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माता-पिता से भी ज्यादा तेज होती है बच्चों की ऑब्जरवेशन पॉवर

वीना श्रीवास्तव साहित्यकार व स्तंभकार, इ-मेल : veena.rajshiv@gmail.com, फॉलो करें -फेसबुक : facebook.com/veenaparenting, ट्विटर : @14veena हम जो कुछ भी सोचते या अनुभव करते हैं, उसके अनुसार ही अवचेतन मन की प्रोग्रामिंग होती है. इसीलिए हमारी आदतों और विचारों के बनने में हमारे अवचेतन मन का बहुत बड़ा हाथ है. जब हम कोई काम करते […]

वीना श्रीवास्तव
साहित्यकार व स्तंभकार,
इ-मेल : veena.rajshiv@gmail.com, फॉलो करें -फेसबुक : facebook.com/veenaparenting, ट्विटर : @14veena
हम जो कुछ भी सोचते या अनुभव करते हैं, उसके अनुसार ही अवचेतन मन की प्रोग्रामिंग होती है. इसीलिए हमारी आदतों और विचारों के बनने में हमारे अवचेतन मन का बहुत बड़ा हाथ है. जब हम कोई काम करते या सीखते हैं, तो शुरू में हमारा मस्तिष्क उसे समझता है और उस दौरान होनेवाले अनुभव, बातें, प्रतिक्रियाएं हमारे दिमाग में रिफलेक्सेस की तरह स्टोर हो जाती हैं. जब भी उस तरह की घटनाएं या परिस्थितियां आती हैं, तो हमारा मन अवचेतन मन के अनुसार ही काम करता है.
यानी उस समय चेतन मन, अवचेतन मन में रेकॉर्ड अनुभवों के अनुरूप प्रतिक्रिया देता है. आप इस बात से ही समझें कि जब बच्चा जन्म लेता है तो उस समय सबसे पहली आदत उसे यूरिन पास करने के लिए डलवायी जाती है, जिसके लिए मां उसे पैरों पर बैठाकर मुंह से शी-शी की आवाज निकालती है, शुरू में एक-दो बार उसे समझने में दिक्कत होती है, मगर कुछ समय बाद उसके रिफ्लेस में फीड हो जाता है कि ऐसी आवाज सुनते ही यूरिन करना है और वह तुरंत कर लेता है.
वह शिशु न बैठना जानता है, न बोलना, चलना और न ही समझना. फिर भी वह इसी तरह सुसू-पॉटी करना सीख जाता है, क्योंकि उस समय उसका दिमाग आदेश नहीं देता, बल्कि उसके दिमाग में खुद-ब-खुद जो फीड रहता है, उसी के अनुरूप कार्य होता है.
जब एक नन्हा बच्चा किसी भी बात की समझ न होने पर रेफ्लेक्स एक्शन में बंध सकता है, तो बड़े बच्चे रेफ्लेक्स एक्शन में क्यों नहीं बंधेंगे? रेफ्लेक्स एक्शन ठीक वैसा ही जैसे हम एक गेंद को दीवार पर मारें, तो गेंद दीवार से टकराकर तुरंत वापस हो जाती है. उसे कोई आदेश नहीं देता, बल्कि वह एक्शन का रिएक्शन होता है.
हमारी एक पारिवारिक मित्र है, काफी समय पहले उसने बताया कि जब वह शॉपिंग के लिए निकली, तो उसे कॉलोनी की गली में दो छोटे बच्चे दिखायी दिये. एक बेटा और एक बेटी. लड़का, लड़की से उसकी फ्रॉक उतारवा रहा था. लड़का शायद 10 वर्ष का और लड़की उससे छोटी थी. मेरी मित्र ने जब देखा, तो उनसे पूछा ये क्या हो रहा है, तो लड़की ने कहा भइया ने बोला फ्रॉक उतारो, कुछ देखना है. लड़का तुरंत वहां से भाग गया.
मेरी दोस्त उस लड़के के घर गयी और उसकी मां को सब बताया. फिर उसकी मां ने उस बच्चे से प्यार से पूछा तो बच्चे ने थोड़े गुस्से से कहा कि आपने मुझसे झूठ कहा कि बेबी को भगवान जी ने दिया. डिस्कवरी पर मैंने देखा कि एक आंटी ने बेबी को जन्म दिया. बस वही देख रहा था कि बेबी कहां से आयी.
अब इस बात ने उस महिला को विचलित कर दिया और उसने डिस्कवरी चैनल ही पैकेज से हटा दिया. जबकि सच यह था कि वह केवल इसलिए डिस्कवरी चैनल लगाकर बच्चों को बैठाती थी कि बच्चे कुछ सीखेंगे.
अब इसमें बच्चों का दोष नहीं. बच्चों को अच्छा-बुरा नहीं पता, लेकिन उसने जो देखा, वह उसके दिमाग में फीड हो चुका था और एक छोटी बच्ची अकेली मिलते ही उसने जानकारी करनी चाही, क्योंकि वह समझ गया था कि मां ने झूठ बोला है, उससे छुपाया है और जो बात छुपायी जाती है, वह कहीं-न-कहीं गलत होती है या ऐसी जो बच्चों को न बतायी जा सके और बच्चे सब जानना चाहते हैं.
सभी जेनरेशन में बच्चों की ऑब्जरवेशन माता-पिता से हमेशा ज्यादा तेज होती है. इसीलिए हमेशा ही कहा जाता है कि बच्चे तो माता-पिता के नाक-कान काटते हैं और इस वक्त के हालात तो बिलकुल भिन्न हैं. अक्सर ही मांएं बच्चों के सामने ही सीरियल देखती हैं और आप जानते ही हैं कि आजकल सीरियल्स में क्या परोसा जा रहा है.
घर और बाहर दोनों जगह शातिर चालें, शादी से पहले और बाद में बनते-बिगड़ते संबंध, कई-कई शादियां, महिला-पुरुषों दोनों का हर वक्त साजिश रचना, आप खुद समझ सकते हैं कि इसका असर बच्चों पर क्या पड़ेगा.
अगर वह तुरंत सामने न भी आये तो वे बातें उनके जीवन में कभी भी बदलाव और भूचाल दोनों ला सकती हैं. कुछ बच्चों ने इमेल लिखकर बताया भी था कि कैसे उनकी मां उन्हें टीवी के सामने बैठाकर काम करती थी और ‘वह छोटी-सी उम्र में सब जान जान गये थे, जो नहीं जानना चाहिए था.’ उस बच्चे का यह वाक्य बहुत कुछ कह गया था.
इसी तरह हम एक और गलती करते हैं कि छोटे से बच्चे के हाथ में मोबाइल थमा देते हैं. आपने आजकल कई सारे वीडियो देखे होंगे, जो 8-9 महीने से लेकर एक वर्ष तक के बच्चों के हैं, जिसमें बच्चा मोबाइल से खेल रहा है और जैसे ही उनके हाथ से मोबाइल ले लिया जाता है, वह बच्चे जोर-जोर से रोते-चीखते हैं, चिल्लाते हैं और फिर जैसे ही उहें मोबाइल वापस दिया जाता है, वह तुरंत रोना बंदकर खेलने लगते हैं. अगले क्षण उनसे मोबाइल लेने पर वह फिर उसी तरह रिएक्ट करते हैं. इसे खेल मत समझिए.
खेल मत बनाइए. इससे सीख लीजिए. नन्हे-से बच्चे में ये आदतें आप खुद ही तो डाल रहे हैं और जब बड़ा होकर वह आपसे जिद करेगा, जिद्दी बनेगा, बिना मोबाइल दिये चुप नहीं होगा, तो आप उसे दो थप्पड़ लगायेंगे कि बहुत जिद्दी हो गया है.
अगर आपके बच्चे बद्तमीज बन रहे हैं, तो इसमें यकीनन कहीं-न-कहीं आपका ही हाथ है. जरूरत से ज्यादा लाड़-प्यार, जरूरत से ज्यादा डांट-मार, जरूरत से ज्यादा अनुशासन या ज्यादा ढील किसी को भी बिगाड़ सकती है. हमें जीवन के हर चरण में संतुलन बनाकर चलना चाहिए.
क्रमश:

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