कौशलेंद्र रमण
मे रे दो मित्र हैं. एक ही ट्रेड की दो अलग-अलग कंपनियों में काम करते हैं. कारोबार के लिहाज से एक की कंपनी बड़ी है और दूसरे की कंपनी छोटी. छोटी वाली कंपनी का प्रोडक्ट दिन-प्रतिदिन खराब होता जा रहा है और बड़ी कंपनी गलाकाट प्रतियोगिता के बावजूद बाजार में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने में सफल रही है.
एक दिन मैंने अपने दोनों मित्रों को बुला कर उनकी कंपनियों के वर्किंग स्टाइल के बारे में जानना चाहा. छोटी कंपनी में काम करनेवाले मित्र से मैंने पूछा कि मीटिंग कैसे होती है और उसमें प्रोडक्ट को लेकर क्या-क्या बातें होती हैं. उसने बताया कि मीटिंग तो बहुत होती है, लेकिन उसमें बातें नहीं होती हैं. बॉस सिर्फ निर्देश देते हैं. हमें उसी आधार पर काम करना होता है. यही सवाल मैंने बड़ी कंपनी में काम करनेवाले मित्र से पूछा. उसने बताया कि मीटिंग होती है, लेकिन बहुत ज्यादा देर तक नहीं चलती है.
प्रोडक्ट को बेहतर बनाने के लिए मीटिंग में मौजूद सभी लोगों से राय मांगी जाती है. मीटिंग में बोलने की पूरी आजादी होती है. कोई भी व्यक्ति किसी से भी सवाल पूछ सकता है और किसी को भी अपनी बात कह सकता है. इसके बाद सभी की राय पर मशविरा होता है और तब फाइनल प्रोडक्ट पर चर्चा होती है. जिन लोगों के सुझाव स्वीकार नहीं किये जाते, उन्हें बताया जाता है कि उनके सुझाव को क्यों खारिज किया गया.
इस पूरी कवायद में आधा घंटा से ज्यादा का समय नहीं लगता है. दोनों मित्रों की बात सुनने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि जिस कंपनी में कर्मचारियों की राय को तवज्जो दी जाती है, वहां के कर्मचारी अपना सर्वश्रेष्ठ देने की कोशिश करते हैं. जहां कर्मचारियों की बात नहीं सुनी जाती है, वहां के लोग अनमने ढंग से काम करते हैं. कोई भी कंपनी तभी आगे बढ़ती है, जब वह अपने कर्मियों की सुनती है. कंपनियों की मीटिंग अगर वन साइडेड होगी तो आउटपुट बेहतर नहीं आयेगा.