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प्रसिद्ध पुस्तक ‘साइंस एंड दि राज: दि स्टडी ऑफ ब्रिटिश इंडिया’ के लेखक इतिहासज्ञ दीपक कुमार ने ‘द त्रिशंकु नेशन: मेमाॅरी, सेल्फ एंड सोसाइटी इन कंटेंपरेरी इंडिया’ लिखा है. निजी और ऐतिहासिक स्मृतियों को व्यापक सामाजिक और सभ्यतागत संदर्भों में विश्लेषित करते हुए दीपक ने स्वातंत्र्योत्तर भारत का एक दिलचस्प खाका तैयार किया है जिसमेें […]

प्रसिद्ध पुस्तक ‘साइंस एंड दि राज: दि स्टडी ऑफ ब्रिटिश इंडिया’ के लेखक इतिहासज्ञ दीपक कुमार ने ‘द त्रिशंकु नेशन: मेमाॅरी, सेल्फ एंड सोसाइटी इन कंटेंपरेरी इंडिया’ लिखा है. निजी और ऐतिहासिक स्मृतियों को व्यापक सामाजिक और सभ्यतागत संदर्भों में विश्लेषित करते हुए दीपक ने स्वातंत्र्योत्तर भारत का एक दिलचस्प खाका तैयार किया है जिसमेें जाति, धर्म, सांप्रदायिकता, प्रशासन, भ्रष्टाचार, शिक्षा, विज्ञान, संस्कृति आदि का गहरा विश्लेषण है. हिंदी में इसका अनुवाद ‘त्रिशंकु राष्ट्र: स्मृति, स्व और समाज’ नाम से गणपत तेली ने किया है, जो राजकमल प्रकाशन से छपी है.
किताब की प्रस्तावना में ही दीपक यह प्रश्न रखते हैं कि आजकल धर्म का क्या मतलब क्या है- नीति, धर्म (रिलीजन), नियम-कानून या फिर सांप्रदायिक व्यवहार? देश की व्यवस्था में हम क्या हैं- लोकतंत्र, परिवारतंत्र, जातितंत्र या लूटतंत्र? आम लोगों के लिए इन प्रश्नों से लेखक नौ अध्यायों में जूझता है.
एक समय हम कहते थे कि लोक-संस्कृतियों के विशाल सागर में विकास के द्वीप पनप रहे हैं. लेकिन, आज हम कह सकते हैं कि विकास और आभिजात्य के फैलाव में हमारी संस्कृति दम तोड़ रही है. हमारे आस-पड़ोस के समाज में सकारात्मकता का अतिरेक इतना बढ़ गया है कि हम या तो एक स्वर्गिक दुनिया की ओर जा रहे हैं या उनके प्रति उदासीन हैं, जिन्हें सबसे ज्यादा जानना-समझना चाहिए था.
दीपक कुमार ‘स्मृति में मुफस्सिल’ शीर्षक अध्याय में लिखते हैं कि एक पाठ्य-पुस्तक में लिखा था कि भारत में दूध की नदियां बहती हैं, जबकि हकीकत में यह देश बिना दूध के मां जैसा था. और उस वक्त यानी 1951 के आस-पास दीपक कुमार जिस मुफस्सिल में रह रहे थे, उसी में पेशेवर की सभी विशेषताएं थीं―- सादगी, ईश्वर का डर और महत्वाकांक्षा का अभाव. और आज के किसी मुफस्सिल में जाकर देखते हैं, तो सिर्फ महत्वाकांक्षा दिखती है, सादगी और ईश्वर का डर कहीं नहीं दिखता.
दीपक के विचार में धर्म हमेशा से एक रहस्य रहा है और एक अर्द्धसामंती समाज में इस पर तर्क करने की प्रवृत्ति नहीं होती है. धर्म, कर्म, और भाग्य- सब पर्यायवाची लगते एक-दूसरे के स्थान पर इस्तेमाल किये जाते हैं.
वहीं ‘ढांचागत बदलाव’ लेख में कहते हैं कि बेशक धर्म एक पहचान का एहसास देता है, लेकिन इससे सुरक्षा और असुरक्षा का भी एहसास आता है. असुरक्षा की भावना सांप्रदायिकता पैदा करती है. अपने और आस-पास के संस्मरणों के आईने से यह किताब भारतीय उपमहाद्वीप के वृहत्तर जीवन की विभिन्न तहों को खोलती है.
– मनोज मोहन

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