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हिज़बुल में क्यों शामिल हुआ पेटीएम में काम करने वाला जुनैद

अलगाववादी खेमे में चल रहे राजनीतिक मंथन के दौरान आई एक असामान्य ख़बर ने राज्य की राजनीति में हलचल पैदा कर दी है. ख़बर है कि हाल ही में तहरीक-ए-हुर्रियत के प्रमुख चुने गए अशरफ़ सहराई के बेटे जुनैद चरमपंथी संगठन हिज़बुल मुजाहिदीन में शामिल हो गए हैं. कई सालों बाद इस चंरमपंथी संगठन में […]

अलगाववादी खेमे में चल रहे राजनीतिक मंथन के दौरान आई एक असामान्य ख़बर ने राज्य की राजनीति में हलचल पैदा कर दी है.

ख़बर है कि हाल ही में तहरीक-ए-हुर्रियत के प्रमुख चुने गए अशरफ़ सहराई के बेटे जुनैद चरमपंथी संगठन हिज़बुल मुजाहिदीन में शामिल हो गए हैं.

कई सालों बाद इस चंरमपंथी संगठन में कोई हाई प्रोफ़ाइल चेहरा में शामिल हुआ है.

अशरफ़ सहराई जिस तेज़ी से उभरे हैं वो भी कई लोगों के लिए हैरान करने वाला रहा है. कई लोग सहराई को हुर्रियत कॉन्फ़्रेंस में गिलानी का उत्तराधिकारी भी मानते हैं.

सहराई ने 18 मार्च को ही तहरीक-ए-हुर्रियत के प्रमुख का पद संभाला था और 25 मार्च को उनके बेटे जुनैद की एक तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल हो गई. इस तस्वीर में वो हाथों में एके-47 राइफल पकड़े देखे गए थे.

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जुनैद ने कश्मीर यूनिवर्सिटी से एमबीए किया है. उनके चरमपंथी संगठन हिज़बुल मुजाहिदीन में शामिल होने के फ़ैसले को कश्मीर के नौजवानों के लिए ‘एक बड़ा संदेश’ माना जा रहा है.

‘जुनैद अपनी राह पर चला गया’

जुनैद ने चार महीने पहले पेटीएम कंपनी की नौकरी छोड़ दी थी.

बीते कुछ सालों में भारत प्रशासित कश्मीर के कई नौजवानों ने इस चरमपंथी संगठन में बड़े पद संभाले हैं. लेकिन ‘कश्मीर का पोस्टर ब्वॉय’ कहे जाने वाले बुरहान वानी की मौत के बाद हिज़बुल मुजाहिदीन से जुड़ने वालों की संख्या बढ़ी है. कई बार माता-पिता अपने बच्चों को हिंसा के रास्ते पर जाने से चाहते हुए भी नहीं रोक पा रहे हैं.

हालांकि कुछ ऐसे उदाहरण भी हैं जहां माता-पिता के कहने पर उनके बच्चे बंदूक छोड़ घर लौट आए हैं.

अशरफ़ सहराई का कहना है कि जुनैद की जो इच्छा थी, उसने वही किया. वो कहते हैं, "जुनैद अपनी राह पर चला गया. ख़ुदा के हवाले. उसको वही समझ आया कि मुझे ऐसा काम करना चाहिए. हम बहुत ज़ुल्म झेल रहे हैं."

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अशरफ़ सहराई को अपने बेटे के जाने का कोई पश्चाताप नहीं है. हाल के कुछ साक्षात्कारों में अशरफ़ सहराई ने कश्मीर पर भारतीय कब्ज़े को ख़त्म करने के लिए हिंसा के मार्ग को भी उचित ठहराया था.

सहराई की तुलना

सहराई का कहना है कि सशस्त्र प्रतिरोध दुनिया में हर स्वतंत्रता आंदोलन का एक अभिन्न अंग है.

कई लोग मानते हैं कि आहिस्ता और नरम तरीक़े से बात करने वाले सहराई अपने सीनियर नेताओं की तुलना में कहीं ज़्यादा कट्टरपंथी हैं.

कश्मीर में एक कार्यक्रम के दौरान दिए अपने संबोधन में उन्होंने सरकारी अधिकारियों की अपील को ख़ारिज कर दिया. अपील में सहराई से कहा गया था कि वो अपने बेटे को वापस बुला लें.

लेकिन सहराई के लिए ऐसा करना इसलिए भी संभव नहीं है क्योंकि आंदोलन में हिंसा को जायज़ बताने वाले सहराई को फिर ये भी बताना होगा कि हिंसा में झोंकने के लिए औरों के बच्चे ही बेहतर हैं, अपने क्यों नहीं.

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जुनैद के चरमपंथी संगठन हिज़बुल मुजाहिदीन ज्वाइन करने के फ़ैसले पर कई तरह से बहस हो रही है.

उनका ये फ़ैसला ऐसे लोगों के लिए एक जवाब माना जा रहा है जो कहते रहे हैं कि हुर्रियत कॉन्फ़्रेंस के नेताओं के बच्चे तो बेहतर करियर चुन रहे हैं. वो क्यों बंदूक नहीं उठाते?

हिंसा समाज ने स्वीकार कर ली

लेकिन ये किसी के लिए जवाब है या नहीं, इससे ज़्यादा परेशान करने वाली बात ये है कि इस आंदोलन ने अपना रंग एक बार फिर बदल लिया है. हिंसा से अहिंसा की ओर जाना अतीत की बात हो गई है.

जब जुनैद ने हथियार उठाया तो किसी ने इस बारे में एक सवाल तक नहीं पूछा. वरना जुनैद के पास अपने पिता के साथ राजनीति करने का एक विकल्प तो हमेशा खुला ही था.

बीते वक़्त में तेज़ी से इस संगठन से जुड़े चरमपंथियों की संख्या बढ़ी है और दूसरी वैचारिक ताकतों के साथ उनकी लड़ाई ने हाल के दिनों में एक नया मोड़ लिया है.

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मसलन, तहरीक उल मुजाहिदीन के चरमपंथी ईसा फ़ज़ीली के अंतिम संस्कार में कुछ लोगों ने उनके शव को इस्लामिक स्टेट के झंड़े में लपेट दिया और ये बताने की कोशश की कि हिज़बुल के साथ-साथ दूसरी विचारधाराएं भी कश्मीर में काम कर रही हैं.

हिज़बुल मुजाहिदीन पहले ही ज़ाकिर मूसा नाम के अपने स्थानीय कमांडर को खो चुकी है जो अब अल-क़ायदा के संगठन ‘अंसार ग़ज़वात-उल-हिंद’ से जुड़ गए हैं.

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हिज़बुल मुजाहिदीन के माध्यम से चलने वाले जमात-ए-इस्लामी की विचारधारा को ये तत्व अब चुनौती दे रहे हैं. पाकिस्तान और जमात के ख़िलाफ़ उनके द्वारा दिए गए बयानों ने चरमपंथी राजनीति को हिला रखा है.

ऐसे हालात में जुनैद का हिज़बुल मुजाहिदीन से जुड़ना इस चरमपंथी संगठन के लिए एक मज़बूत राजनीतिक निवेश कहा जा रहा है. साथ ही कयास लगाए जा रहे हैं कि जुनैद हिज़बुल की कमान भी संभाल सकते हैं.

आधिकारिक रूप से जमात, हिज़बुल मुजाहिदीन को अब वैसे नहीं अपनाती जैसे कभी वो 90 के दशक में अपनाती रही है. लेकिन अब हालात बदल गए हैं.

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