वोटर के दबाव, चुनाव आयोग की पहल और अदालतों के हस्तक्षेप से हमारी व्यवस्था काफी हद तक सुधरी भी है. बड़े-बड़े कटआउटों, बूथ कैप्चरिंग और खुलेआम जातीय, साम्प्रदायिक नारों पर एक हद तक रोक लगी है.
इन पंक्तियों के छपने तक चुनाव के चार दौर पूरे हो चुके हैं. कुल 110 यानी बीस फीसदी से ज्यादा सीटों का फैसला देश का वोटर कर चुका है. इस बार के चुनाव को देश के लिए युगांतरकारी माना जा रहा है. इस उम्मीद से कि इस बार युवा वोटरों की काफी बड़ी तादाद है. माना जा रहा है कि देश की बेशर्म राजनीति को जनता कुछ करारे तमाचे लगाना चाहती है. बावजूद इस उम्मीद के मतदान के दो-एक रोज पहले से कुछ ऐसी प्रवृत्तियों ने सिर उठाया है जो शर्मसार करती हैं. राजनीतिक दल सामाजिक ध्रुवीकरण के अभियान में जुट गए हैं. खासतौर से पश्चिमी उत्तर प्रदेश से कुछ ऐसे वक्तव्य आए हैं जो घटिया और फूहड़ हैं. अनावश्यक रूप से देश की सेना को भी इसमें घसीट लिया गया.
दूसरी ओर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कुछ अधिकारियों के तबादलों को लेकर चुनाव आयोग के निर्देश को चुनौती देकर असमंजस की स्थिति पैदा कर दी. इस प्रकार के हालात में यह सोचने का समय आ गया है कि क्या चुनाव आयोग की भूमिका को और ज्यादा प्रभावशाली बनाने की जरूरत नहीं है? बेशक ममता बनर्जी ने अंतत: आयोग की सलाह को माना, पर उन्होंने पूरी बात को राजनीतिक रंग देने की कोशिश भी की. यह उचित नहीं था. और प्रकारांतर से यह आयोग को कमजोर बनाने की कोशिश है. इसी तरह समाजिक जीवन में जहर घोलने वाले वक्तव्य निरंतर हवा में हैं और चुनाव आयोग खुद को असहाय पाता है.
चुनाव का तीसरा पहलू काले धन की वह विशाल गठरी है, जो ज्यादातर पार्टियों ने खोल दी है. सरकार ने आयोग की सलाह पर प्रत्याशियों के खर्च की सीमा बढ़ा दी है, पर इससे कोई बड़ा फर्क पड़ने वाला नहीं. काले धन का इस्तेमाल करने वाले प्रत्याशियों के पास आज भी तमाम रास्ते हैं. पर सबसे खुली छूट तो पार्टियों को मिली हुई है, जिनके खर्च की कोई सीमा नहीं है. और जिनके चंदा लेने की व्यवस्था काले पदरें से ढकी हुई है. कांग्रेस के नेता आनंद शर्मा ने भाजपा पर दस हजार करोड़ के खर्च का आरोप लगाया है. यह आरोप सच हो भी तो कोई क्या कर लेगा? क्या कांग्रेस ऐसा दावा कर सकती है कि वह काले धन का इस्तेमाल नहीं करती? वस्तुत: हमारा कानून उन्हें इसकी छूट देता है. और जब तक पार्टियों के हिसाब की किताब खोली नहीं जाएगी, ऐसा होता रहेगा. इस अर्थ में भारतीय चुनाव अपने साथ काले धन की समानांतर व्यवस्था को बेरोक-टोक लेकर चलता है. चुनाव आयोग एक सीमा तक कोशिश करता भी है, जिसके कारण हर चुनाव में करोड़ों की नकदी जब्त होती है. पर सच यह है कि इसकी कई गुना नकदी चुनाव में खर्च हो जाती है.
लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए एक प्रत्याशी कई करोड़ रुपए तक खर्च करता है. सामाजिक सेवा का ऐसा कौन सा सुफल है, जिसे हासिल करने के लिए वह करोड़ों का दावं लगाता है? कल को जीतकर इसी जन-प्रतिनिधि को चुनाव सुधार से जुड़े कानून बनाने हैं. व्यवस्था के छिद्रों को बंद करने की जिम्मेदारी उसकी है, पर वह इसे बंद क्यों करेगा? वोटर के दबाव, चुनाव आयोग की पहल और अदालतों के हस्तक्षेप से हमारी व्यवस्था काफी हद तक सुधरी भी है. बड़े-बड़े कटआउटों, बूथ कैप्चरिंग और खुलेआम जातीय, साम्प्रदायिक नारों पर एक हद तक रोक लगी है. इस बार चुनाव आयोग ने ऐसी घोषणाओं पर अंकुश लगाने की कोशिश भी की है, जिन्हें पूरा करना मुश्किल हो. चुनाव आयोग की कोशिशों से चीजें काफी हद तक सुधरी हैं, पर आयोग की भी सीमा है. उसके पास सजा देने, सदस्यता रद्द करने और पार्टियों के खर्च का विवरण लेने के अधिकार भी होने चाहिए. प्रत्याशियों के हलफनामे तक तो मामला ठीक है, पर क्या सभी हलफनामों से पूरी सूचनाएं हैं, इसे जांचने की व्यवस्था नहीं है. पिछले साल छह राष्ट्रीय दलों के हिसाब-किताब को जानकारी पाने के अधिकार के तहत लाने के प्रयास का सबसे ज्यादा विरोध राजनीतिक दलों ने किया.
लोकतंत्र निरंतर विकसित होती व्यवस्था है. आज के सबक कल के फैसलों में मददगार होंगे. राजनीतिक शब्दावली से तमाम शब्दों को हमेशा के लिए निकाल फेंकने की जरूरत है. यह काम आपके दबाव से ही पूरा होगा. राजनीति इसे लेकर बेफिक्र है. हमने जन-लोकपाल आंदोलन के सहारे एक नई राजनीति देखी है. लगभग इसी किस्म की राजनीति चुनाव सुधार के लिए भी खड़ी होनी चाहिए. इसके लिए चुनाव आयोग को सरकारी गिरफ्त से बाहर लाना होगा. सन 2009 के चुनावों के ठीक पहले मुख्य चुनाव आयुक्त एन गोपालास्वामी ने एक चुनाव आयुक्त नवीन चावला को हटाने की सलाह दी थी. उस वक्त चुनाव आयोग की नियुक्तियों को लेकर बहस छिड़ी थी जो अभी तक जारी है.
अब जब हम लोकपाल की नियुक्ति की प्रक्रि या चला रहे हैं तब चुनाव आयोग की नियुक्तियों पर भी बात होनी चाहिए. 2006 में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त बीबी टंडन ने राष्ट्रपति एपीजे अबुल कलाम को सुझाव दिया था कि चुनाव आयोग की नियुक्ति के लिए सात सदस्यों की कमेटी बनानी चाहिए जिसमें प्रधानमंत्री के अलावा लोकसभा अध्यक्ष, राज्यसभा उप सभापति, लोक सभा और राज्यसभा में नेता विपक्ष, विधि मंत्री और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्याधीश की संस्तुति से नियुक्त एक न्यायाधीश हों. यह मामला अभी विमर्श का विषय है. विधि आयोग भी चुनाव सुधार से जुड़े प्रश्नों पर विचार कर रहा है. क्यों न नई संसद से कहा जाए कि वह सबसे पहले चुनाव सुधार के काम को तेज करे. फिलहाल चुनाव आयोग के हाथों को मजबूत बनाने की कोशिश होनी चाहिए और उससे अनुरोध किया जाना चाहिए कि वह अपनी सीमा के भीतर सख्त से सख्त
कदम उठाए.
प्रमोद जोशी