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जेल में नवरात्रि का उपवास करेंगे लालू

रांची: चारा घोटाले में होटवार स्थित बिरसा मुंडा केंद्रीय कारा में बंद लालू प्रसाद इस बार जेल में ही नवरात्रा मनायेंगे. इस दौरान वह उपवास भी रखेंगे. जेल में वह कैदियों को राजनीति शास्त्र पढ़ायेंगे. कैदियों को पढ़ाने के बदले उन्हें हर दिन 25 रुपये मिलेंगे. जेल अधीक्षक वीरेंद्र सिंह ने बताया, लालू प्रसाद को […]

रांची: चारा घोटाले में होटवार स्थित बिरसा मुंडा केंद्रीय कारा में बंद लालू प्रसाद इस बार जेल में ही नवरात्रा मनायेंगे. इस दौरान वह उपवास भी रखेंगे. जेल में वह कैदियों को राजनीति शास्त्र पढ़ायेंगे.

कैदियों को पढ़ाने के बदले उन्हें हर दिन 25 रुपये मिलेंगे. जेल अधीक्षक वीरेंद्र सिंह ने बताया, लालू प्रसाद को कैदियों को पढ़ाने- लिखाने का काम सौंप गया है. कैदियों को उनके काम के बदले मजदूरी के रूप में प्रतिदिन 25 रुपये दिये जाते हैं. लालू प्रसाद को मिलनेवाले रुपये को जमा करने के लिए उनके नाम पर बैंक एकाउंट भी खुलवाया जायेगा. वह जमा पैसे को खर्च कर सकते हैं. खर्च नहीं करने की स्थिति में जेल से निकलने पर पूरी रकम जोड़ कर उन्हें दे दी जायेगी.

नवरात्रा करेंगे, उपवास रखेंगे

समर्थक भेजेंगे पूजा का सामान : विधायक जनार्दन पासवान लालू से मिलने शाम चार बजे केंद्रीय कारा पहुंचे. उन्होंने बताया, लालू प्रसाद को जेल में जो काम सौंपा गया है, उससे दूसरे कैदियों को लाभ होगा. नवरात्रा में लालू पूजा- पाठ करते हैं. इस बार उन्हें जेल के अंदर ही नवरात्रा करने का निर्णय लिया है. उपवास भी रखेंगे. जेल प्रशासन और उनके समर्थकों ने लालू प्रसाद को पूजा के दौरान हर संभव वस्तु उपलब्ध कराने का आश्वासन दिया है.

तेजस्वी व लालू के बीच डेढ़ घंटे बातचीत

होटवार स्थित बिरसा मुंडा केंद्रीय कारा में चारा घोटाले मामले में सजा काट रहे बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद से शुक्रवार को अपराह्न् 3.30 बजे उनके पुत्र तेजस्वी मिले. दोनों के बीच करीब डेढ़ घंटे बातचीत हुई. इसके पूर्व पुत्र तेज प्रताप भी लालू से मिलने पहुंचे. इनके बीच बिहार की राजनीतिक स्थिति और घर के बारे में बातचीत हुई. जेल सूत्रों के मुताबिक, पुत्रों से मुलाकात और बातचीत के दौरान लालू काफी परेशान दिखे. हालांकि, लालू किस बात को लेकर परेशान थे, खुलासा नहीं हो सका. लालू प्रसाद से शुक्रवार को मिलनेवालों में मंत्री सुरेश पासवान, गया के पूर्व सांसद रामजी मांझी, बेला के विधायक सुरेंद्र यादव, अब्दुल गफ्फूर आदि शामिल थे.

तेजस्वी यादव गये पटना : तेजस्वी यादव शुक्रवार को एयर इंडिया के विमान से पटना गये. तेजस्वी यादव ने पत्रकारों द्वारा पूछे गये किसी भी सवाल कर जवाब नहीं दिया.

लालू से नहीं मिल पाया शौकत

बिहार के ब्रह्नापुर से पहुंचा मो शौकत अली शुक्रवार को लालू यादव से नहीं मिल सका. शौकत अली ने कहा, उसने चार बार आवेदन लालू प्रसाद के भिजवाया था, लेकिन हर बार आवेदन रद्द कर दिया गया. इससे वह काफी निराश है. अब उसने बिहार लौटने का निर्णय लिया है. उल्लेखनीय है कि चारा घोटाले मामले में गत गुरुवार को लालू प्रसाद को सजा मिलने की सूचना मिलते ही शौकत अली रोने लगा था. गुरुवार को भी उसकी मुलाकात लालू से नहीं हो पायी थी. इस कारण उसने अपनी रात रेलवे स्टेशन में गुजारी. शुक्रवार को वह दोबारा लालू से मिलने की उम्मीद पर होटवार जेल पहुंचा था.

जगन्नाथ मिश्र की स्थिति सुधरी

रांची: चारा घोटाला मामले में दोषी करार दिये जाने के बाद से ही रिम्स में भरती पूर्व मुख्यमंत्री डॉ जगन्नाथ मिश्र की स्थिति में सुधार दर्ज किया गया. उनका डायबिटीज सामान्य से थोड़ा अधिक है. जांच रिपोर्ट आने के बाद चिकित्सकों की सलाह पर डायबिटीज की दवा दी जा रही है. डॉ मिश्र को अब बुखार भी नहीं है. डॉ मिश्र का शुक्रवार को हेल्थ रिव्यू किया गया. ब्लड से संबंधित सभी जांच रिपोर्ट गुरुवार की रात को आयी, जिसमें सब कुछ सामान्य पाया गया.

दिन भर आराम किया : कॉटेज में शुक्रवार का दिन डॉ मिश्र के लिए आरामदायक दिन रहा. कोई राजनेता एवं वीआइपी मिलने नहीं आये. दवा एवं खाना खाने के बाद आराम किये. कुछ बेहद करीबी लोग ही डॉ मिश्र से मिले.

प्रभात खबर ने पहली बार उजागर किया था पशुपालन घोटाले को

भारत का पहला अखबार था ‘प्रभात खबर’ जिसने पशुपालन घोटाले के ‘किंगपिन’ श्यामबिहारी सिन्हा का नाम छापा था. तब, लोग कहां जानते थे कि इसी श्यामबिहारी सिन्हा के तार सीधा राज्य के मुख्यमंत्रियों से जुड़े होंगे. उस दस्तावेज की अंतिम किस्त छपी 03 जुलाई 1992 को.

किसलय पहले पत्रकार हैं, जिन्होंने 1992 में पशुपालन घोटाले पर सबसे प्रामाणिक रिपोर्टे लिखीं (देखें – प्रभात खबर, दिनांक 02.11.2003). तब वह प्रभात खबर से जुड़े थे. आज श्रेय लेने की पत्रकारिता की स्पर्धा है, पर किसलय अलग किस्म के पत्रकार हैं. उन्होंने कभी भी इस खबर को पहले-पहल सार्वजनिक करने का श्रेय नहीं लिया. तब सूचना के अधिकार का जमाना नहीं था, पर किसलय सरकारी दस्तावेज में लिखित प्रामाणिक तथ्य निकाल लाये. किश्तों में रिपोर्ट लिखी. पढ़िए दशकों बाद लिखे उनके अनुभव. कैसे छपी पशुपालन घोटाले पर पहली प्रामाणिक रिपोर्ट.

किसलय

पशुपालन घोटाला. दो दशकों से देश का सबसे चर्चित घोटाला. और, बहुप्रतीक्षित बड़ा फैसला आ गया. सजा भी सुना दी गयी. मुजरिम करार दिये गये दो दो पूर्व मुख्यमंत्री. देश भर के टीवी न्यूज चैनलों पर गहमा गहमी थी. इंटरव्यू, पैनल डिस्कशन, एक्सपर्ट्स व्यू, प्रतिक्रि याएं. लेकिन मुङो सबसे ज्यादा प्रभावित किया एक प्रादेशिक न्यूज चैनल पर चलायी जा रही रांची में राह चलते आमजन की प्रतिक्रि याओं ने. ‘मासूम’ सी प्रतिक्रि याएं! फिर भी कितनी सटीक जैसे आज के भारत के मर्म को छू रही थीं. अमूमन टीवी रिपोर्टर के सवाल पर लोग कहते मिलेंगे. फलां. वह तो चोर था. भ्रष्ट था. अच्छा हुआ यही नतीजा होना चाहिए था. उसे तो इससे भी बड़ी सजा मिलनी चाहिए थी..

सरकारी कार्रवाई भले ही 1996 में शुरू हुई, पशुपालन घोटाला का पर्दाफाश जून 1992में ही हो चुका था.

07 जुलाई 1992को विधानसभा में मामले को सामने लाकर सरकार को अवगत करा दिया था विधायक (स्वर्गीय) महेंद्र सिंह ने.

देश का पहला अखबार था प्रभात खबर जिसने 01 जुलाई 1992 को पशुपालन घोटाले के ‘किंगपिन’ डा श्यामिबहारी सिन्हा का नाम प्रकाशित किया था.

और, फिर तो देश भर के अखबारों को घोटाले को खुल कर सामने लाने का आधार मिल गया था.

पहली बार प्रभात खबर में छपा था ‘किंगपिन’ का नाम

कुछ इसी तरह से अभियुक्त को चिह्न्ति करते रिएक्शंस. लेकिन, यहां लोगों की जुबान पर न लालू आये न मिश्र और न सप्लायर न दागी अफसर. अधिकांश का बस इतना कहना था. इस फैसले ने कानून पर से उठते भरोसे को लौटाया है. उन आमलोगों को लालू, मिश्र से क्या वास्ता. बावजूद इसके,यह फैसला आम आदमी की बेचैनी को राहत दे रहा है. मुझेयाद आती है, तीन दशक पहले की घटना. तब शायद इसकी शुरुआत रही होगी. मैं नया-नया आया था, पत्रकारिता में. कोलकाता के ‘द टेलीग्राफ’ का फोटो जर्नलिस्ट था. रांची विश्वविद्यालय में छात्रों का आंदोलन चल रहा था. 17 फरवरी 1984 की दोपहर. रांची के शहीद चौक के पास पुलिस छात्रों को खदेड़ कर पीट रही थी. बिल्कुल अमानवीय तरीके से. मैं फोटोग्राफी कर रहा था.

अचानक मैं खुद को पंद्रह-बीस वर्दीवालों से घिरा पाया. उन्होंने डंडे से पीटना शुरू कर दिया. सिर फटा. मैं लहू-लुहान हो गया. लगभग अधमरा-सा. मेरी खता क्या थी? बाद में स्पष्ट हुआ कि पिछले कुछ दिनों से मैं यहां ‘एलिजाबेथ एक्का रेप’ कांड के खिलाफ मामले का कवरेज कर रहा था, यह उसी का खामियाजा था. पुलिस ने आदिवासी बालिका एलिजाबेथ के साथ गैंग रेप किया था. एलिजाबेथ ने मिट्टी तेल छिड़क कर आत्मदाह कर लिया. और, दोषी पुलिसवालों पर कुछ विभागीय कार्रवाई, कुछ का निलंबन, बस. (विस्तार से, कभी और.) मेरे सामने ‘सत्ता’ का वह पहला खौफनाक चेहरा था.

जिसे न कानून का भय था न जनता के विरोध की चिंता. तब मैं 23 साल का था. पेशा और उम्र दोनों ने मुङो प्रोत्साहित किया. एकीकृत बिहार के जमाने में छोटानागपुर का यह इलाका सत्तासीन दबंगों का ‘चरागाह’ माना जाता था. कहने को तो चौथा स्तंभ, यानी पत्रकारिता तब भी थी. मुद्दे भी छपते लेकिन प्रभावहीन. शासन में मौजूद दबंगों के सामने बेबस. वरना, वर्षो तक अबाध गति से चलता पशुपालन घोटाला 950 करोड़ का आकार कैसे ले सकता था. आज उन हालातों को याद करके इस घोटाले पर आया हालिया फैसला वाकई घटाटोप अंधेरे में काले बादलों को चीर कर निकले सूरज की एक छटा समान है.

सोमवार, 30 सितंबर 2013. इस दिन का इंतजार सारे देश को था. रांची में सीबीआइ की विशेष कोर्ट ने कांड संख्या आरसी 20ए/96 में फैसला सुनाया. चारा घोटाले के अभियुक्तों की लंबी सूची में से 45 लोग दोषी करार दिये गये. उनमें दो पूर्व मुख्यमंत्री भी शामिल हैं. जगन्नाथ मिश्र और राजद सुप्रीमो लालू यादव. कभी दबंग कहे जानेवाले राजद का कुनबा सबकुछ देखता रहा. नाते रिश्ते, कार्यकर्ता, विधायक, सांसद, मंत्री. सभी मौजूद थे. फिर भी, कोई विरोध, कोई शोर शराबा, कोई नारेबाजी नहीं. दरअसल, अब कोई भ्रम नहीं. सबकुछ शीशे की तरह साफ है.

याद कीजिए, इसी पशुपालन मामले में जब पहली बार लालू को जेल भेजने की बात आयी थी, तो बिहार पुलिस ने हाथ खड़े कर दिये थे. सीबीआइ ने केंद्र से सेना बुलाने तक की मांग कर दी थी. तब तक लालू के खिलाफ मामला दर्ज कर चार्जशीट फाइल हो चुकी थी. यह बात 1996 के बाद की है. अंदाजा लगाइए, उससे चार पांच साल पहले की फिजां का. जब बिहार में लालू सरकार पूरे ‘शबाब’ पर थी!. तब, झारखंड का यह इलाका भी बिहार का हिस्सा था, जहां इस घोटाले का साम्राज्य पसरा हुआ था. अखबारों में छन कर खबरें आती. इशारों-इशारों में कहने का चलन बन गया था. यह तो अंदाजा था कि कुछ गड़बड़झाला है! लेकिन कौन है उसके पीछे.? किसकी शह पर चल रहा है यह सब? कौन-कौन हिस्सेदार हैं? इसकी चर्चा अखबारी दफ्तरों में तो खुल कर होती, लेकिन उसे अखबार के पन्नों पर जनता के बीच कौन प्रकाशित करे?. और क्यों करे?. राष्ट्रीय अखबार खूब आते थे.

लेकिन, तब भी यही चलन था, स्थानीय खबरें गौण. रांची से गिने-चुने दो-तीन दैनिक अखबार छपते थे. लगभग सभी अस्तित्व के लिए संघर्षरत. ढाई साल पहले, डूबते ‘प्रभात खबर’ को किनारा देने की चुनौती के साथ तत्कालीन रविवार के वरिष्ठ पत्रकार और प्रभात खबर के वर्तमान प्रधान संपादक ने इसकी जिम्मेवारी ली थी. 1989 में अपने चार साथियों के साथ रांची आये.

मैं भी उनमें से एक था. इससे पहले, मैं एक साल से नागपुर में लोकमत समाचार के लिए काम कर रहा था. रविवार (कलकत्ता से प्रकाशित साप्ताहिक पत्रिका) में झारखंड से काम करते हुए 1986 में वहीं उनसे मेरा परिचय हुआ था. उसी समय से मैं उन्हें एक अग्रज शुभेच्छु के तौर पर देखता रहा. वे कई बार रांची आते. उस दौरान भी उनके साथ काम करने का मौका मिला. प्रभात खबर को नये तेवर से शुरू करने की बात आयी, तो मैंने उनके आमंत्रण को सहर्ष स्वीकार लिया.

तब, यह छोटानागपुर इलाका आर्थिक ही नहीं, प्रशासनिक और राजनीतिक तौर पर घोर उपेक्षा का शिकार था. कोई देखनेवाला, पूछनेवाला नहीं. भ्रष्टाचार तब भी जारी था. हां, सबकुछ शांतिपूर्वक. जैसे, सबकुछ सर्वसम्मत हो. बचपन से कॉलेज तक मेरी पढ़ाई, रांची के संत जॉन्स, संत जेवियर्स जैसे ईसाई संस्थानों में हुई. आदिवासी मित्रों की संख्या अधिक थी, अगुस्टिन केरकेट्टा, सिप्रियन एक्का, रेजी डुंगडुंग, निरल तिर्की .. शायद, उसी जमाने से छोटानागपुर (आज का ‘झारखंड’) की बदहाली की कसक पल रही थी जेहन में. अब समझता हूं कि शायद वही सब देख पत्रकारिता का पेशा मुङो आकर्षित करता रहा.. बहरहाल, संपादक चाहते थे, कुछ ऐसी पत्रकारिता हो जो जनसरोकार के दबे मुद्दों को उभारे. भ्रष्टाचार तब भी अहम मुद्दा था. लेकिन कठिनाई यह थी कि बर्रे के छत्ते में हाथ कौन डाले!.

1992, जून का महीना. मुङो पता चला कि यहां निगरानी विभाग हर साल दागी अफसरों की सूची बनाता है. पटना को भेजता है. करीब पंद्रह वर्षों से यह सिलसिला चल रहा था. लेकिन, नतीजा सिफर. न मुकदमे होते न कोई कार्रवाई. तब, रांची में निगरानी विभाग का प्रभारी डीएसपी रैंक का अधिकारी हुआ करता था. डोरंडा स्थित नेपाल हाउस में उसका दफ्तर था. एसपी पटना में बैठते थे.

इसी महीने रांची आनेवाले थे. मुख्य मकसद वही था, भ्रष्टाचार में लिप्त अधिकारियों की सूची तैयार करना. विभागीय सूत्रों से खबर लगी कि एसपी साब आ गये हैं. सूची बन गयी है. बस वे हस्ताक्षर कर दें तो दस्तावेज पुख्ता हो जायेगा. और सुबह सुबह, मेरे सूत्र ने बताया, एसपी ने हस्ताक्षर कर दिया. आज रात रांची में ठहरेंगे और कल सुबह पटना के लिए रवाना हो जायेंगे. लेकिन, उस दस्तावेज को हासिल कैसे किया जाये? अति गोपनीय. वह भी, निगरानी विभाग के एसपी की व्यक्तिगत सुरक्षा में!

मेरा सूत्र एक चतुर्थवर्गीय कर्मचारी था. लगातार एक पखवारे से योजना बना रहे थे. लेकिन, अंतिम दिन तक कुछ सूझा नहीं. इधर, बेचैनी बढ़ती जा रही थी. कल सुबह एसपी साहब सारे कागजात लेकर पटना लौट जायेंगे. क्या पखवारे भर की भाग दौड़, माथापच्ची धरी की धरी रह जायेगी?. लेकिन, पत्रकारिता का जुनून इसे बर्दाश्त नहीं कर पाया. चाहे नतीजा कितना भी भयावह हो, इरादा कितना भी खतरनाक हो, हौसला यह था कि यह सब मैं व्यक्तिगत हित के लिए नहीं, यहां के ‘करोड़ों बदहाल परिवारों के हक’ के लिए कर रहा हूं. .और वह रात. सफल हुई. 155 भ्रष्ट अफसरों की कारगुजारियों के मुकम्मल दस्तावेज की एक प्रति मेरे पास थी!

रात में करीब बारह बजे मैं अपने घर लौटा. पत्नी रेवा और तीन साल की नन्ही बेटी केलि खिड़की पर मेरे इंतजार में बैठे हुए थे. तब मैं लोअर वर्दमान कंपाउंड में एक छोटे से पुराने मकान में रहता था. बरामदे में अपनी बुलेट (मोटरबाइक) लगायी. और घर में घुसते-घुसते सारी कहानी पत्नी को सुना डाला. पहले तो वह भी थोड़ा घबरायी. लेकिन, तुरंत हौसला दिया. रात दो ढाई बजे तक इसी विषय पर दोनों बात करते रहे. सुबह हुई. दस बजते ही मैं दफ्तर पहुंच गया. बस एक ही चिंता खाये जा रही थी, कहीं संपादक जी ने छापने से इनकार कर दिया तो.! संपादक अपने कमरे में आये. और मैं उनके पास पहुंच गया. कागजात देख कर एकबारगी वह चौंक पड़े. कई तरह के भाव उनके चेहरे पर दौड़ रहे थे. आखिर, संपादक की जिम्मेवारी काफी बड़ी होती है. उनके दो चार सवाल?. और फिर उन्होंने फैसला कर लिया. हम इसे किस्तों में छापेंगे, आज से ही!

कुल 155 दागी अधिकारियों की सूची थी. आइएएस, आइएफएस से लेकर डॉक्टर, इंजीनियर तक. पहली किस्त प्रभात खबर के 30 जून 1992 के अंक में छपी. प्रभात खबर के दफ्तर में फोन आने लगे. वहां से नंबर लेकर कुछ फोन कॉल मुङो भी मिलने लगे. आम आदमी की रुचि थी कि अगली किस्त में और कौन-कौन? और उन ‘खास’ लोगों का भय था कहीं उनका नाम तो नहीं.?!. अधिकांश फोन बधाई के थे. कुछ चिंताजनक भी. कुछ बड़े प्रलोभनों वाले थे तो कुछ धमकियों भरे. कुछ कॉल ऐसी भी थीं, जो अच्छे-अच्छों की नींद उड़ा दें. इनमें, दागियों के गुर्गों से लेकर निगरानी के अधिकारी (एसपी भी) तक शामिल थे. चेतावनी थी, अगली किस्त नहीं छपनी चाहिए! लेकिन जब मकसद निश्छल हो तो इरादा चट्टान होता है! दूसरे दिन, जब दूसरी किस्त छपी. पशुपालन विभाग के डा श्यामबिहारी सिन्हा का नाम शीर्ष पर था. 50 करोड़ के घोटाले का आरोप. भारत का पहला अखबार था प्रभात खबर जिसने पशुपालन घोटाले के ‘किंगपिन’ श्यामबिहारी सिन्हा का नाम छापा था. तब, लोग कहां जानते थे कि इसी श्यामबिहारी सिन्हा के तार सीधा राज्य के मुख्यमंत्रियों से जुड़े होंगे. उस दस्तावेज की अंतिम किस्त छपी 3 जुलाई 1992 को. और, छोटानागपुर के लगभग सारे सरकारी विभागों के 155 भ्रष्ट अधिकारियों की सूची जनता के बीच पहुंच चुकी थी. इस दौरान मुङो मानसिक यंत्रणाओं से गुजरना पड़ा. दरअसल, हमने वरिष्ठों से सुना है, ये तो ‘प्रोफेशनल हेजार्डस’ हैं. और मैं आज भी इस उक्ति में विश्वास करता हूं! बहरहाल, इस पूरे प्रकरण में हमें एक व्यक्ति हमेशा याद आता है, जिसकी चर्चा यहां अनिवार्य है. कहा जा रहा है कि पहली बार 1996 में सरकार को पशुपालन घोटाले का भान हुआ, जब चाईबासा के उपायुक्त अमित खरे द्वारा वहां के ट्रेजरी और संबंधित विभागों पर छापामारी करवायी गयी. लेकिन, पूरा सच यह है कि 1992 में बिहार विधानसभा के सदस्य महेंद्र सिंह ने खुले सदन में प्रभात खबर की उस किस्तवार रिपोर्ट को प्रस्तुत करते हुए सरकार को आईना दिखा दिया था. ये वही गरीबों, दबे कुचलों के मसीहा महेंद्र सिंह थे, जिनकी चंद वर्ष पहले हत्या कर दी गयी. तब महेंद्र सिंह आइपीएफ (इंडियन पीपुल्स फ्रंट) विधायक के रूप में बिहार विधानसभा के सदस्य थे. भ्रष्ट अधिकारियों की वह सूची प्रकाशित होते ही 07 जुलाई 1992 को आइपीएफ ने विधानसभा में प्रभात खबर की उन प्रतियों को लहराते हुए जबरदस्त हंगामा किया, और बायकॉट किया. महेंद्र सिंह नेतृत्व कर रहे थे. स्वर्गीय महेंद्र सिंह के उस प्रयास का सरकार पर क्या असर हुआ यह बताया नहीं जा सकता. हां, वह घटना बिहार विस की कार्यवाहियों में अवश्य दर्ज होगी. जिसे शायद आनेवाला भविष्य स्वयं उजागर करे.

बहरहाल, पिछले दो दशक से कोर्ट के फैसले को लेकर संशय और राजनीतिक भंवरजाल में डूबते उतराते देश में अबतक का सर्वाधिक चर्चित ‘पशुपालन घोटाला’ में दो मुख्यमंत्रियों (पूर्व) को मुजरिम करार दिये जाने के बाद एक मुकम्मल मुकाम पर पहुंच चुका है. इसके लिए अमित खरे जैसे निष्ठावान अधिकारी, सीबीआइ व अन्य जांच एजेंसियों के कर्तव्यनिष्ठ अफसर व भारतीय न्यायपालिका की गरिमा को अक्षुण्ण रखने को प्रयासरत न्यायाधीशों की सीरीज बधाई और धन्यवाद की पात्र है. इस पूरे प्रकरण में प्रभात खबर के प्रधान संपादक की भूमिका को रेखांकित किये बिना यह आलेख पूरा नहीं होता. प्रतिक्रि या के लिए मैंने उनके कार्यालय में संपर्ककिया. 30 सितंबर को पशुपालन घोटाले के इस अहम फैसले के बाद देश भर के मीडिया चैनल भी उनसे प्रतिक्रिया और इस मुद्दे पर आयोजित चर्चा के पैनलिस्ट में शामिल करने के लिए उनकी तलाश कर रहे थे. फोन पर ही संक्षिप्त बातचीत में उन्होंने कहा, मुङो जो करना था किया, नतीजा क्या आया इसमें मेरी बहुत रुचि नहीं है!

उनकी यह संक्षिप्त प्रतिक्रि या उनके भव्य व्यक्तित्व को ही उजागर करती है, और शायद इसी के बूते प्रभात खबर आज भारत के मीडिया वल्र्ड में डिक्टेटिंग स्टेटस रखता है. लेकिन 20 वर्षों पहले. प्रभात खबर अखबारी जगत में पांव जमाने की जद्दोजेहद कर रहा था. तब इसे भी भान नहीं था कि दागी अफसरों की वह सूची 950 करोड़ का फोडर स्कैम साबित होगी. इसके उलट, धुरंधर पावरफुल अधिकारियों का बदनुमा चेहरा जनता के बीच लाकर एक बड़ा दुश्मन समूह खड़ा करने की कुव्वत कितने अखबारों और कितने संपादकों में होती है! मुङो यह कहते हुए कोई संकोच नहीं कि प्रभात खबर ने जिस निर्णय के साथ भ्रष्टाचारियों की उस सूची को जनता में प्रकाशित किया उसी का नतीजा रहा कि देश भर के अखबार मीडिया को इस पशुपालन घोटाले के खिलाफ आवाज उठाने का ठोस आधार मिल गया. प्रभात खबर के प्रधान संपादक को साधुवाद!

और अंत में.

यह पशुपालन घोटाला किस मुकाम पर पहुंचा, आगे क्या हश्र होगा? इसके मुजरिमों पर ऊपरी कोर्ट का फैसला क्या आता है? ये सवाल आज की तारीख में उतना महत्व नहीं रखते, जितनी यह बात शुकून देनेवाली है कि इस हालिया फैसले से हमारे देश के कानून पर आमलोगों की आस्था लौटी है.

(लेखक वर्तमान में रांची से प्रकाशित साप्ताहिक समाचारपत्र ‘न्यूज विंग’ के संपादक हैं.)

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