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शिबू सोरेन के संघर्ष का गवाह है धनबाद, टुंडी क्षेत्र में चलाते थे समानांतर सरकार

झामुमो नेता चिरकुंडा निवासी काजल चक्रवर्ती बीते दिनों की याद करते हुए बताते हैं 1970 के दशक में रांची में रहकर पढ़ाई कर रहा था, तभी एक साथी आया और बताया कि मेरे आदिवासी हॉस्टल में एक व्यक्ति आये हैं.

शिबू सोरेन के संघर्ष का गवाह है धनबाद. टुंडी-तोपचांची के पहाड़ या जंगल हों अथवा शहर की सड़कें, हर जगह उनके कदमों के निशान मिल जायेंगे. अलग झारखंड राज्य आंदोलन के दौरान धनबाद उनका मुख्य कार्यक्षेत्र था. बड़ी संख्या में धनबाद के लोग उनके आंदोलन के साथी रहे हैं. ‘लड़ के लेंगे झारखंड’ का उनका नारा हर किसी की जुबान पर हुआ करता था. कोहिनूर मैदान या गोल्फ ग्राउंड में झामुमो के स्थापना दिवस पर चार फरवरी को होने वाले कार्यक्रम में दूर-दूर से लोग आया करते थे. रात-रात भर सभा होती थी. सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों से लोग गुरुजी को देखने-सुनने आते थे. हालांकि यह सिलसिला आज भी जारी है. आज गुरुजी 80 वर्ष के हो रहे हैं. इस मौके पर यह विशेष आयोजन.

गोली सीने पर खाओगे तो शहीद कहलाओगे…

झामुमो नेता चिरकुंडा निवासी काजल चक्रवर्ती बीते दिनों की याद करते हुए बताते हैं 1970 के दशक में रांची में रहकर पढ़ाई कर रहा था, तभी एक साथी आया और बताया कि मेरे आदिवासी हॉस्टल में एक व्यक्ति आये हैं. उसने पहली बार शिबू सोरेन से मिलवाया था. मिलने के बाद उन्होंने पूछा की पढ़ाई के बाद क्या करना है, तो मैंने कहा-सरकारी नौकरी करूंगा. उन्होंने मदद करने का आश्वासन दिया. एक दिन गुरुजी निरसा आये और जब मैंने मुलाकात की तो उन्होंने कहा कि मेरे साथ काम करो. इस बीच एक दिन सुदामडीह थाना में घेराव चल रहा था और मैं भी गुरुजी के साथ चला गया. वहां पता चला कि पुलिस वालों को शूट करने का ऑर्डर मिला है. जब मैंने गुरुजी से कहा कि क्या सही में गोली चलेगी, तो उन्होंने कहा कि बंदुक से गोली ही चलती है, फूल नहीं बरसता. गोली सीने पर खाओगे, तो शहीद कहलाओगे. लेकिन संयोग से वहां कुछ नहीं हुआ. मैं उनके साथ लगा रहा. इस दौरान मेरी नौकरी भी लगी. 1980 के दशक में उन्होंने दुमका से चुनाव लड़ा. मैं उनके साथ ही था.

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राजगंज से शुरू किया था धनकटनी अभियान

नारायण चंद्र मंडल

शिबू सोरेन के आंदोलनों के दिनों में साथ रहे राजगंज लाठाटांड़ निवासी व झामुमो के संस्थापक कार्यालय सचिव शंकर किशोर महतो के अनुसार हजारीबाग जिला में शिवराम मांझी महाजनों के खिलाफ आदिवासियों को एकजुट कर रहे थे. लेकिन धनबाद जिले में शिवराम मांझी को राजनीतिक पहचान मिली और दिशोम गुरु शिबू सोरेन बने. 28 नवंबर 1973 को उनकी अगुआई में धनकटनी अभियान राजगंज इलाके के बरडार व मरचोकोचा गांव से शुरू किया गया. इसके बाद अभियान ने पलमा, खुखरा, पीरटांड, हरलाडीह, मनियाडीह, टुंडी इलाके में जोर पकड़ा. इस अभियान के दौरान शिबू सोरेन के साथ उन पर (शंकर किशोर महतो) पर भी मुकदमा चला. इसी दौर में शिबू सोरेन ने आर्थिक शोषण व शराब के खिलाफ भी अभियान भी चलाया.

आंदोलन का केंद्र पलमा के शुकू मांझी व सोखा मांझी का घर हुआ करता था. पुलिसिया दबिश के कारण शिबू सोरेन यहीं रह कर आंदोलन को धार दे रहे थे. बताया कि वर्ष 1974 मार्च में मीसा के तहत बिनोद बाबू के जेल भेजे जाने के बाद शिबू सोरेन ने खुलकर मोर्चा संभाला. इसी दौरान 1974 में राज्य सरकार ने शिबू सोरेन को राज्य का विद्रोही घोषित कर दिया. देखते ही गोली मारने का आदेश था. उसके बाद शिबू सोरेन ने पारसनाथ, बंगारो, पलमा, बस्तीकुल्ही, डकैया के जंगलों में छिपकर आंदोलन में लगे रहे.

शिबू साेरेन : 80 साल का सफर

वर्तमान रामगढ़ जिले के नेमरा में 11 जनवरी,1944 को शिबू सोरेन का जन्म हुआ था.

बचपन में नाम शिवलाल. बाद में शिबू सोरेन नाम हुआ.

गोला हाइ स्कूल से पढ़ाई की. प्रारंभिक पढ़ाई उन्होंने नेमरा के ही सरकारी स्कूल से की थी.

27 नवंबर, 1957 को उनके पिता सोबरन सोरेन की महाजनों ने हत्या कर दी थी. उनके पिता शिक्षक थे और गांधीवादी थे. अन्याय के खिलाफ आवाज उठाते थे. महाजनों द्वारा जमीन पर कब्जा करने का वे विरोध करते थे.

पिता की हत्या के बाद पढ़ाई छोड़ कर महाजनों के खिलाफ संघर्ष का फैसला किया था.

गोला के आसपास महाजनों के खिलाफ युवाओं को एकजुट कर संघर्ष आरंभ किया.

युवा अवस्था में ही मुखिया का चुनाव लड़ा, पर धोखे से उन्हें हराया गया.

संताल युवाओं को एक कर पहले संथाल नवयुवक संघ बनाया.

संताल के उत्थान के लिए सोनोत संथाल समाज का गठन किया.

संताल की जमीन पर महाजनों द्वारा कब्जा करने के खिलाफ धानकटनी आंदोलन आरंभ किया.

गोला, पेटरवार, जैनामोड़, बोकारो में आंदोलन मजबूत करने के बाद विनोद बिहारी महतो से मुलाकात हुई. फिर धनबाद गये. वहां कुछ दिनों तक विनोद बाबू के घर पर ही रहते थे.

पुलिस से बचने के लिए शिबू सोरेन ने पारसनाथ की पहाड़ियों के बीच पलमा गांव को अपना केंद्र बनाया. फिर टुंडी के पास पोखरिया में आश्रम बनाया.

टुंडी के आसपास महाजनों के कब्जे से संथालों की जमीन को मुक्त कराया.

आदिवासियों के उत्थान के लिए सामूहिक खेती, पशुपालन, रात्रि पाठशाला आदि कार्यक्रम चलाया.

टुंडी और उसके आसपास शिबू सोरेन की समानांतर सरकार चलती थी. उनकी अपनी न्याय व्यवस्था थी. कोर्ट लगाते थे व फैसला सुनाते थे.

तोपचांची के पास जंगल में एक दारोगा की हत्या के बाद शिबू सोेरेन को किसी भी हाल में पकड़ने का सरकार ने आदेश दिया था.

धनबाद के तत्कालीन उपायुक्त केबी सक्सेना ने शिबू सोरेन से जंगल में स्थित उनके अड्डे पर मुलाकात कर उन्हें मुख्य धारा में शामिल करने के लिए राजी किया था.

1973 में शिबू सोरेन, विनोद बिहारी महतो और एके राय ने मिल कर झारखंड मुक्ति मोरचा की स्थापना की थी. विनोद बाबू अध्यक्ष और शिबू सोरेन महासचिव बने.

1975 में आपातकाल के दौरान शिबू सोरेन को समर्पण के लिए तैयार कराया गया था. बाद में उन्हें धनबाद जेल में रखा गया था. झगड़ू पंडित उनके साथ थे.

तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के निर्देश पर बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ जगन्नाथ मिश्र ने शिबू सोेरेन की रिहाई का रास्ता साफ किया था. जेल में बंद शिबू सोरेन से गोपनीय तरीके से बोकारो बुलाकर डॉ मिश्र ने मुलाकात की थी.

1977 में शिबू सोरेन ने टुंडी से विधानसभा का चुनाव लड़ा, लेकिन चुनाव हार गये.

टुंडी से चुनाव में हार के बाद शिबू सोरेन ने संथालपरगना को अपना नया ठिकाना बनाया.

1980 में शिबू सोरेन ने दुमका संसदीय सीट से चुनाव लड़ा और पहली बार सांसद बने. उसके बाद कई बार दुमका से सांसद बनते बने. राज्यसभा से सांसद रहे.

झारखंड मुक्ति मोरचा ने अलग झारखंड राज्य के लिए उनकी अगुवाई में लंबा आंदोलन चलाया. आर्थिक नाकेबंदी की, झारखंड बंद रखा.

विनोद बाबू के अलग होने के बाद शिबू सोरेन ने निर्मल महतो को नया अध्यक्ष बनाया.

1987 में निर्मल महतो की हत्या के बाद शिबू सोरेन खुद अध्यक्ष बने और शैलेंद्र महतो को महासचिव बनाया.

1993 में नरसिंह राव सरकार को बचाने के लिए शिबू सोरेन और उनके सहयोगी सांसदों पर गंभीर आरोप लगे और उन्हें जेल भी जाना पड़ा.

झारखंड राज्य बनने के पहले झारखंड स्वायत्त परिषद (जैक) बना. 9 अगस्त, 1995 को शिबू सोरेन जैक के अध्यक्ष बने.

1999 का लोकसभा चुनाव हार जाने के कारण जब 2000 में लोकसभा में झारखंड विधेयक पारित हुआ, उस समय वे सांसद नहीं थे. इसलिए बहस में भाग नहीं ले सके.

15 नवंबर, 2000 को जब झारखंड का गठन हुआ, तो उनका सपना साकार हुआ पर संख्या बल में कमी होने के कारण वे झारखंड के पहले मुख्यमंत्री नहीं बन सके. बाबूलाल पहले सीएम बने थे.

2005 के विधानसभा चुनाव के बाद 2 मार्च, 2005 को शिबू सोरेन पहली बार झारखंड के मुख्यमंत्री बने, लेकिन संख्या बल में कमी के कारण बहुमत सिद्ध होने के पहले ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया. इससे पूर्व वे केंद्र में कोयला मंत्री भी बने.

27 अगस्त, 2008 को दूसरी बार शिबू सोरेन झारखंड के मुख्यमंत्री बने.

शिबू सोरेन मुख्यमंत्री थे और उन्हें छह माह के भीतर किसी भी सीट से विधायक बनना था, उन्होंने तमाड़ विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा. 9 जनवरी, 2009 को मुख्यमंत्री रहते हुए वे चुनाव हार गये और उन्हें इस्तीफा देना पड़ा.

तमाड़ चुनाव में हार के बावजूद हालात ऐसे बने कि उसी साल (30 दिसंबर, 2009) को शिबू सोरेन को फिर से मुख्यमंत्री बनाया गया. मई 2010 में उनकी सरकार गिर गयी.

2014 में जब पूरे देश में मोदी लहर थी, उस लहर में भी शिबू सोरेन झामुमो से जीत कर सांसद बने.

2019 के लोकसभा चुनाव में दुमका से हार गये. बाद में राज्य सभा से सांसद बन गये. अभी वे राज्यसभा के सदस्य हैं.

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