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इराक : विभाजन के कगार पर!

इसलामिक स्टेट इन इराक एंड सीरिया के लड़ाकों द्वारा इराक के कई इलाकों पर कब्जे और उनके तेजी से बगदाद की ओर बढ़ने से इराक में शिया और सुन्नी समुदायों के बीच खूनी गृह युद्ध का संकट खड़ा हो गया है. इसके परिणामस्वरूप इराक का विभाजन भी हो सकता है. इस संघर्ष से पूरे मध्य-पूर्व […]

इसलामिक स्टेट इन इराक एंड सीरिया के लड़ाकों द्वारा इराक के कई इलाकों पर कब्जे और उनके तेजी से बगदाद की ओर बढ़ने से इराक में शिया और सुन्नी समुदायों के बीच खूनी गृह युद्ध का संकट खड़ा हो गया है. इसके परिणामस्वरूप इराक का विभाजन भी हो सकता है. इस संघर्ष से पूरे मध्य-पूर्व की राजनीति में भूचाल आ गया है और अन्य देशों में भी धार्मिक आधार पर हिंसा की आशंका व्यक्त की जा रही है.

यह संगठन इराक में कारवाई करने से पूर्व सीरिया के कई इलाकों पर भी कब्जा कर चुका है. इसके कब्जेवाले इलाकों में अनेक तेल-क्षेत्र भी हैं. इराक में तेजी से बदलते घटनाक्रम पर विशेष प्रस्तुति..

इराक में आज जो कुछ भी हो रहा है, उसके लिए वहां की आंतरिक परिस्थितियां जिम्मेवार हैं. वहां की सरकार कमजोर है और लड़ाकों ने जिस तरह से विद्रोह कर दिया है, उसे ठीक से सुलझाने में अक्षम साबित हो रही है. दरअसल, वहां का समुदाय तीन संप्रदायों में बंटा हुआ है- शिया, सुन्नी और कुर्ग. बसरा और फारस की खाड़ी तक फैला हुआ शिया बहुल दक्षिण-पूर्वी, सीरिया से सटा हुआ सुन्नी बहुल उत्तर पश्चिम और ईरान व तुर्की से सटा हुआ कुर्द बहुल उत्तर-पूर्व इलाका. ये तीनों की समुदाय आज बेहद आक्रामक स्थिति में पहुंच गये हैं. दूसरी ओर इनके बीच होनेवाले हिंसक संघर्ष पर किसी तरह का सरकारी नियंत्रण नहीं रहा.

सुन्नियों और कुर्दो की शिकायत है कि वे अल्पसंख्यक हैं और उनके साथ बुरा सलूक किया जा रहा है. इराक के पूर्व राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन (जिसे अमेरिका ने परास्त किया था) सुन्नियों के नेता माने जाते थे. सद्दाम हुसैन के पतन के बाद से सुन्नियों की ताकत कमजोर होती गयी और शियाओं का दबदबा बढ़ता गया. उस समय के सुन्नियों के कबाइली नेता को शियाओं ने कमजोर कर दिया. इससे इस समुदाय के लोगों में असंतोष फैलता गया. इस असंतोष का फायदा अल-कायदा ने उठाया. उसने इस समुदाय के लोगों की भावनाओं को भड़काया.

दूसरी ओर सेना में शिया का दबदबा बढ़ता गया. पूर्व में इराक में आतंकवादियों से लड़ने में सुन्नियों की बड़ी भूमिका रही है, लेकिन उन्हें मुख्यधारा में नहीं लाया गया. आज भी वे लड़ाके बेरोजगार की हालत में हैं. उनके पुनर्वास के लिए कुछ खास नहीं किया गया. उन लोगों को साथ न लेकर चलने से ऐसा हो रहा है.

इसका फायदा अल-कायदा ने उठाया. इन लोगों के असंतोष और महत्वाकांक्षा ने मिल कर आतंकी संगठन इसलामिक स्टेट इन इराक एंड सीरिया (द अल-शाम) (आइएसआइएस) को जन्म दिया. साथ ही, सीरिया की ओर से इराक के सुन्नियों को मदद मिल रही है और मौजूदा घटनाक्रम की पृष्ठभूमि में इसका प्रभाव भी रहा है. इराक की मौजूदा परिस्थितियों के लिए वहां के सरकार की नीतियां भी जिम्मेवार हैं.

दरअसल, अमेरिका ने इराक को आर्थिक तौर पर जजर्र कर दिया है. वह हथियार खरीदने की हालत में नहीं है. सरकार कमजोर है और उसे राष्ट्रीय स्तर पर समर्थन हासिल नहीं है. आज इराक की सरकार खतरे में है. वहां का सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो चुका है. इराक के धार्मिक आधार पर विभाजन की आशंका बढ़ गयी है. गृह युद्ध का खतरा मंडरा रहा है. एक साथ बहुत सी मुश्किलें हैं. सुन्नी लड़ाके बगदाद तक आ सकते हैं और सरकार को अपदस्थ कर सकते हैं. इससे अराजकता फैल सकती है. जेहादी तत्व सरकार पर काबिज हो सकते हैं. पूरी दुनिया में यह अपनेआप में अनोखी घटना कही जा सकती है.

दुनिया में तेल की अर्थव्यवस्था के लिहाज से इराक का स्थान महत्वपूर्ण है. अराजक तत्वों का इराक पर कब्जा होने से तेल के भंडार वाले अनेक इलाके उनके कब्जे में आ सकते हैं. तेल की आपूर्ति ठप होने से दुनिया में तेल संकट पैदा होगा. इससे तेल की कीमतों में उछाल आने की आशंका है. इसके नतीजे विश्वव्यापी होंगे. महज तीन-चार वर्ष पूर्व ही दुनिया मंदी के दौर से उबरी है. तेल संकट गहराने से एक बार फिर दुनिया मंदी की चपेट में आ सकती है. इस स्थिति से बचने के लिए अमेरिका यदि अपनी भूमिका निभायेगा, तो उसे सैनिकों की तैनाती करनी पड़ेगी.

देखा गया है कि अरब देशों के मामलों में भारत अक्सर तटस्थ भूमिका निभाता है. दरअसल, इराक के प्रधानमंत्री नूरी अल मलिकी की छवि एक सांप्रदायिक और एकपक्षीय नेता के रूप में रही है. इसलिए हालिया पैदा हुई इस समस्या से निबटने के लिए कोई देश साथ नहीं दे रहा है. हालांकि, अमेरिका का यह दायित्व बनता है कि वह इस संकट की स्थिति को संभाले, क्योंकि इराक में जो हालात आज बने हैं, उसके लिए काफी हद तक अमेरिका को जिम्मेवार ठहराया जा सकता है. लेकिन उसके राजनीतिक हित कुछ ठोस कदम उठाने से उसे रोकते हैं. वैसे सभी पक्षों को शामिल करते हुए इस समस्या को सुलझाया जा सकता है.

जहां तक भारत सरकार को इराक की स्थिति के संबंध में अपना रुख स्पष्ट करने और कदम उठाने का सवाल है, तो उसे इस मामले में अभी कोई स्टैंड नहीं लेना चाहिए. इराक की स्थिति अभी परिवर्तनशील है. ऐसे में भारत को वहां शांति की स्थापना का पक्ष तो लेना चाहिए, लेकिन किसी के पक्ष में खड़े होने से बचना होगा. स्थितियां तेजी से बदल रही हैं. तेल समस्या के मद्देनजर भी भारत सरकार को इस पर नजर रखना होगा. फिलहाल तो ऐसा प्रतीत हो रहा है कि यह समस्या लंबी चल सकती है. कम से कम दो-तीन माह तक चलने के पूरे आसार दिख रहे हैं.

(कन्हैया झा से बातचीत पर आधारित)

अमेरिका भी है इस तबाही का दोषी

इराक के भविष्य की अनिश्चितता की यह कहानी 2003 में अमेरिकी कब्जे और उसके विरोध में अल-कायदा के उदय से पहले शुरू होती है. 1991 के प्रथम खाड़ी युद्ध के बाद लगाये गये आर्थिक प्रतिबंधों से पहले इराक एक विकासशील देश था, जिसके रहन-सहन का स्तर यूरोपीय देश यूनान के समकक्ष था. ऐसा नहीं है कि पूर्व तानाशाह सद्दाम हुसैन के दौर में वहां का समाज शिया, सुन्नी और कुर्द समुदायों में नहीं बंटा था. यह भी सही है कि हुसैन ने सुन्नी अभिजनों को पर्याप्त लाभ पहुंचाया और शिया व कुर्द समुदायों की आकांक्षाओं और अधिकारों को दमित किया. लेकिन, तब इसका स्वरूप इतना हिंसक और नियोजित था, जैसा पिछले दस वर्षों से इराक में हो रहा है.

सद्दाम हुसैन पर आतंकवादी नेटवर्क को मदद देने के तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश और उनके प्रशासन के तमाम झूठे आरोपों के बावजूद वहां अल-कायदा का भी अस्तित्व नहीं था. कब्जे के बाद इराक में स्थित अमेरिकी प्रशासन ने धार्मिक विभाजन को गहरा कर अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश की और हुसैन के समर्थकों को हाशिये पर रखने की नीति पर चलते हुए सुन्नियों को अलग-थलग कर दिया. दूसरी ओर ईरान और प्रमुख शिया संगठनों के इराक में प्रभाव को रोकने के प्रयास के कारण शिया समुदाय में भी अमेरिकी कब्जे के खिलाफ रोष बढ़ता गया. इसके नतीजे में दोनों पक्षों के अतिवादियों ने हिंसक प्रतिरोध का रास्ता अपनाया. इस स्थिति का बहाना बना कर अमेरिका ने 2006 से 2008 के बीच अपनी सेना की संख्या बढ़ा दी. अमेरिकी सेना के बढ़ते दमन ने हथियारबंद अतिवादियों के आधार को बढ़ाने का अवसर दिया. अमेरिकी शासन द्वारा सिंचित हिंसा-प्रतिहिंसा के जटिल दुष्चक्र की भयावह परिणति आज दुनिया के सामने है.

इसलामी चरमपंथ का सिरमौर : अबु बक्र अल-बगदादी

इसलामिक स्टेट इन इराक एंड सीरिया (आइएसआइएस) द्वारा इराक के कई शहरों पर कब्जे के बाद एक नाम सुर्खियों में है, जिसके बारे में इराक और दुनिया के अन्य हिस्सों में बहुत कम जानकारी है. यह शख्स है इस क्रूर और हिंसक संगठन का मुखिया अबु बक्र अल-बगदादी उर्फ इब्राहिम अव्वाद इब्राहिम अली अल-बद्री उर्फ इब्राहिम अव्वाद इब्राहिम अली अल-बद्री अल समाराई उर्फ डॉ इब्राहिम उर्फ अबु दुआ है. अमेरिका द्वारा घोषित 10 मिलियन डॉलर का इनामी यह जेहादी नेता रहस्य के आवरण में रहता है और अपने संगठन के कमांडरों के बीच भी नकाब पहन कर आता है. माना जाता है कि चरमपंथी जेहादियों द्वारा नये ओसामा बिन लादेन के रूप में देखा जानेवाला अल-बगदादी 1971 में इराक की राजधानी बगदाद से 78 मील उत्तर में स्थित समारा शहर में पैदा हुआ था और उसके पास बगदाद विश्वविद्यालय से इसलामी अध्ययन में पीएचडी की डिग्री है. अल-बगदादी की सिर्फ दो तस्वीरें ही उपलब्ध हैं.

इस व्यक्ति की राजनीतिक और रणनीतिक क्षमता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि इसने छिटपुट आतंकी वारदातों को अंजाम देनेवाले गिरोह को एक ऐसे संगठन में बदल दिया है जो आज इराक और सीरिया के बड़े हिस्से को मिला कर एक नया इसलामी देश बनाने के लिए युद्धरत है. उसके हिंसक जेहाद में शामिल होने के बारे में अनेक धारणाएं हैं. कुछ लोग मानते हैं कि अल-बगदादी सद्दाम हुसैन के दौर में ही जेहादी बन चुका था. कुछ टिप्पणीकारों के अनुसार चार वर्षो तक अमेरिका सेना की हिरासत में रहने के दौरान उसके विचारों में उग्रता आयी और वह बिन-लादेन व अल-कायदा की विचारधारा के करीब आया.

एक मान्यता यह है कि 2003 में इराक पर अमेरिकी हमले के बाद वह अबु मुसाब अल-जरकावी के नेतृत्व में इराक में सक्रिय अल-कायदा से जुड़ गया. पहले उसने संगठन में विदेशों लड़ाकों को लाने का काम किया और बाद में सीरिया की सीमा से सटे रावा शहर में सक्रिय अल-कायदा की इकाई का प्रमुख बना. इस शहर में स्वयंभू शरिया अदालत में अमेरिकी के नेतृत्ववाले नाटो सेनाओं की मदद करनेवालों की क्रूर हत्या का फैसला देकर अल-बगदादी कुख्यात हुआ. इसका यही रवैया बीते दो साल से सीरिया में इसके कब्जेवाले इलाकों और अब इराक में देखने को मिल रहा है. अल-बगदादी पर जरकावी का बहुत प्रभाव था, जिसकी बर्बर हिंसा को अल-कायदा के अंतरराष्ट्रीय नेतृत्व ने भी स्वीकृति नहीं दी थी.

वर्ष 2006 में जरकावी अमेरिकी हमले में मारा गया और उसी वर्ष अल-बगदादी गिरफ्तार कर लिया गया. 2009 में रिहा होने के बाद वह संगठन का नेता बना, पर उसने कभी भी अल-कायदा नेटवर्क के मुखिया अल-जवाहिरी की अधीनता को स्वीकार नहीं किया. अल-जवाहिरी ने इराकी लड़ाकों को सिर्फ इराक तक सीमित रहने और सीरिया की जिम्मेवारी अल-नुसरा पर छोड़ देने को कहा था. बर्बरता और खुद-मुख्तारी के मसले पर इस साल के शुरू में इसलामिक स्टेट और अल-कायदा का संबंध टूट गया. पर, अब भी इस संगठन की विचारधारा ओसामा बिन-लादेन से ही प्रभावित है.

इराक व सीरिया में इसलामिक स्टेट की सैन्य बढ़त और क्षेत्रीय देशों तथा अंतरराष्ट्रीय समुदाय की प्रतिक्रिया के परिणाम तो आनेवाले समय में सामने आयेंगे, पर अभी दुनिया की कानों में अल-बगदादी के वे शब्द गूंज रहे हैं जो उसने अमेरिकी हिरासत से रिहा होते समय कहा था- ‘हमारी अगली मुलाकात न्यूयॉर्क में होगी’.

प्रकाश कुमार रे

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