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रांची में भी सक्रिय हैं सांप्रदायिक तत्व

प्रचलित मानदंडों के तहत घटना के बाद ही खबर बनती है. लेकिन किसी भी बड़ी घटना के पूर्व जो तनाव और दहशत का माहौल होता है, उससे निबटना मामूली बात नहीं है. मेरठ में हुए दंगों के बाद रांची में जो विस्फोटक स्थिति बनी, उस पर स्थानीय प्रशासन ने किस तरह काबू पाया, यह गौरतलब […]

प्रचलित मानदंडों के तहत घटना के बाद ही खबर बनती है. लेकिन किसी भी बड़ी घटना के पूर्व जो तनाव और दहशत का माहौल होता है, उससे निबटना मामूली बात नहीं है. मेरठ में हुए दंगों के बाद रांची में जो विस्फोटक स्थिति बनी, उस पर स्थानीय प्रशासन ने किस तरह काबू पाया, यह गौरतलब है. हालांकि कुछ शरारती तत्व बराबर सांप्रदायिक आग को हवा देने में लगे हैं. रांची घूमने के बाद रिपोर्ट. तसवीरें ली हैं किसलय ने.


हाल ही में दशकों बाद रांची की सड़कों पर फिर सांप्रदायिक नारे गूंज रहे थे. ‘रांची मेरठ नहीं है’ की आवाज शहर की गलियों में भी सुनाई दे रही थी. सांप्रदायिक तत्व यहां दोबारा 1967 दोहराने की पूरी पृष्ठभूमि बना चुके थे. लेकिन स्थानीय प्रशासन की चौकसी और तत्काल कार्रवाई से यहां भयानक दंगा होते-होते बचा.

शुरुआत एक मामूली वारदात से हुई. दो शातिर अपराधी चर्च रोड की एक दुकान पर रंगदारी वसूलने पहुंचे. दोनों अपराधी एक खास समुदाय के थे और दुकानदार दूसरे समुदाय का. सांप्रदायिक तत्वों और धर्म के ठेकेदारों के लिए तो यह मनोवांछित स्थिति थी. इस विवाद को इस रूप से प्रस्तुत किया गया, मानो यह दो समुदायों के बीच प्रतिष्ठा और अस्तित्व का सवाल हो. दोनों तरफ धार्मिक उन्माद की स्थिति पैदा की गयी. ‘धर्म और अस्तित्व खतरे में है’ के नारे से लोगों के विवेक पर परदा डाला गया. मानसिक रूप से तनाव और असुरक्षा की भावना पैदा की गयी. दोनों समुदायों के अंधे और कट्टरपंथी तत्व घूम-घूम कर उत्तेजक भाषण देने लगे.

वैसे भी रांची में पिछले कुछ वर्षों से शरारती तत्व सक्रिय हैं. मेरठ, बुलंदशहर और लोहरदगा में हुई सांप्रदायिक घटनाओं की अफवाहें यहां बढ़ा-चढ़ा कर फैलायी जाती रहीं. उर्दू अखबारों में अतिरंजनापूर्ण बातें छपीं. पिछले माह रांची से सटे लोहरदगा जिले में दंगे हुए थे. इसमें दो लोग मरे भी. पिछले साल भी लोहरदगा में जमीन के सवाल पर ऐसी घटना हुई थी. रांची और लोहरदगा के गांवों में मुसलमान काफी मशक्कत करनेवाले किसान हैं. आदिवासियों से उनकी स्थिति बेहतर है. अधिकांश मुसलमान आदिवासियों की जमीन ही जोतते-बोते हैं.

‘छोटानागपुर टेनेंसी ऐक्ट’ के तहत आदिवासियों ने अपनी जमीन वापस लेने की मांग की, तो विवाद शुरू हुआ. इस कारण पिछले वर्ष यहां सांप्रदायिक हिंसा की नौबत आयी. यह पूर्ण रूप से कुछ मुसलमानों और आदिवासी परिवारों के बीच आर्थिक विवाद था, जिसे अवांछित तत्वों ने सांप्रदायिक बलवा का रूप दे दिया.


इस तरह रांची-लोहरदगा के गांवों में जो सांप्रदायिक तनाव की स्थिति बनी. उसे उत्पाती तत्वों ने विकृत अफवाह के रूप में रांची में फैलाया.ईद के दिन शाम पांच बजे रांची प्रशासन को यह सूचना मिली कि पूरे शहर में अफवाह फैली है कि बेड़ो थाने के इटकी और चान्हो में सांप्रदायिक दंगे हुए हैं. जानमाल की भारी क्षति हुई है. यह खबर आग की तरह फैली. प्रशासन के लाख जद्दोजेहद के बावजूद इस बेबुनियाद अफवाह फैलानेवाले का सुराग नहीं लगा. तत्काल दोनों समुदाय के लोग बुलाये गये. बातचीत से स्थिति स्पष्ट हुई.

प्रशासन ने दोनों समुदाय के सुलझे हुए लोगों का सहयोग लिया, इस तरह उस रात स्थिति सुधरी. रांची के गांवों में भी पुलिस गश्त तेज की गयी.30 मई को चर्च रोड स्थित अशोक कुमार वर्मा की दुकान पर एक अनजान व्यक्ति आया. उसने एक टब (पानी रखने का बरतन) की मांग की. दुकानदार ने कहा कि हमारे यहां टब नहीं है. वह व्यक्ति धमकी देकर गया और तीन-चार लोगों को लेकर लौटा. इन लोगों ने वर्मा से मारपीट की शुरुआत की. आसपास के सारे दुकानदार इकट्ठे हो गये, तो हमलावर भाग निकले, लेकिन उनमें से एक पकड़ा गया.

इस बीच गश्त लगाती पुलिस वहां पहुंच गयी थी. मारपीट होते देख पुलिस ने हस्तक्षेप किया. लोगों को अलग-अलग हटाया और उक्त व्यक्ति को पकड़ लिया.थोड़ी ही देर में शहर में अफवाह फैल गयी कि हिंदू-मुसलमान दंगे आरंभ हो गये हैं. दोनों समुदायों के बीच अलग-अलग अफवाह फैली. करबला चौक के मुसलमानों को यह सूचना मिली कि दो मुसलमान लड़कों को हिंदुओं ने मारा है. यह खबर सुन कर करीब एक हजार लोगों की क्रुद्ध भीड़ लोअर बाजार में थाने के सामने एकत्र हो गयी. प्राप्त सूचनाओं के अनुसार भीड़ में कुछ आग्नेय शस्त्रों से लैस लोग भी थे. यह भीड़ आक्रमक मुद्रा में थी. भीड़ ने थाने के भीतर घुसने का प्रयास किया.

लोअर बाजार थाने के निकट मुसलमानों की उत्तेजित भीड़ देख कर चर्च रोड के राम मंदिर के निकट 700-1000 हिंदू एकत्र हो गये. दोनों समुदायों की उत्तेजित भीड़ के बीच मात्र 300 गज का फासला था. घटना की सूचना मिलते ही रांची के उपायुक्त और वरीय आरक्षी अधीक्षक तत्काल वहां पहुंचे. प्रशासन ने मनोवैज्ञानिक ढंग से इस उत्तेजक और तनावपूर्ण स्थिति से निबटने का प्रयास किया. दोनों समुदाय के अगुआ बुलाये गये. उनसे बातचीत हुई. समझा-बुझा कर दोनों तरफ के लोग वापस भेजे गये.

इस बीच रांची के आसपास अफवाह फैली कि रांची में हिंदू-मुसलमान दंगे हो गये हैं. रांची के उपायुक्त और आरक्षी अधीक्षक ने तत्काल दोनों समुदाय के लोगों को रांची के आसपास इस अफवाह के खंडन के लिए भेजा. साथ ही साथ संवेदनशील स्थानों पर पुलिस गश्ती दल की चौकसी बढ़ा दी गयी. रात दो बजे स्थिति सुधरी.

31 मई को लोअर बाजार थाने में शांति समिति की बैठक हुई. इसमें तकरीबन दोनों पक्षों से 200 लोग शामिल हुए. इस बैठक में शामिल लोग इस मुद्दे पर एकमत थे कि दुकानदारों से रंगदारी वसूलनेवाले अपराधियों को सख्त सजा दी जाये. साथ ही वहां उपस्थित लोगों ने महसूस किया कि अपराधियों की करतूतों को सांप्रदायिक रंग देना बेजा है. इस बैठक के बाद जो दुकानदार दुकान बंद करके बैठे थे, वे दुकान खोलने पर राजी हो गये.

इस प्रकार की शांति बैठकें, हिंद पीढ़ी और डोरंडा में भी हुईं. इन बैठकों से स्थिति को सुधारने में मदद मिली. इन बैठकों के फलस्वरूप ही रांची के आसपास और जमशेदपुर जैसी संवेदनशील जगहों पर स्थिति तनावपूर्ण नहीं हुई.देश के बाकी शहरों की तरह यहां भी सांप्रदायिक सद्भाव के लिए गठित शांति समिति मृतप्राय थी. लेकिन जिला प्रशासन ने इसकी अहमियत को समझा और तत्काल इस विस्फोटक स्थिति पर काबू पाने के लिए शांति समिति की बैठकें आयोजित कीं. इसका सुखद परिणाम निकला कि इन बैठकों में दोनों समुदायों के सुलझे लोगों ने महसूस किया कि उन्हें मामूली बातों को तूल नहीं देना है.

राष्ट्रीय एकता और सांप्रदायिक सौहार्द के लिए सबको मिल कर काम करना है. रांची के एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार ऐसी बैठकों से दोनों समुदायों के लोगों को अपनी भड़ास निकालने और गिला-शिकवा दूर करने का अवसर मिला. इस तरह दोनों समुदायों के बीच खुल कर बातचीत हुई और स्थिति सामान्य हुई. देश के दूसरे हिस्सों में अगर ऐसे कारगर-प्रभावी प्रयास होते, तो शायद दंगों पर काबू पाने में प्रशासन को मदद मिलती.


पुन: 1 जून को शाम 7 बजे लोअर बाजार थाने के थाना प्रभारी विक्टर अंथोनी ने अफरोज नामक एक अपराधी को रंगेहाथ रंगदारी वसूलते हुए गिरफ्तार किया. बाद में कुछ गुंडों ने मिल कर पुलिस से उसे छुड़ा लिया. इस घटना के बाद सड़क पर भगदड़ मच गयी. अगले दो जून को शाम 5 बजे महमूद और उसके दो साथी एक साथ मंगाराम की दुकान पर गये. मंगाराम से वे अकसर पैसे वसूल करते थे. उस दिन महमूद ने कुछ अधिक पैसे की मांग की.

सरकारी अधिकारियों के अनुसार उसी समय भाजपा के नेता गुलशन आजमानी वहां पंहुचे. कहते हैं, उन्होंने स्थिति को और अधिक विस्फोटक बनाने में पहल की. अफवाहें भी फैलीं. तत्काल वरीय आरक्षी अधीक्षक घटनास्थल पर पंहुच गये. श्री आजमानी ने पुलिस से मांग की कि 12 घंटे के अंदर हिंद पीढ़ी के सभी पुलिसकर्मी स्थानांतरित किये जायें. दो घंटे के अंदर ही कुछ गिरफ्तारियां हुईं. लेकिन आजमनी सभी पुलिस अधिकारियों के स्थानांतरण की अपनी मांग पर अटल रहे. वहीं मुसलमानों के खिलाफ नारे भी लगे.

बाद में आजमानी की मांग बदल गयी. उन्होंने नगर आरक्षी अधीक्षक तथा नगर आरक्षी उपाधीक्षक आदि के अविलंब स्थानानतरण की मांग आरंभ की. उन्होंने घोषणा की कि जब तक ऐसा नहीं होता, रांची के व्यवसायी अपनी दुकानें बंद रखेंगे.5 जून को प्रशासन की पहल पर एक सर्वदलीय सम्मेलन आयोजित किया गया. इसमें सभी दलों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया. इससे स्थिति को सामान्य बनाने में मदद मिली. बहरहाल रांची में अभी स्थिति सामान्य है. लेकिन सांप्रदायिक तत्व सक्रिय हैं.

इस बार रांची में अगर दंगों पर स्थानीय प्रशासन ने काबू पा लिया, तो इसका एकमात्र कारण यह था कि रांची के उपायुक्त बीके सिन्हा और वरिष्ठ आरक्षी अधीक्षक रामेश्वर उरांव की जड़ें रांची में हैं और ये दोनों अधिकारी व्यक्तिगत रूप से रांची के महत्वपूर्ण लोगों को जानते हैं.

पिछले वर्ष मौजूदा पुलिस अधीक्षक रामेश्वर उरांव ने 22 अपराधियों को गुंडा ऐक्ट में बंद किया था. इसके बाद रांची की स्थिति में सुधार हुआ. फिलहाल उनमें से अधिकांश अपराधी अदालत से छूट कर बाहर आ गये हैं. वस्तुत: रांची में काफी पहले से अपराधियों का बोलबाल रहा है. विभिन्न समुदायों के आका इन्हें संरक्षण देते है. अपराधियों के बीच मनमुटाव को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश होती है. पुलिस के निचले स्तर पर भ्रष्टाचार है. इस स्थिति से सांप्रदायिक नेता बार-बार लाभ उठाने की कोशिश करते हैं.

रांची के ही एक सामाजिक कार्यकर्ता का कहना है कि मौजूदा अशांति के दौरान भाजपा के गुलशन आजमानी ने स्थिति को जानबूझ कर विस्फोटक बनाने की कोशिश की. श्री आजमानी पर भारतीय दंड विधान के अंतर्गत 9 मामले दर्ज किये गये हैं. इसमें कांके रोड स्थित उर्सलाइन कानवेंट स्कूल की जमीन पर कब्जा से ले कर मारपीट के मामले भी शामिल हैं. इस कार्यकर्ता की दृष्टि में जब तक ऐसे लोग कानून व्यवस्था बनाये रखने के नाम पर आंदोलन की अगुआई करेंगे, तब तक स्थिति बेहतर नहीं हो सकती.

1967 में रांची में भयंकर दंगे हुए थे. उन दिनों राज्य में गैर कांग्रेसी सरकार थी. उस सरकार में रामानंद तिवारी वरिष्ठ मंत्री थे. दंगों की सूचना मिलते ही वह तत्काल रांची पहुंचे. वहां न उनकी सुरक्षा की व्यवस्था थी न ही उनके आगमन की स्थानीय प्रशासन को सूचना. वह निहत्थे बलबाइयों के बीच पहुंच गये. दोनों समुदाय के पगलाये लोगों के बीच वह अकेले घूम कर स्थिति सामान्य बनाने की गुजारिश करते रहे. अब भी लोग उनके इस साहस को नहीं भूल पाये हैं. लेकिन आज राजनीतिक नेताओं के प्रति जी आस्था लोगों में खत्म हो रही है, उससे विभिन्न समुदायों के बीच दूरी बढ़ रही है.

खासकर रांची में हिंदू आदिवासी, मुसलमान और ईसाइयों के बीच आपसी सौहार्द बना रहे, इसके लिए विभिन्न दलों के राजनीतिक नेताओं को पहल करनी चाहिए. कांग्रेस की जड़ यहां सभी समुदायों से उखड़ रही है. काफी पहले ज्ञानरंजन ने आदिवासियों को कांग्रेस के साथ ला कर कांग्रेस की जड़ पुख्ता बनाने की कोशिश की थी, लेकिन फिलहाल स्थिति बदल चुकी है. रांची के सांप्रदायिक तनाव का इलाज वहां के राजनीतिक नेतृत्व की सूझबूझ पर निर्भर है. विभिन्न दलों के युवा और सुलझे नेता अगर इस दिशा में ठोस प्रयास करते हैं, तो यह शहर दंगे की दहशत से उबर सकता है.

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