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वीमेन हेल्थ : अगर आप है प्रेग्‍नेंट तो आपको सतर्क रहने की जरूरत इस बिमारी से….

किसी भी औरत का मां बनना उसके सुखी वैवाहिक जीवन के लिए एक मील का पत्थर माना जाता है. हालांकि, अब कामकाजी महिलाओं की संख्या बढ़ रही है और इस कारण महिलाएं देरी से शादी कर रही हैं, जिस कारण गर्भधारण करने में और गर्भधारण करने के बाद भी उन्हें कई मानसिक व शारीरिक परेशानियों […]

किसी भी औरत का मां बनना उसके सुखी वैवाहिक जीवन के लिए एक मील का पत्थर माना जाता है. हालांकि, अब कामकाजी महिलाओं की संख्या बढ़ रही है और इस कारण महिलाएं देरी से शादी कर रही हैं, जिस कारण गर्भधारण करने में और गर्भधारण करने के बाद भी उन्हें कई मानसिक व शारीरिक परेशानियों से गुजरना पड़ता है. ऐसी ही एक परेशानी है प्रीक्लेम्पसिया.
डॉ प्रीति राय
स्त्री रोग विशेषज्ञ इनसाइट केयर क्लिनिक बूटी मोड़, रांची
प्री क्लेम्पसिया में मुख्य रूप से यह परेशानी महिलाओं को गर्भावस्था के 20वें हफ्ते के बाद होता है, जिसमें उनका रक्तचाप बढ़ जाता है.
यह चिंता और खराब जीवनशैली का नतीजा है. हालांकि, ज्यादातर प्रीक्लेम्पसिया के लक्षण प्रेग्नेंसी के बाद खत्म हो जाते हैं, पर करीब पांच से 10 प्रतिशत महिलाओं में यह प्रेग्नेंसी के बाद तक कायम रहती है. यह स्थिति चिंताजनक होती है क्योंकि कई बार इसका समय पर इलाज न होने से उस महिला को हृदय और किडनी से जुड़े रोग होने का खतरा हो जाता है. प्रीक्लेम्पसिया का यदि समय पर इलाज न हो, तो यह इक्लैम्पशिया में बदल जाता है, जो जच्चा और बच्चा दोनों के लिए खतरनाक होता है. औसतन प्रीक्लेम्पसिया के मरीजों में से 25 को इक्लैम्पसिया होने का खतरा होता है, जिसमें से सिर्फ दो प्रतिशत महिलाएं ऐसी होती हैं, जिनका इक्लैम्पसिया खतरनाक स्तर तक पहुंच जाता है. इसलिए हाइ बीपी के लोगों को अधिक सतर्क रहने की जरूरत है.
बच्चे पर प्रभाव : इक्लैम्पसिया के कारण बच्चे मैच्योरिटी से पहले पैदा लेते हैं. इस कारण उन्हें हॉस्पिटल में ही इंक्यूबेटर के अंदर रखा जाता है, जब तक कि उनके मैच्योरिटी का समय पूरा न हो जाये, नहीं तो बच्चे का शरीर पूरी तरह विकसित नहीं हो पाता और उसे कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है.
हालांकि, भारत और आस-पास के विकासशील देशों में जागरूकता की कमी के कारण कई बार जच्चा और बच्चा दोनों को अपनी जान तक गंवानी पड़ती है. प्रीक्लेम्पसिया या इक्लैम्पसिया के कारण विकासशील देशों में मातृ मृत्यु प्रतिश 1.8 प्रतिशत तक है.
इलाज : चूंकि इस बीमारी के लक्षण साफ पता नहीं चल पाते हैं, इसलिए रेगुलर जांच से ही इसके लक्षणों का पता चल पाता है. इसमें वजन में अचानक से वृद्धि, रक्तचाप का बढ़ना आदि लक्षण पाये जाते हैं. यदि रक्तचाप 140/90 से अधिक होने लगे, तो तुरंत डॉक्टर के पास जाना चाहिए.
अन्य लक्षणों में यूरिक एसिड का बढ़ना, सिर व पेट में दर्द होना, आंखों से धुंधला दिखना आदि भी सामने आते हैं. जानकारी और संयम ही इसका इलाज है. समय-समय पर गर्भ में पल रहे बच्चे की जांच के अल्ट्रासाउंड LFC, KFC, PC आदि का जांच कराते रहना चाहिए. रक्तचाप यदि 160/110 हो जाये, तो मरीज को तुरंत अस्पताल में भरती करा कर उसका इलाज कराना चाहिए. नहीं तो उसके जान को भी खतरा हो सकता है.
बीमारी के कारण व लक्षण
इस बीमारी के कई कारण व लक्षण हैं. यदि महिला को प्रेग्नेंसी से पहले उच्च रक्तचाप यानी हाइ ब्लडप्रेशर की बीमारी हो या फिर किडनी संबंधी बीमारी हो, मोलर प्रेग्नेंसी हो, गर्भाशय में पानी ज्यादा हो, हृदय या धमनी संबंधित बीमारी हो तो यह बीमारी हो सकती है. इसमें रक्तचाप बढ़ जाने के कारण धमनियों पर अतिरिक्त दबाव पड़ता है और रक्त के प्रसार में कमी आ जाती है. इस कारण शरीर में सूजन हो जाता है तथा बच्चे का विकास भी रक्त की कमी के कारण पूर्ण रूप से नहीं हो पाता है और उसे इंक्यूबेटर में रखा जाता है.

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