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श्रीदर्शनम् की झलक

-गुजरात-महाराष्ट्र से लौट कर हरिवंश- स्वाध्याय अध्ययन का पहला पड़ाव है, ‘श्रीदर्शनम्’ से दरस-परस कनिपुर में. अहमदाबाद से लगभग 60 किमी दूर देहात में सुबह हम निकल गये हैं. अमेरिका से आये स्वाध्यायी, भारत के विभिन्न हिस्सों से आये लोगों की टीम, सब साथ हैं. उदात्त विचारों के आंदोलन या सात्विक सपने अपरिचय की दूरी […]

-गुजरात-महाराष्ट्र से लौट कर हरिवंश-

स्वाध्याय अध्ययन का पहला पड़ाव है, ‘श्रीदर्शनम्’ से दरस-परस कनिपुर में. अहमदाबाद से लगभग 60 किमी दूर देहात में सुबह हम निकल गये हैं. अमेरिका से आये स्वाध्यायी, भारत के विभिन्न हिस्सों से आये लोगों की टीम, सब साथ हैं. उदात्त विचारों के आंदोलन या सात्विक सपने अपरिचय की दूरी तुरंत खत्म करते हैं. स्वाभाविक रूप में. लगता है कि हम बरसों से एक-दूसरे को जानते हैं.
एक स्वाध्यायी साथी कहते हैं, श्री यानी वैभव, दर्शनम् यानी देखना. हम वैभव देखने चल रहे हैं. पर सच्चा वैभव. यह वैभव है, संबंध, आत्मीयता और रिश्तों के समृद्ध संसार का. गांधीवादी दर्शन और स्वाध्याय के गहरे जानकार राजीव वोरा (जिनके निमंत्रण पर हम आये हैं) कहते हैं, तत्व मसी यानी तुम भी हो, जो मैं हूं. स्व का विस्तार. आत्मीयता का फैलाव. मुझे बातें कुछ एब्सट्रैक्ट लगती हैं. वायावी. पर देखने के पहले.
‘श्रीदर्शनम्’ 15-20 गांवों का संयुक्त ‘कृषि प्रयोग’ है. जिन गांवों में 70 फीसदी से अधिक स्वाध्यायी हो जाते हैं, वहां श्रीदर्शनम् का प्रयोग शुरू होता है. ‘योगेश्वर कृषि’ का प्रयोग एक गांव तक सीमित है. ‘श्रीदर्शनम्’ के लगभग 19 प्रयोग चल रहे हैं. और योगेश्वर कृषि के लगभग 3500. ‘योगेश्वर कृषि’ का फैलाव दो से पांच एकड़ जमीन तक सीमित होता है. श्रीदर्शनम् 15 से 20 एकड़ के बीच कनिपुर का ‘श्रीदर्शनम्’ 14 एकड़ में फैला है.

20 गांवों का यह सामूहिक प्रयास है. यहां तीन दिनों तक काम करने के लिए तीन गांवों से क्रमवार एक-एक समूह आता है, तीन-तीन लोगों का. यानी तीन गांवों से नौ लोगों का. बाकी के 17 गांवों से एक-एक आदमी. यानी कुल 9+17=26 लोग यहां रोज रहते हैं. अपना खाना लेकर. ये पुजारी कहलाते हैं. जमीन ट्रस्ट द्वारा नियंत्रित होती है. ये 26 लोग न मजदूर होते हैं न किसान. पूजा भाव से आते हैं. यहां का उत्पाद या पैदा हुई लक्ष्मी अपौरुषेय है. पूजा भक्ति के भाव से पैदा हुई. सामूहिक नियंत्रणवाली. 30 दिनों तक व्यक्ति अपनी खेती करता है.

पर स्वाध्यायी इस बीच से एक दिन ‘श्रीदर्शनम्’ में खेती के लिए अर्पित करता है. एक ही संकुल के 20 गांवों का स्वाध्यायी परिवार ‘श्रीदर्शनम्’ को चलाता है. यहां से उत्पादित संपदा भी पूरे समूह की होती है. इस अपौरुषेय धन का इस्तेमाल उन लोगों की मदद के लिए होता है, जो नितांत जरूरतमंद हैं. बिना ऐसे लोगों के मांगे, लौटाने की प्रत्याशा में नहीं. यह मदद क्या साहूकारी, बैकिंग, कर्ज का मानस समझेगा? जहां मुनष्य के गौरव को खंडित किये बिना, मदद नहीं मिलती. लौटाने या चुकता करने की बाध्यता के बिना. न कोई दाता है और न कर्जदार.

फिर भी यह मदद धर्मार्थ या अनुदान नहीं है. पूरे समूह के श्रम का प्रतिफल. यानी निजी संपक्ति समाज में रहे, पर साथ-साथ सामूहिक दृष्टि से एक भी व्यक्ति दीन-हीन न रहे. पौरुषेय लक्ष्मी, वैभव का दूसरा दर्शन है. सच्चा दर्शन, लक्ष्मी का दूसरा रूप. इसमें लक्ष्मी आने के साथ दूषण नहीं आता. पैसे के साथ प्रमाद नहीं व्यसन नहीं. अत: लक्ष्मी की साधना और चरित्र की साधना दोनों के लिए श्रीदर्शनम्.

यह एक अनूठा प्रयोग है. इस प्रयोग का मकसद है, आदमी-आदमी से जुड़े. अकेला न पड़े. अलगाव के अनेक कारण हैं. एकता के भी वैसे ही अनेक कारण हैं. कनिपुर का एक स्वाध्यायी कहता है, जो भगवान हमारे अंदर लहू संचालित करता है, वही दूसरे में. इसलिए दादा ने हमें पहला पाठ पढ़ाया ‘भाईपन’ का. हम सब एक ही पिता की संतान हैं. पिता एक जैसा सबको प्यार करता है. महत्व की बात है कि हम किस संबंध से आगे बढ़ना चाहते हैं? क्या शोषक-शोषित या कॉमरेडशीप से? दादा का मशहूर जुमला है ‘वी ऑल आर डिवाइन ब्रदर्स अंडर फादरहुड ऑफ गॉड’ (हम सब भाई एक ही ईश्वर की संतान हैं).

अस्पृश्य की नयी परिभाषा करते हैं, दादा. अस्पृश्य वह, जिसमें ईश्वर नहीं है. इसलिए महत्वपूर्ण यह है कि पहले मानव संबंध तय हो. इससे स्वत: एक आर्थिक ढांचा-आर्थिक समाज उभरेगा. दादा ने कहा कि हम एक ही ईश्वर की संतान हैं. जब हम एक हैं, तो अलगाव या डर कैसा? जहां समानता होती है. वहां प्रगति होती है. ‘सरीखापन’ (समानता) से आत्मसम्मान और आत्म गरिमा बढ़ती है. इस मानवीय रिश्ते से जो अर्थतंत्र उभरेगा, वह स्थायी होगा.

एक स्वाध्यायी सैद्धांतिक चर्चा उठाते हैं. कहते हैं, अब तक होता यह रहा है कि हम तय कर लेते हैं कि हमें पूंजीवादी या साम्यवादी समाज गढ़ना है, फिर उस ढांचे को समाज पर थोपते-लादते हैं. यह उल्टा काम है. सरकार तय करती है कि ‘अर्थव्यवस्था’ कैसी (इकोनॉमिक सोसाइटी) हो फिर उसी अप्रोच के तहत बताया जाता है कि लोग कैसे रहें – विकास करें? यह असहज-कृत्रिम और उल्टा है.
इन प्रयोगों के पीछे एक सोच है. खंडित होते समाज में लोगों को एक साथ लाना. कई परिवार इन जगहों पर काम करते हैं. दो-तीन रात साथ ठहरते हैं. दुख, दर्द बांटते हैं. एक-दूसरे के करीब आते हैं. 20 गांवों के लोगों के लोगों में आपसी संबंध बनते हैं. कई ऐसे गांव थे, जिनमें आपस की दुश्मनी थी. इस प्रयोग से वह बैर भाव खत्म होता है. दशहरा-दीवाली पर इन गांवों के लोग विशेष तौर से एक-दूसरे स्वाध्यायी साथी के घर आते-जाते हैं. कानून अदालत से लोग बचते हैं. गांधीजी ने ग्राम स्वराज्य की सेहत की पहचान के लिए एक फार्मूला दिया था. जहां आपसी झगड़े-मुकदमे कम हों. स्वाध्याय को इस दिशा में सफलता मिली है. यह देख कर मुझे बिहार के जहानाबाद-औरंगाबाद-डालटनगंज वगैरह याद आते हैं. क्या यह भूमि बंजर-अनुर्वर हो गयी है कि यहां प्रयोग ठहर गये हैं. कुछ नया घटित नहीं हो रहा. अवसाद में डूबता हूं.
डॉ गोपाल कृष्ण, यह जान कर कि बिहार से हूं, बड़ी आत्मीयता से पूछताछ करते हैं. जेपी के करीबी रहे हैं. काफी समय बिहार में गुजारा है. कहते हैं कि गुजरात महाराष्ट्र में सामाजिक मूल्य-संस्कार हैं.बंटवारा कम है. सामुदायिक बोध अधिक है. इसलिए जाति विभाजन या राजनीति विभाजन की धारा, समाज में नीचे नहीं पहुंचती. समाज बंटता नहीं टूटता नहीं. उत्तरप्रदेश और बिहार का समाज पहले से खंडित है टूटा है.

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