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पाठकों की अदालत में सवाल

– हरिवंश – टीवी पर प्रो मुकेश चंदरपुरी के बेटे सौरभ के स्तब्ध चेहरे को दिखा कर एक मित्र ने गुस्से में पूछा आप मानवाधिकारवादियों के पास इसका क्या जवाब है? क्या हल है? यह प्रश्न जुड़ा है, बेंगलूर स्थित दुनिया के सर्वश्रेष्ठ ‘सेंटर ऑफ एक्सलेंस’ में से एक और भारतीय गौरव भारतीय विज्ञान संस्थान […]

– हरिवंश –
टीवी पर प्रो मुकेश चंदरपुरी के बेटे सौरभ के स्तब्ध चेहरे को दिखा कर एक मित्र ने गुस्से में पूछा आप मानवाधिकारवादियों के पास इसका क्या जवाब है? क्या हल है?
यह प्रश्न जुड़ा है, बेंगलूर स्थित दुनिया के सर्वश्रेष्ठ ‘सेंटर ऑफ एक्सलेंस’ में से एक और भारतीय गौरव भारतीय विज्ञान संस्थान (आइआइएस) में आतंकवादी हमले से. इस अप्रत्याशित हमले में दो वैज्ञानिक मारे गये. पांच वैज्ञानिक घायल हैं. इसी हमले में दिल्ली आइआइटी में रहे गणित के प्रोफेसर मुकेश चंदरपुरी ने अपनी छात्रा ललिता को पीछे धकेल खुद गोली खा ली.
अपनी जान देकर अपने छात्र को बचाया. उनका बेटा सौरभ उनका शव लाने बेंगलूर गया था. इस गणितज्ञ का शव लाने में भी कठिनाइयां हुईं. एक तो अचानक हत्या. दूसरा शव दिल्ली ले जाने में हुई व्यवस्थागत परेशानियां. बहुत प्रयास के बाद उनका शव इंडियन एयरलाइंस से भेजा गया. परेशान परिवारवाले जेट से लाने की तैयारी कर चुके थे.
हमारे मित्र ने पूछा आप बतायें मुकेश चंदरपुरी या उनके साथ मारे गये वैज्ञानिक के अपराध क्या थे? क्यों पांच बेहतर मस्तिष्क के इंसान (क्रियटिव ब्रेन) अस्पतालों में मौत-जीवन के बीच झूल रहे हैं? इनकी क्या भूलें हैं? इनके परिवारों पर जो गुजरेगा, उसका दायित्व किस पर है? क्यों मुकेश चंदरपुरी के शव लाने में भी जिल्लतें झेलनी पड़ीं, जबकि उसी दिन लालू प्रसाद जी की विशेष रेल यात्रा में कुछ विलंब हुआ, तो अनेक रेल अफसर-कर्मचारी सस्पेंड हो गये?
मेरे मित्र का सवाल था कि जब तक भारत राजनेताओं के भरोसे था, तब तक दुनया में वह सांप, साधुओं, बिच्छुओं, गरीबों और जादू-टोनेवालों के देश के रूप में मशहूर था. अब वैज्ञानिकों, नयी पीढ़ी के आइटी प्रोफेशनलों और प्रबंधन विशेषज्ञों के कारण भारत का उदय हो रहा है. इन्हीं के कारण दुनिया में भारत के महाशक्ति बनने की चर्चा हो रही है.
भारत अपनी राजनीतिक संस्थाओं, विधायिका या संसद के कारण दुनिया के आकर्षण का केंद्र नहीं बना, बल्कि हमारे वैज्ञानिकों, विद्वानों प्रोफेशनल्स और युवाओं के कौशल और धाक-धमक से चमकता नजर आ रहा है. और भारत को शिखर पर ले जानेवाले ऐसे लोगों के प्रति हमारे शासक कितने कृतज्ञ या कृतघ्न हैं?
मित्र गुस्से में थे, उनके सवालों की झड़ी में अगला प्रश्न था कि आप पत्रकार-मानवाधिकारवादी ऐसे आतंकवादियों के संदर्भ में भी मानवाधिकार के सवाल उठाते हैं? संयोग से पुलिस चौकस रहती और आतंकवादियों के साथ-साथ कोई अनजान व्यक्ति (भले ही वह आतंकवादियों से मिला होता) मारा गया होता, तो आप मीडियावाले, आसमान सिर पर उठा लेते? ब्रिटेन और अमेरिका की बात छोड़िए, चीन में इस तरह कोई उनके सेंटर ऑफ एक्सेलेंस पर हमला करके देख लें, क्या होगा?
यह सवाल भी सामने आया कि जब पहले से यह सूचना थी कि आतंकवादी भारत की प्रतिभाएं नष्ट करना चाहते हैं. भारतीय टैलेंट-जीनियस, उनकी निगाह में हैं, तो क्या चौकसी बरती गयी? बमुश्किल पांच दिनों पहले गिरफ्तार तीन आतंकवादियों ने पुलिस को जानकारी दी थी कि हैदराबाद-बेंगलूर में हमले होंगे. यह सूचना भी थी कि बेंगलूर में सॉफ्टवेयर केंद्र निशाने पर हैं.
फिर वहां क्या तैयारी थी? आइआइएस में उस दिन तीन दर्जन विदेशी वैज्ञानिक थे. दो सौ विशिष्ट भारतीय थे, इनकी सुरक्षा के क्या बंदोबस्त थे, जबकि सरकार के पास सूचनाएं थीं. घायलों में छोटा कंप्यूटर बनानेवाले वैज्ञानिक विजय चंद्रा भी हैं.
क्या ऐसे लोगों का जीवन महत्वपूर्ण है या कब्रगाह में पैर डाले या देश लूटनेवाले नेताओं की सुरक्षा जरूरी है? हमारे मित्र ने पूछा, बेंगलूर का महत्व आप जानते हैं? आपको मालूम है कि चीन के प्रधानमंत्री या पार्टी सचिव, अमेरिका, सिंगापुर से लेकर दुनिया की महाहस्तियां, भारत में पहले बेंगलूर या हैदराबाद या चेन्नई क्यों जाती हैं?क्यों दुनिया के सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक-फ्यूचरोलानिस्ट्स प्रबंधन विशेषज्ञ और शासक दिल्ली नहीं आते, उधर ही जाते हैं? दुनिया के मशहूर पत्रकार शामत एल फ्रीडमैन ने बेंगलूर को केंद्र में ही रख कर विश्वचर्चित पुस्तक ‘द वर्ल्ड इज फ्लैट’ लिखी है? मित्र खुद बताते हैं.
अमेरिका के सिलिकान वैली का भारतीय पर्याय है, बेंगलूर. दुनिया में अब बेंगलूर ‘पूरब के सिलिकान वैली’ के रूप में जाना जाता है. उस पर हमले का तात्पर्य है, हमारे गौरव, कीर्ति और श्रेष्ठता पर प्रहार. और हमारे शासकों का रिस्पांस, रवैया और व्यवहार, इस पर आप लोग सवाल नहीं खड़ा करते?
सवाल यहीं नहीं खत्म हुए. मित्र बेंगलूर के इस हमले से निकल कर देश के अन्य हिस्सों में पहुंच गये. पूछा, आपको पता है कि 1989 से दिसंबर 2004 तक 13500 नागरिक आतंकवादी हमले में सिर्फ जम्मू-कश्मीर में मारे गये हैं? और पांच हजार तीन सौ सुरक्षाकर्मी भी जान खो चुके हैं.
लगभग 19 हजार लोगों की मौत हुई और इसी अवधि में महज 62 लोगों को आतंकवादी होने के कारण जम्मू-कश्मीर में सजा हुई? क्या यह न्याय है? पिछले बीस वर्षों में आतंकवादी हमलों से जुड़ी घटनाओं में 64000 लोग मारे गये हैं? इसके लिए कितने लोगों को सजा हुई है?
यह पहली बार हुआ कि सवालों के बौछार हो रहे थे और तत्काल उत्तर नहीं मिले. चूंकि ये सवाल मामूली नहीं हैं और समाज से जुड़े हैं, इसलिए पाठकों की अदालतों में इन सवालों के उत्तर हममें से हरेक को ढूंढ़ना है, शासक ही ढूंढेंगे.

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