाखिलाफी को अपराध की श्रेणी में रखा जाये. कुछ समय पहले एक अच्छा प्रयोग देखने को मिला था, दो चुनावों के बीच ‘वादा न तोड़’ कार्यक्रम होता था, जिसमें स्थानीय जनप्रतिनिधियों से वादा निभाने को कहा जाता था.
बिहार के औरंगाबाद जिले के मुख्यालय में ‘लोक संसद’ के सामाजिक कार्यकर्ताओं ने कुछ वादों को बड़े-बड़े होर्डिंग पर लिखकर चौराहों पर लगा दिया और रोज सुबह वहां जमा होकर उस पर चर्चा करने लगे. जनप्रतिनिधियों पर इसका बहुत असर पड़ा. सोशल मीडिया और अन्य संचार माध्यमों के जरिये भी समय-समय पर इन घोषणापत्रों के मूल्याकन का कार्यक्रम चलना चाहिए.
जनतंत्र के सफल होने की आवश्यक शर्त है कि जनता स्वयं भी अपना घोषणापत्र बनाये. हर चुनाव क्षेत्र में ‘लोक संसद’ हो, जो जन-संपर्क के माध्यम से लोगों की सार्वजनिक समस्याओं को लिपिबद्ध करे और उसे एक मांगपत्र का रूप दे. हमारे जनतंत्र की असली समस्या यह है कि चुनाव आते ही नये मुद्दे कृत्रिम तरीके से उछाले जाते हैं.
इसलिए सरकारों और दलों का प्रचार बजट बढ़ता जा रहा है. ऐसे में जनता को अपनी समस्याओं को मजबूती से दलों के सामने रखने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा और यह संघर्ष वैचारिक ज्यादा होगा. प्रचार कंपनियां लोगों की वैचारिक क्षमता को ही कुंद कर देती हैं. चुनाव बाद जब हमें समझ में आता है, तब तक देर हो चुकी होती है. यदि हम अपनी समस्याओं की सूची बनायेंगे, तो हमें बहकाना संभव नहीं होगा.
यदि ऐसा कोई घोषणापत्र हमारे पास हो, तो हम गांधी के स्वराज की कल्पना कर सकते हैं. इसे बनाये जाने की प्रकिया जितनी मुक्तिदायिनी होगी, उतनी ही मुक्तिदायिनी इसे लागू करवाने की प्रक्रिया भी होगी.
फिर चुनाव का एजेंडा भी हमारा होगा और राजनीति भी हमारी होगी. पार्टियों और नेताओं का मुख्य काम हमारा प्रतिनिधित्व करना होगा, न कि हम पर राज करना. भारतीय जनतंत्र को बचाने के लिए जन-घोषणापत्र को जनजागरण के आंदोलनों में बदलने की जरूरत है.

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