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शक्ति की मौलिक कल्पना

अजय- मुझे एक घटना की याद कभी नहीं भूलती. वह घटना क्या थी, लोटा-डोर लिये भिक्षा मांगने वाले एक ब्राह्मण से अकस्मात हुई एक बातचीत थी. बातों-बातों में किसी एक ऐसे की प्रसंग में मैंने कुछ व्यंग्य और चुटकी लेने के अंदाज में उससे पूछा ‘पंडित जी, रावण कौन था? किसने उसे मारा? उस आदमी […]

अजय-

मुझे एक घटना की याद कभी नहीं भूलती. वह घटना क्या थी, लोटा-डोर लिये भिक्षा मांगने वाले एक ब्राह्मण से अकस्मात हुई एक बातचीत थी. बातों-बातों में किसी एक ऐसे की प्रसंग में मैंने कुछ व्यंग्य और चुटकी लेने के अंदाज में उससे पूछा ‘पंडित जी, रावण कौन था? किसने उसे मारा? उस आदमी ने मुझे जवाब देने की जगह बहुत ही सहज ढंग से उल्टे सवाल किया. सवाल करते समय उसके सवाल में किसी गूढ़ बात बोलने का अंदाज. सहज भाव और कतई सादे ढंग से पूछा, बबुआ रावण मार दिया गया?

मैं कुछ भी बोल न सका और सहसा चुप अपने भीतर देखने लगा. वह भिक्षुक चला गया लेकिन मैं देर तक उसके सवाल पर सोचता रहा. निराला की एक कविता की कई एक पंक्तियां मेरे दिमाग में बजने लगी थीं- ‘रवि हुआ अस्त, ज्योति के पत्र पर लिखा अमर रह गया राम-रावण का अपराजेय समर’

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और कि – ‘शक्ति की करो मौलिक कल्पना’ राम-रावण का युद्ध अभी भी जारी है. शक्ति की करो मौलिक कल्पना का अर्थ जैसे धीरे-धीरे बोध के धरातल खुल रहा था. कुछ दिनों बाद अपने गांव के एक पांडे जी से, जो साधु हो गये थे, हिंसा-अहिंसा, अमीर-गरीब, उनके बीच की लड़ाई आदि पर बहस विवाद करते हुए भीख मांगने वाले उस ब्राह्मण के सहज अंदाज में मैंने प्रश्न किया, पांडे जी, रावण क्या मार दिया गया? मुझसे एक आदमी ने एक दिन इसी तरह सवाल किया था.

आप यकीन कीजिए पांडे यानी वह साधु अचानक थोड़ी देर के लिए चुप हो गया और जैसे किसी घटना की याद करते हुए बिल्कुल अचरज से भरे आवेश में उसने एक घटना सुनाई, मैं कलकत्ता गया था, जिनके यहां मैं गया था, वे हमें एक जगह घुमाने ले गये. एक चीज पर उन्होंने मुझे चढ़ाया और हमलोग सुर्र से 10-12 तल्ला ऊपर पहुंच गये. सामने का दरवाजा खोल कर ज्यों ही उस घर में घुसा तो पूरे शरीर से तर-तर पसीना छूटने लगा. मैंने कहा, यजमान जल्दी घर ले चलिए और उसके बाद साधु ने कहा, ठीक कह रहे हो बचवा, अभी रावण मारा नहीं गया, अभी तो सोने की लंका है और सब खूब सुख भोग रहे हैं.


धीरे-धीरे मैं सहज अनुभव के धरातल पर यह महसूस कर रहा था, लोग कथाओं का महज धार्मिक अर्थ नहीं लगाते, वे उसके प्रतीक अर्थ को भी समझते हैं. यह नहीं कहा जा सकता कि आम तौर पर लोग उसके धार्मिक रूप से उसके मिथकीय पहलू से पूरी तरह मुक्त हैं. लेकिन यह एक सच है, लोग बहुत गहरे उतर कर अपने सहज बोध के भीतर से उनके प्रतीक अर्थ को समझते हैं. उसकी अपनी वर्तमान समय के प्रश्नों और संदर्भों में व्याख्या करते हैं.

उससे प्रेरणा ग्रहण करते हैं. अपनी जातीय संस्कृति और सांस्कृतिक चेतना से शक्ति और रस खींचते हुए वर्तमान से निरंतर जूझने का साहस और समझ बटोरते हैं. सच कहूं तो लगने लगा, जैसे अपने देश के करोड़ों आधुनिक शिक्षा से हीन अनपढ़ गंवार कहे जाने वाले लोगों से बात करते की भाषा, उन्हें समझने का रास्ता और उनसे बहस करने के अनगिनत तर्क के खजाने के सामने खड़ा हूं. अब तक जो पढ़ी हुई बात थी, जो अपनी नहीं केवल बहस करने के काम आने वाली बात जैसी थी, वह सहसा अपनी और अपने अनुभव की बात जैसी लगने लगी.

यह एक सच्चाई है, आदिम मनुष्य ने अपनी समस्त सामूहिक शक्ति, विवेक, अनुभव को अनेक मूर्तियों, कथाओं, पात्रों, घटनाओं के रूप में एक जगह इकट्ठा कर दिया और यही मिथक बन गये. सामूहिक होने से ही किसी एक की रचना न होकर उन्होंने व्यक्ति से, काल से स्वतंत्र कोई एक शक्ति, एक घटना या अवतार की शक्ल अख्तियार कर ली. लेकिन इन मिथकों को आदमी ने ही गढ़ा था और इसीलिए उनके प्रतीक अर्थ को भी वह कभी नहीं भूला. ऐसे ही न जाने कितने मिथक, इतिहास, शक्ति, चरित्र, घटना अपने दोनों रूपों में एक सामाजिक -धार्मिक ‘उत्सव, एक मूल्य और एक इतिहास बोध के तौर पर प्रतीक रूप में हर बदलते संदर्भ से अपना रिश्ता बैठाते हुए अब तक चलते चले आये हैं-आदिम सामूहिक इच्छा, सपनों, अनुभवों के बोध के मिथकीय चेतना नदी की तरह.


ऐसी ही एक प्रतीक, एक मिथक है दुर्गा. महिषासुर मर्दिनी और इसी कारण किसी दिन पूजा उत्सव की एक परंपरा के रूप में और दूसरी तरफ शक्ति की आदि देवी कल्याणस्वरूपा, सबके हृदय में वास करने वाली शक्ति-चेतना के प्रतीक रूप में हमारे सामने आज भी है. लेकिन विकास की आधुनिक चेतना के साथ मिथक का धार्मिक, अनैतिहासिक, रहस्य का आवरण क्रमश: घटता गया है और धीरे-धीरे उसके एक सामाजिक मूल्य, एक प्रतीक, आदिम अनुभवों के इतिहास बोध के प्रतीक का रूप ज्यादा खुलता गया है.

यानी कहिए तो एक धार्मिक रहस्य और वास्तविक ऐतिहासिक तथ्य के रूप में उसकी अब तक रही आयी सत्ता मिट रही है और आदमी की अंतरनिहित सकल शक्तियों, इच्छाओं, सपनों का प्रतीक और बोध वाला पहलू खुल कर सामने आता जा रहा है. समय ने किसी चीज को अछूता नहीं छोड़ा है और इसलिए मिथक और परंपराओं को भी. उसने इनको दोनों रूपों में प्रभावित किया है. एक धार्मिक विश्वास और परंपरा की जगह दुर्गा पूजा भी अब ज्यादा से ज्यादा एक सामाजिक उत्सव परंपरा बनती गयी है.


भिक्षा मांगने वाले उस आदमी की बात याद करता हूं, क्या रावण मार दिया गया? जो यह कहते हैं कि भारतीय समाज की चेतना पूरी तरह पिछड़ेपन, धार्मिक रूढि़यों और रहस्यों से घिरी हुई है, उनसे पूछने का जी करता है – क्या ऐसी चेतना ऐसे सवाल पूछा करती है. मैं यह भी नहीं कह सकता कि भारतीय समाज की यह मिथकीय चेतना पूरी तरह खत्म हो गयी है और बिल्कुल आधुनिक हो गयी है. नहीं, ऐसा नहीं है. फिर भी उसकी मिथकीय चेतना अपने परंपरागत रूप में मौजूद नहीं है.

दुर्गा के प्रतीक को लीजिए, आज जन साधारण की चेतना की चेतना में असुर वही असुर नहीं है. आज उसके रूप में मनुष्य विरोधी, समाज विरोधी शक्तियां उभरती है और दुर्गा में भी नई शक्तियों का रूप उभरता है. मिथ का, कथा का ऊपरी ढांचा वही रहता है लेकिन उसके भीतरी तत्व, उसका प्राण, सब कुछ बदल जाता है. जन विरोधी, जीवन विरोधी सत्ताधारी वर्ग भी इन मिथकों का, प्रतीकों का इस्तेमाल अपने हित में करता है. लेकिन वह इसमें कोई नया अर्थ नहीं भरता बल्कि वह समाज के सहज धार्मिक विश्वास और उसकी रहस्य दैवी शक्ति पूजक चेतना का उपयोग करता और बढ़ाता है.

आपातकाल के समय श्रीमती इंदिरा गांधी को ‘दुर्गा’ बताया गया. इसको प्रचारित और प्रतिष्ठित करने के लिए एक विख्यात चित्रकार ने दुर्गा के रूप में उनका एक चित्र बनाया. एक आचार्य और प्रसिद्ध निबंधकार ने उन्हें महिषासुर मर्दिनी की तर्ज पर पाकासुर मर्दिनी कह कर निबंध लिखा आदि. ताहिर है जनविरोधी शक्तियां इन आदिम मिथकों और प्रतीकों का सांप्रदायिक उपयोग करती है और आज यह बड़े पैमाने पर हो रहा है.

खैर, यह विकास विरोधी शक्तियों द्वारा मिथकों, प्रतीकों के उपयोग की बात रही. उज्ज्वल भविष्य के लिए संघर्षरत न्याय की शक्तियों द्वारा भी इन मिथकों, प्रतीकों का न्याय-अन्याय के बीच युद्ध के इस आदिम सामूहिक बोध का नये अर्थों और संदर्भों में उपयोग किया जाता रहा है. स्वतंत्रता आंदोलन के समय ऐसे न जाने कितने प्रतीकों काली, दुर्गा आदि का और परंपराओं का उपयोग किया गया. लेकिन इस दौरान हम यह भी पाते हैं कि इनका प्रयोग रूढि़यों से रहस्यग्रस्त, देवी मिथकीय चेतना से मुक्त नहीं रहा. लेकिन आधुनिक समाज की जटिलताएं और उससे उपजे सवाल कुछ इस तरह के भी है कि ये पुराने मिथक और प्रतीक उन्हें अभिव्यक्त कर पाने में पूरी तरह समर्थ नहीं हो पाते.

कई बार उनका ऊपरी ढांचा चरमरा जाता है. हिंदी के आधुनिक विद्रोही कवि निराला की ये पंक्तियां, लिखा अमर रह गया. राम-रावण का अपराजेय समर और पांडे की आवेश में भरकर सुनाई गयी वह घटना और उनका यह कहना नहीं, सोने की लंका अभी भी है और रावण अभी मारा नहीं गया, एक साथ याद आने लगती है. निराला की इस समर्थ कविता में राम वही राम नहीं है, न रावण वही रावण और न शक्ति की प्रतीक दुर्गा परंपरागत दुर्गा है. वे सब उनके अपने समय के हैं.

यह राम के रूप में एक साधारण लेकिन जूझने की अपनी अंतरनिहित शक्ति में असाधारण मनुष्य जिस शक्ति की साधना करता है, यह कोई रहस्यमय दैवी शक्ति नहीं. एक मानवीय शक्ति है. लेकिन शक्ति साधना के रूप में दुर्गा पूजा की यह कथा यहां आकर चरमरा जाती है और शक्ति साधना का नया अर्थ खोलता कवि बोलने लगता है ‘शक्ति की करो मौलिक कल्पना’. आज जीवन, उसकी विरोधी शक्तियां और उनसे जूझने के लिए जिस शक्ति और साधना की जरूरत है, वह कल से ज्यादा जटिल, भिन्न और नयी है.

यहां शक्ति के लिए दुर्गा पूजा की यह मिथक कथा पूरी तरह चरमरा जाने के लिए विवश है. भिक्षा मांगते उस आदमी का सवाल आज भी एक जीवित सवाल है. नहीं जानता आप का जवाब क्या होगा. लेकिन यदि आपका जवाब नहीं में हुआ तो यही जवाब हम सबको जन की और जीवन की विजय के लिए शक्ति की परंपरागत नहीं, बल्कि मौलिक कल्पना करने, उसे साधने और पाने के लिए हर समय ललकारता रहेगा.

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