II बेंगलुरु से अजय कुमार II
कर्नाटक विस चुनाव में एक ओर जहां भाजपा का राष्ट्रवाद और हिंदुत्व है, तो दूसरी ओर कर्नाटक अस्मिता व हिंदी विरोध का एजेंडा. मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने दो कदम आगे बढ़कर कन्नड़ पहचान के प्रश्न को मुखर बना दिया है.
जाहिर है सरकार के कदम ने उत्तर भारतीयों में नये सिरे से विमर्श को पैदा कर दिया है. किसी दौर में दक्षिण भारत में हिंदी के खिलाफ जबर्दस्त आंदोलन चला था. क्या अब भी वैसा संभव है? इस सवाल का जवाब टैक्सी ड्राइवर रघु गौड़ा देते हैं: ना जी. हम तो हिंदी सिनेमा देखते हैं और एफएम पर गाने सुनते हैं. झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में. टैक्सी में रेडियो से गाना बज रहा है. रघु बेंगलुरु के बाहरी इलाके में रहते हैं. उनका कहना है कि सरकार को जो करना चाहिए, वह कर नहीं रही है. घर जानेवाली सड़क अब तक नहीं बनी है. दो बच्चों को वह प्राइवेट स्कूल में पढ़ाते हैं. सरकारी स्कूल में क्यों नहीं भेजते? रघु कहते हैं, वहां पढ़ाई ठीक नहीं होती. बहरहाल, मुख्यमंत्री सिद्धारमैया भाजपा के हिंदुत्व कार्ड का जवाब कर्नाटक अस्मिता के कार्ड से दे रहे हैं.
उन्होंने कर्नाटक के तीन रंगोंवाला झंडा जारी किया है. सरकार ने केंद्र के पास उसकी मंजूरी को भेजा है. अगर झंडे को स्वीकृति मिलती है, तो जम्मू-कश्मीर के बाद कर्नाटक दूसरा राज्य होगा जिसका अपना झंडा होगा.
कर्नाटक की सत्ता बचाने की जद्दोजहद कर रही कांग्रेस क्षेत्रीय पहचान, संघीय संरचना और कन्नड़ अस्मिता को लेकर सामने आ रही है. लेकिन भाजपा का कहना है कि सिद्धारमैया के कदमों से अब कोई फायदा नहीं होने वाला. पार्टी से जुड़े के रमेश कहते हैं: कांग्रेस की चाल सभी समझ रहे हैं. सिद्धारमैया अपनी सरकार की नाकामियों को छुपाने के लिए ऐसे गैरजरूरी मुद्दों को हवा दे रहे हैं.
कर्नाटक निगरानी समिति बना कर राजनीति में उतरे सिद्धारमैया
अस्सी के दशक में सिद्धारमैया ने कर्नाटक निगरानी समिति नामक संगठन बनाकर राजनीति शुरू की थी. अब वह खुद को कर्नाटक गौरव का प्रतीक होने का दावा कर रहे हैं. उनका कहना है कि सातवीं शताब्दी में जिस तरह उत्तर भारत के शासक हर्षवर्द्धन के विस्तार को दक्षिण के चालुक्य राजा ने रोका था, अब भाजपा के रथ को हम रोकेंगे.
विस चुनाव शुरू के ठीक पहले सरकार ने हिंदी प्रयोग के बारे में भी सर्कुलर जारी किया था. कर्नाटक में बैंकों, रेलवे की भर्तियों में हिंदी के किसी भी स्तर पर प्रयोग की जरूरत नहीं है. कांग्रेस समर्थक यहां तक कह रहे हैं कि केंद्र को भर्तियों में कन्नड़ को वैकल्पिक भाषा के तौर पर शामिल करना चाहिए.
यही नहीं, सरकार ने सांस्कृतिक नीति को मंजूरी दी है ताकि भाषा व संस्कृति का उत्थान किया जा सके. कांग्रेस जिस तरह कर्नाटक पहचान को मुद्दा बना रही है, उसने उत्तर भारतीयों में संशय है. हालांकि हिंदी विरोध के स्टैंड का कोई असर शहरी इलाके में नहीं दिख रहा है.