फिल्म : एमएसधौनी – द अनटोल्ड स्टोरी
निर्माता : अरुण पांडे और फॉक्स स्टूडियो
निर्देशक : नीरज पांडे
कलाकार : सुशांत सिंह राजपूत, अनुपम खेर, दिशा पटानी, कियारा आडवाणी
रेटिंग : 3.5
‘अ वेडनेस डे’, ‘स्पेशल 26’ और ‘बेबी’ जैसी हिट फिल्में देने के बाद डायरेक्टर नीरज पांडे ने बायोपिक फिल्म पर हाथ आजमाया है. भारत में क्रिकेट और मनोरंजन का क्रेज कितना है शायद ये बताना तो मुश्किल है लेकिन अगर दोनों एकसाथ मिल जायें तो फैंस का पागलपन आप समझ सकते हैं. इसी नब्ज को पकड़कर नीरज पांडे ने एक बेहतरीन कहानी को पर्दे पर पेश किया है. धौनी का जादू तो फैंस के सर चढ़कर बोल रहा है और ऐसे में उनकी बायोपिक दर्शकों को सिनेमाघरों मे खींच लाने के लिए काफी है. अपने फेवरेट धौनी के बारे में लोग उनकी पर्सनल और प्रोफेशनल लाईफ के बारे में जानना चाहते हैं.
कहानी
फिल्म की कहानी वर्ष 2011 के वर्ल्डकप से शुरू होती है जहां धौनी फैसला करते हैं कि युवराज सिंह नंबर वन पर खेलेंगे. क्रिकेट ग्राउंड में फैंस का शोर और तालियों की गड़गड़ाहट के बीच महेंद्र सिंह धौनी (सुशांत सिंह राजपूत) की इंट्री होती है. इसके बाद कहानी फ्लैशबैक में चली जाती है और धौनी के पैदा होने, फुटबाल खेलने से लेकर धौनी की क्रिकेट के प्रति दिलचस्पी को दर्शाती है. कैसे धौनी स्कूल के बाद भागकर प्रैक्टिस के लिए जाते हैं और फिर ग्रांउड में कोच (राजेश शर्मा) के साथ कड़ी मेहनत करते हैं का बखूबी चित्रण है. धौनी के पिता पन सिंह(अनुपम खेर) चाहते हैं कि धौनी रेलवे में नौकरी करें लेकिन धौनी तो क्रिकेट को अपना जुनून मानते हैं. लेकिन वो पिता के सपने को भी नहीं तोड़ना चाहते और खड़गपुर में टिकट कलेक्टर बन जाते हैं लेकिन इसी बीच क्रिकेट की प्रैक्टिस भी जारी रखते हैं. एक कमरे में पांच-पांच लोग और पूरा दिन नौकरी करने के बाद प्रैक्टिस करना उन्हें हताश करता है और वे नौकरी छोड़कर वापस रांची चले आते हैं. उनके पिता धौनी के नौकरी छोड़ने से थोड़ा परेशान हैं लेकिन वो उन्हें आगे बढ़ने की हिम्मत भी देते हैं.
फिर उनकी जिदंगी में प्रियंका (दिशा पटानी) की इंट्री होती है. दोनों की फ्लाइट की मुलाकात और वेलेंटाइन डे से पहले उसकी मौत इस कहानी को एक नया मोड़ देती है. पाकिस्तान से लौटकर धौनी को पता चलता है उसकी मौत हो गई है, इसके बाद धौनी के सड़क के बीचोंबीच रोना दर्शकों को इमोशनल करता है. फिर धौनी अपने करियर की ओर ध्यान देते हैं. इसी बीच उनकी साक्षी से मुलाकात होती है और दोनों की नजदीकियां बढ़ती हैं और फिर शादी हो जाती है. फिल्म के आखिर में भारत को क्रिकेट का विश्व विजेता बनने पर खत्म होती है. इस मैच की कई झलकियां एकबार फिर उस रोमांचक मैच की याद दिलाती है. इस दौरान सचिन तेंदुलकर, युवराज सिंह, हरभजन सिंह की एक झलक दिखती है.
किरदार
सुशांत ने बखूबी पर्दे पर धौनी को जिया है. आमतौर पर बायोपिक फिल्मों में चेहरे के बीच समानता बहुत ज़रूरी होती है मगर इस फिल्म में यह समानता भले ही चेहरे से नहीं थी लेकिन दूसरे सभी डिपार्टमेंट में सुशांत धोनी के समकक्ष लगे फिर चाहे उनकी विकेट कीपिंग का अलहदा अंदाज़ हो या शॉट को मारने के बाद जिस तरह से उनकी आंखें बॉल को बाउंडरी के पार होते देखती हैं. संवाद का टोन भी उन्होंने बिहार का ही अपनाया है. सुशांत ने हर छोटी से छोटी बात को अपने अभिनय में उकेरा है. अनुपम खेर ने एकबार फिर अपनी शानदार अदाकारी का परिचय दिया है. राजेश शर्मा सहित माही के दोस्त फिल्म का हर किरदार इस फिल्म में अपने किरदार को बखूबी निभा गए हैं. अभिनय ही इस फिल्म की यूएसपी है. दिशा पटानी और कियारा आडवाणी अपने अपने किरदार में अच्छी रही हैं हालाँकि उनके करने के लिए फिल्म में कुछ ख़ास नहीं था.
बखूबी चित्रण
फिल्म एक छोटे शहर में पैदा हुए लड़के के बड़े सपनों की कहानी कहती है. कहानी बताती है अगर प्रतिभा हो और मेहनत का जज्बा हो तो कोई सपना बड़ा नहीं है और कोई इंसान छोटा नहीं है. फिल्म की कहानी में छोटे शहर को बखूबी उकेरा गया है. वहां के लोगों की मासूमियत हो या सोच सबको कहानी से जोड़ने की अच्छी कोशिश की गयी है. धौनी का दोस्त जब उनसे मिलने आता है और रिसेप्शन की लड़की को थोड़ी बड़ी ड्रेस पहनने का सुझाव धौनी को उस लड़की को देने को कहता है. वह दृश्य अच्छा बन पड़ा है. बिहार से धौनी हैं तो उनकी अंग्रेजी अच्छी नहीं है इस बात का भी फिल्म में जिक्र होता है कि उन्हें अपनी अंग्रेजी पर काम करना चाहिए. इस तरह की कई छोटी-छोटी बातों और परेशानियां जिनसे छोटे शहर के लोगों को दो-चार होना पड़ता है उन्हें फिल्म की कहानी के साथ पिरोया गया है.
कमजोर कड़ी
कहानी में कुछ खामियां भी महसूस होती है. धौनी की यह बायोपिक ऐसा कुछ खास सामने नहीं लाती है जिससे हम अंजान हैं. धौनी कैप्टन कूल माने जाते हैं. अपनी कप्तानी में उन्होंने कई अहम फैसले लिए थे जिन्होंने भारत को जीत का हक़दार बनाया था. उन अहम फैसलों या स्ट्रेटजी की बयां करता हुआ एक दृश्य फिल्म में नहीं है. एक कप्तान के तौर पर वह किस तरह से खिलाड़ियों को मोटिवेट करते हैं. एक भी मैच के ड्रेसिंग रूम का सीन इस फिल्म में नहीं है यह बात अखरती है. धौनी अकेले सारे निर्णय ले रहे हैं वह टीम से डिस्कस नहीं कर रहे हैं. किस तरह से अलग अलग खिलाडी धौनी की उम्मीदों पर खरे उतरे हैं इसका भी कोई जिक्र नहीं है. महेंद्र के कप्तानी से जुड़े विवादित मुद्दों को बस सरसरी तौर पर ही छुआ गया है. फिल्म के ट्रेलर में जितना उनका जिक्र था उतना ही फिल्म में भी है. फिल्म का फर्स्ट हाफ जितना कसा हुआ है सेकंड हाफ में कहानी कमज़ोर होती जाती है. सेकंड हाफ में रोमांस का एंगल कहानी पर थोड़ा ज़्यादा हावी नज़र आया है. हमारी बायोपिक फिल्मों में हम ज़्यादातर हीरोइज्म को ही फोकस करते हैं. इंसान के ग्रे पहलु और कमज़ोरियों को छूने से कतराते हैं जबकि एक इंसान को इंसान उसका यही ग्रे पहलू ही बनाता है.