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पढ़ें विशेषज्ञों की राय में कैसा रहा आम बजट 2015-16

सरकार का बजट न केवल उसकी आय-व्यय का लेखा-जोखा होता है, बल्कि उसकी आर्थिक नीतियों का प्रामाणिक दस्तावेज भी होता है. वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा पेश 2015-16 का बजट मोदी सरकार का पहला पूर्ण वार्षिक बजट है. जेटली ने बजट भाषण में फूल खिलाने की बात की, लेकिन पुराने कांटों का भी हवाला दिया. […]

सरकार का बजट न केवल उसकी आय-व्यय का लेखा-जोखा होता है, बल्कि उसकी आर्थिक नीतियों का प्रामाणिक दस्तावेज भी होता है. वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा पेश 2015-16 का बजट मोदी सरकार का पहला पूर्ण वार्षिक बजट है. जेटली ने बजट भाषण में फूल खिलाने की बात की, लेकिन पुराने कांटों का भी हवाला दिया. बजट कुछ उम्मीदों पर खरा उतरा है, तो मध्यवर्ग निराश भी हुआ है. अच्छे दिनों का वादा कर सत्ता में आयी सरकार के इस आम बजट का विश्लेषण कर रहे हैं आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ.

* विवेकपूर्ण और नवोन्मेषी बजट

।। मोहन गुरुस्वामी ।।

(वरिष्ठ अर्थशास्त्री एवं पूर्व सलाहकार, वित्त मंत्रालय)

ऐसा अवसर जरूर आता है, जब आप जीसस के इस कथन पर ध्यान देते हैं- ह्यजो सीजर का है, उसे सीजर को दे दो, जो ईश्वर का है, उसे ईश्वर को दे दो. तो इस बार मैं वित्त मंत्री को वह समर्पित कर रहा हूं, जिसके हकदार वे हैं. या यों कहें कि ह्यजो शैतान का है, उसे शैतान को दे दो. यह बजट निश्चित ही विवेकपूर्ण और नवोन्मेषी है. उनका बजट भाषण भी संक्षिप्त और अर्थपूर्ण था. बजट को लेकर अपेक्षाएं हमेशा रहती हैं, जो इस बार कुछ अधिक ही थीं, क्योंकि इस सरकार का पहला पूर्ण बजट था.

कल्याणकारी योजनाओं में कटौती वित्त आयोग की सलाह पर राजस्व का 42 फीसदी राज्यों को देने के निर्णय के कारण है. पर, पिछली प्रतिबद्धताओं- योजना आवंटन, निर्धारित खर्च और ब्याज- के दबाव के बावजूद अच्छा बजट होते हुए भी धन जुटाने और खर्च करने में किसी बडे़ बदलाव की अपेक्षा सही नहीं है. ब्याज में किसी भी बजट का लगभग एक-चौथाई हिस्सा निकल जाता है, इसी तरह रक्षा, वेतन और अन्य खर्चे हैं.

एक बड़ा मसला सब्सिडी का है जिसमें 3.77 लाख करोड़ रकम खर्च होती है. धूम-धड़ाका बजट की आकांक्षा रखनेवालों के लिए यह बड़ा पकवान है, परंतु भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था की प्रकृति इसमें किसी उल्लेखनीय कमी को रोक देती है. हर सरकार को ताकतवर दबाव-समूहों का सामना करना पड़ता है. कृषि समूह फर्टिलाइजर सब्सिडी में या अनाज खरीद की मात्रा में किसी कमी को स्वीकार नहीं कर सकते, क्योंकि उत्पादक को बाजार से अधिक कीमत देकर थोक खरीददार मिल जाता है. इसी तरह गरीबी रेखा से नीचे बसर करनेवाले लोगों को सब्सिडी पर खाद्यान्न आपूर्ति भी नकार दी जाती है.

ऐसे मूलभूत दबावों में सरकार ने बरबादी रोकने के उद्देश्य से सीधे खाते में राशि डालने जैसे उपायों से सब्सिडी को नियंत्रित करने की अच्छी पहल की है. रसोई गैस की सब्सिडी पहले से ही खातों में दी जा रही है और आधार से बैंक खाते को जोड़ कर सब्सिडी सीधे देने की योजना बहुत ठोस है. इससे भ्रष्टाचार रोकने में भी मदद मिलेगी, जो संभवत: पूरे राष्ट्रीय चरित्र पर प्रभाव डाल सकता है. इससे बचत भी बढे़गी, हालांकि उसका आकलन कर पाना जल्दबाजी होगी.

बजट में जो बात महत्वपूर्ण होती है, वह है दिशागत बदलाव, जिनका असर भविष्य में दिखाई पड़ता है. इस बजट में छोटे किसानों और व्यापारियों पर जोर देना एक अहम बात है. छोटे किसानों को सिंचाई सुविधा के लिए अतिरिक्त 30 हजार करोड़ रुपये आवंटित किये गये हैं. सरकार ने किसानों को यूरिया की निर्भरता से हटाने के लिए भी प्रयास किया है. यूरिया से लाभ में कमी आ रही है और इससे मिट्टी में जहर भी फैल रहा है. प्रधानमंत्री कुछ समय से इस बात पर जोर देते आ रहे हैं और अब बजट में इसे महत्वपूर्ण जगह मिली है.

ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में आवंटन पांच हजार करोड़ रुपया बढ़ा कर 40,699 करोड़ कर दिया गया है, लेकिन, सरकार ने इसे भवन, सड़क और नहर जैसे निर्धारण करने योग्य लक्ष्यों के साथ जोड़ने की पहल की है. अब यह सिर्फ बेमतलब गढ्ढा खोदने की योजना नहीं रहेगी, जैसा कि प्रधानमंत्री कहते हैं. इस पहल पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है, क्योंकि इससे ग्रामीण क्षेत्र में नयी और उपयोगी परिसंपत्तियों का निर्माण होगा. छोटे व्यापारियों के लिए 20 हजार करोड़ रुपये के कोष के साथ एक मुद्रा बैंक की शुरू करने की घोषणा की गयी है. अगर यह सफल होती है, तो यह नये उद्यमियों के लिए बड़ा अवसर होगा.

भारत का टेलीकॉम सेक्टर लगभग 153 बिलियन डॉलर के बराबर है और इसके द्वारा किया गया धनार्जन विशाल है. सरकार ने इस क्षेत्र में नये उद्यमियों के लिए एक हजार करोड़ रुपये की शुरुआती राशि से धन उपलब्ध कराने की पहल की है. अभी ऐसे उद्यमियों को निजी संस्थाओं और व्यक्तियों से धन उगाहना पड़ता है. अब सरकार की बड़ी तिजोरी के खुलने से उद्यमी युवाओं को भारी प्रोत्साहन मिलेगा.

बडे़ इंफ्रास्ट्रक्चर के महत्वपूर्ण क्षेत्र में वित्त मंत्री ने पिछले साल के आवंटन में 70 हजार करोड़ बढ़ाते हुए 3,17,889 करोड़ की राशि निर्धारित की गयी है. इसमें दिशागत बदलाव दिलचस्प हैं. सरकार रेल, सड़क और सिंचाई परियोजनाओं में निवेश के लिए बांड जारी करेगी, जिस पर कर छूट भी मिलेगी. यह छूट लोगों को बिस्तर की जगह बांड खरीदने के लिए प्रोत्साहित करेगी.

इसी तरह 4000 मेगावाट क्षमता की पांच नये बिजली परियोजनाएं घोषित की गयी हैं, जिनकी जिम्मेवारी सरकार लेगी. कुदानकुलाम परमाणु बिजली परियोजना की दूसरी इकाई की योजना भी है. सरकार ने अतिरिक्त एक लाख किलोमीटर सड़क बनाने की घोषणा भी की है.

एक अन्य नीतिगत बदलाव के रूप में देश के बडे़ नौ बंदरगाह ट्रस्टों को निगमित करने का फैसला लिया गया है. इससे ये बंदरगाह अपनी जमीन और संपत्ति की क्षमता का दोहन कर आधुनिक और विकसित क्षमता हासिल कर सकेंगे. यह एक बड़ी आवश्यकता थी क्योंकि बंदरगाहों की अक्षमता ने देश के आर्थिक विकास को लंबे समय से अवरुद्ध किया है. लेकिन इस कदम से सरकार ने संगठित मजदूर संघों से टकराव का खतरा भी मोल लिया है, जिनकी मानसिकता और महत्वाकांक्षा ने श्रम शक्ति को अनुत्पादक और झगड़ालू बना दिया है. इससे सरकार का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संगठन भारतीय मजदूर संघ से भी टकराव संभावित है. मेरी दृष्टि में यह अर्थव्यवस्था में उत्पादकता बढ़ाने की सरकार की दृढ़ता का अच्छा संकेत है.

मैं देश में बेकार पडे़ सोने की भारी मात्रा को मौद्रिक करने की भूरि-भूरि प्रशंसा करूंगा. दुनिया के सबसे बडे़ स्वर्ण-आयातक देश भारत में पिछले साल ही 800 टन सोना आया है. प्रस्तावित स्वर्ण बॉंड अगर सही तरीके से कारगर हुआ तो इससे कई सौ बिलियन डॉलर के बराबर रकम निवेश के लिए जुटायी जा सकती है. ऐसी ही योजना सार्वभौम स्वर्ण बांड भी है. मैं लंबे समय से विभिन्न सरकारों से ऐसी योजनाओं की सलाह देता रहा हूं. मुझे खुशी है कि अब उनको लागू किया जा रहा है, भले ही इसके श्रेय का दावा अरुण जेटली करें.

कर छुपानेवालों और विदेश में धन जमा करनेवालों पर कठोर कार्रवाई करने का साहस इस सरकार ने दिखाया है. इसी तरह संपत्ति कर समाप्त कर अधिभार लगाना, रक्षा बजट में जरूरी बढ़ोतरी आदि स्वागतयोग्य हैं. मेडिकल, मैनेजमेंट और इंजीनियरिंग की संस्थाएं खोलने का प्रस्ताव भी महत्वपूर्ण हैं. क्या मैं इस बजट से प्रसन्न हूं? हां. क्या मैं हर्षोन्मत्त हूं? नहीं. हमारे पास बेहतर की गुंजाइश हमेशा होती है, पर वर्तमान स्थितियों में क्या संभव हो सकता है, यह भी ध्यान में रखना होता है.

* रोजगार कहां है, वित्त मंत्रीजी?

।। डॉ भरत झुनझुनवाला ।।

(वरिष्ठ अर्थशास्त्री)

वर्ष 2005 से 2010 के बीच देश की अर्थव्यवस्था 8.7 प्रतिशत की दर से तेजी से बढ़ रही थी. अरबपतियों की संख्या में तेजी से वृद्धि हो रही थी. फिर भी जनता में असंतोष था, जिसका परिणाम यूपीए सरकार को 2014 के लोकसभा चुनाव में झेलना पड़ा था. मोदी सरकार के सामने चुनौती विकास को आम जनता तक पहुंचाने की थी. हमारी वर्तमान विकास दर 5-6 प्रतिशत के बीच है. मोदी इसे 8-9 प्रतिशत तक पहुंचा सकें तो भी आम जनता के बीच व्याप्त असंतोष नहीं थमेगा, उसी तरह जैसे यूपीए सरकार के दौरान नहीं थमा था.

रेटिंग कंपनी क्रिसिल ने बताया है कि 2005 से 2010 के बीच देश में 270 लाख रोजगार उत्पन्न हुए, परंतु स्व-रोजगार में 250 लाख की कटौती हुई. अंत में केवल 20 लाख रोजगार उत्पन्न हुए. इस अवधि में लगभग 10 करोड़ युवाओं ने श्रम बाजार में प्रवेश किया. यानी केवल 5 प्रतिशत युवाओं को रोजगार मिला. रोजगार में शिथिलता का कारण मशीनों का अधिकाधिक उपयोग दिखता है. क्रिसिल के अनुसार वर्ष 2005 में एक करोड़ रुपये का उत्पादन करने में 171 श्रमिकों की जरूरत पड़ती थी. 2010 में इतना ही उत्पादन करने के लिये केवल 105 श्रमिकों की जरूरत थी. फलस्वरूप मैन्युफैक्चरिंग में रोजगार में 7 प्रतिशत की कटौती हुई. देश की आर्थिक विकास दर बढ़ी, उद्योगों ने लाभ कमाया, सेंसेक्स में उछाल आया, परंतु रोजगार का हनन हुआ.

वित्त मंत्री द्वारा बजट में यूपीए सरकार की ही दुष्ट नीति का अनुसरण किया गया है. मेक इन इंडिया योजना के तहत विदेशी उद्योगों को भारत में आकर निर्माण का अनुरोध किया जा रहा है. वित्त मंत्री ने जनरल एंटी अवायडंेस रूल को दो और वर्षों के लिये टाल दिया है. इनमें सरकार को अधिकार था कि तकनीकी दांवपेंच से की गयी टैक्स बचत पर टैक्स वसूले. बड़ी कंपनियों के आयकर की दर को अगले चार वर्षों में 30 प्रतिशत से घटा कर 25 प्रतिशत करने का ऐलान किया गया है.

वित्त मंत्री कंपनियों को आकर्षित करना चाहते हैं, परंतु वे भूल रहे हैं कि विदेशी निवेशकों द्वारा सस्ते माल का उत्पादन किये जाने से तमाम स्व-रोजगार बंद हो जाते हैं. जैसे हिंदुस्तान यूनीलीवर तथा ब्रिटेनिया द्वारा ब्रेड बनाने के कारण तमाम छोटे ब्रेड निमार्ताओं का धंधा चौपट हो गया है, अथवा लेज द्वारा आलू चिप्स बनाने से लइया चना भूजने का धंधा बंद हो गया है. अत: ह्यमेक इन इंडियाह्ण यदि सफल हुआ तो भी आम आदमी को रोजगार कम ही मिलेगा. जिस दवा के सेवन से यूपीए सरकार मृत्यु को प्राप्त हुई, उसी दवा को बड़ी मात्रा में लेने से मोदी सरकार कैसे जीवित रहेगी, इस पर वित्त मंत्री को विचार करना चाहिए था.

वित्त मंत्री के दो उद्देश्यों में परस्पर अंर्तविरोध है. वे चाहते हैं कि देश पश्चिमी देशों की तरह विकसित हो जाये. साथ-साथ वे आम आदमी के लिये अच्छे दिन लाना चाहते हैं, यानी रोजगार भी बनाना चाहते हैं. ये दोनों साथ-साथ नहीं चल सकते हैं. वित्त मंत्री को विश्व अर्थव्यवस्था की इस सच्चाई को अनदेखा नहीं करना चाहिए. बहुराष्ट्रीय और घरेलू बड़ी कंपनियों के सहारे अच्छे दिन नहीं आयेंगे, यह मेरा निश्चित मत है. इसके लिए वित्त मंत्री को नये ढंग से सोचना होगा.

देश के विभिन्न उद्योगों को पूंजी सघन एवं श्रम सघन उद्योंगों में बांटा जा सकता है. पूंजी सघन उद्योग हैं- स्टील, सीमेंट, पेट्रोलियम, कार तथा मोटरसाइकिल आदि. श्रम सघन उद्योग हैं- साफ्टवेयर, अंडा, दरी, कंस्ट्रक्शन आदि. वित्त मंत्री को पूंजी सघन उद्योगों पर टैक्स बढ़ाने और श्रम सघन उद्योगों पर टैक्स घटाने पर विचार करना चाहिए था. ऐसा करने से हमारी अर्थव्यवस्था का चरित्र श्रम सघन होगा. वर्तमान में एक करोड़ का उत्पादन करने में औसत सौ श्रमिक लगते हैं, जो इकाई इतना ही उत्पादन करने में पांच सौ श्रमिकों को रोजगार दे, उसे श्रम कानूनों से मुक्त कर देना चाहिए. तब उद्योगों के लिये रोजगार सृजन लाभप्रद हो जायेगा.

दरअसल, मोदी की कैबिनेट में वे लोग हैं, जिनकी बड़ी कंपनियों में हिस्सेदारी है. नौकरशाह सलाहकार भी सेवा निवृत्ति के बाद कंपनियों में भागीदारी हासिल करने की इच्छा रखते हैं. वित्त मंत्री इन स्वार्थी विकासवादियों के घेरे में हैं. जिस प्रकार इन विद्वानों ने मनमोहन सिंह को पथभ्रष्ट किया, उसी प्रकार ये वित्त मंत्री को पथभ्रष्ट कर रहे हैं.

इन दुष्ट पालिसी के आम आदमी पर पड़नेवाले दुष्प्रभाव से राहत देने के लिये वित्त मंत्री ने सर्वव्यापी सामाजिक सुरक्षा योजना की घोषणा की है, जो स्वागतयोग्य है. परंतु यह रोजगार सृजन नहीं है. बड़ी कंपनियों को बढ़ावा देकर पहले वित्त मंत्री रोजगार का भक्षण करेंगे.

गरीब को पस्त करेंगे. फिर इस राक्षस पर टैक्स लगाकर पस्त गरीब को सामाजिक सुरक्षा योजना के अंर्तगत ग्लूकोज चढ़ायेंगे. वित्त मंत्री की दृष्टि में इस दुष्ट पालिसी को लागू करने के लिये ही आम आदमी ने नरेंद्र मोदी को वोट दिये थे. लेकिन, भाषणों से गरीब को अधिक देर तक भ्रमित नहीं किया जा सकता है. वाजपेयी के कटु अनुभव को वित्त मंत्री को नहीं भूलना चाहिए. जनविरोधी आर्थिक नीतियों को वाजपेयी लागू करते रहे और अपने भाषणों से जनता को भ्रमित करते रहे. परंतु कब तक?

* अगले साल होगा मूल्यांकन

।। श्रवण गर्ग ।।

(वरिष्ठ पत्रकार)

वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा पेश किया गया मोदी सरकार का पहला पूरा बजट अंतत: किस वर्ग को लाभ पहुंचाने वाला है, इसका पता शायद अगले बजट में किये जानेवाले प्रावधानों से ही मिल पायेगा. इतना अवश्य तय है कि रेल बजट के बाद आम बजट देश की आर्थिक रीढ़ को और मजबूत करनेवाला साबित हो सकता है और इसके लिए मोदी सरकार संसद में अपनी मजबूत राजनीतिक स्थिति का आनेवाले सालों में भी फायदा लेना चाहेगी.

जेटली के बजट को आर्थिक सर्वेक्षण में व्यक्त की गयी उम्मीदों के परिप्रेक्ष्य और भूमि अधिग्रहण विधेयक पर सरकार के दृढ़ रवैये के नजरिये से भी पढ़ा जा सकता है. आर्थिक सर्वेक्षण में विकास की दर को अगले साल तक 8 प्रतिशत और उसके बाद दो अंकों तक ले जाने का वादा किया गया है. भूमि अधिग्रहण कानून के मुद्दे पर सरकार ने सुझावों का स्वागत तो किया है और उन पर विचार करने के लिए एक समिति भी बना दी है, पर प्रधानमंत्री विपक्ष अथवा एनडीए के कुछ सहयोगी दलों के दबाव के आगे झुकेंगे, इसकी संभावना नहीं है.

कुल मिला कर मुद्दा यह है कि देश की आर्थिक प्रगति के मसले पर प्रधानमंत्री भारत का झंडा दुनिया में सबसे ऊंचा करके दिखाना चाहते हैं. प्रधानमंत्री विपक्ष के इन आरोपों की परवाह नहीं करना चाहते हैं कि मध्यम वर्ग को करों में कोई प्रत्यक्ष रियायत नहीं दी गयी है, पर कॉरपोरेट कर में कमी का इरादा भी भूमि अधिग्रहण कानून के प्रावधानों के साथ-साथ उद्योगपतियों व उद्योग घरानों को ही फायदा पहुंचायेगा.

वेल्थ टैक्स को खत्म करके एक करोड़ रुपये से ज्यादा की सालाना आमदनीवाले वर्ग पर कर की दर बढ़ने से आम आदमी या मध्यम वर्ग को ज्यादा फर्क नहीं पड़ता. विदेशों में जमा कालेधन को वापस लाने में विफलता के बाद सरकार ने बजट के जरिये नया कालाधन पैदा होने के खिलाफ कार्रवाई के प्रावधान किये हैं. बजट को आर्थिक सुधारों की दिशा में एक लीक से हट कर किया गया साहसपूर्ण प्रयास माना जा सकता है, बशर्ते सामाजिक सुरक्षा के क्षेत्र में और सब्सिडी के क्षेत्र में बिना कोई कटौती किये हुए जिन संकल्पों को व्यक्त किया गया है, उनकी पूर्ति के लिए राज्यों की ओर से भी अपेक्षित सहयोग केंद्र को प्राप्त हो. इसमें भाजपा सरकारों की बड़ी भूमिका रहेगी.

सर्विस टैक्स में वृद्धि की मार का सबसे अधिक असर वेतनभोगियों और मध्यम वर्ग पर ही पड़नेवाली है. इसी वर्ग ने मोटे तौर पर मोदी के पक्ष में वोट भी दिया था. अपने बचाव में जेटली का कहना है कि देश का अगर विकास होता है तो उसका फायदा सभी वर्गों को प्राप्त होता है, जिसमें मध्यम वर्ग भी शामिल है.

चूंकि इस समय देश में विपक्ष पूरी तरह से निराशा में डूबा हुआ है, उसके पास बजट की आलोचना करने के लिए कुछ नहीं है. प्रधानमंत्री ने शुक्रवार को मनरेगा को कांग्रेस सरकार की विफलता का जीता-जागता स्मारक करार दिया और जेटली ने शनिवार को मनरेगा के बजट में वृद्धि भी कर दी. बजट का स्वर दुनिया के समक्ष यही साबित करके दिखाना है कि एक ऐसे समय में, जबकि चीन समेत प्रमुख अर्थव्यवस्थाएं आर्थिक विकास के मोरचे पर कठिनाइयों का सामना कर रही हैं, भारत तरक्की के रास्ते पर लगातार आगे बढ़ रहा है. पर बजट की दिशा इस ओर तो अवश्य ही इशारा करती है कि सरकार अपनी उन आलोचनाओं को लेकर चिंतित है कि सत्ता में आने के बाद वह ऐसा कुछ अभी तक नहीं कर पायी है, जिसे चमत्कारिक कहा जा सके.

और अंत में महंगाई ऐसे झेलें

।। आलोक पुराणिक ।।

(चर्चित व्यंग्यकार)

पीनेवालों के लिए ऐसा बजट शायद ही कोई गुजरा होगा. तरह-तरह के आइटम पीनेवालों पर महंगाई की मार पड़ी है इस बजट में. बोतलबंद पानी पीनेवालों, सिगरेट पीनेवालों और शराब पीनेवालों को अपने-अपने आइटमों के लिए ज्यादा कीमत चुकानी पड़ेगी. मुल्क आगे बढ़ेगा, पीनेवालों की जेब से ज्यादा रकम निकाल कर. बोतलबंद पानी साथ दिखाने पर जिनका स्टेटस टिका है, वो सिर्फ खाली बोतल खरीदें, उसमें नॉर्मल पानी घर से डाल कर चलें, महंगाई से बचेंगे. पर सिगरेट पीनेवाले और शराब पीनेवाले अपने आइटमों के मामले में आत्मनिर्भर नहीं हो सकते.

खैर, सिगरेट और शराब पीनेवाले ग्राहकों की सहनशीलता, धैर्य, विनम्रता का कमाल है. कितना ही रेट बढ़ा दो, मजाल है कभी जुलूस-धरना-प्रदर्शन करके कहा हो उन्होंने कि रेट कम करो. टमाटर दो रुपये महंगे हो जायें, धरना, जुलूस, प्रदर्शन, मार आफत हो जाती है. आपने कभी देखा सिगरेट-पीवकों का जुलूस, जो ऐसी तख्तियां लेकर चल रहा हो- महंगी सिगरेट करे पुकार, बंद करो ये अत्याचार, सिगरेट के भाव कम करो, कम करो. सिगरेट पीनेवाला हर कीमत बढ़ोतरी को चुपचाप सिगरेट की तरह पी जाता है. चूं तक नहीं करता, साल दर साल. साल क्या दशकों से चूं नहीं की.

हर वित्त मंत्री हर साल अपना फर्ज मान कर सिगरेट के भाव बढ़ाता है, एक खूसट सास की तरह, जो अपनी बहू को परेशान करना अपना संवैधानिक कर्तव्य मानती है. सिगरेट पीनेवाले सहनशील बहू की तरह हैं, जो हर खूसट सास को झेले जा रहे हैं, साल दर साल, मैं चुप रहूंगी- फिल्म की शूटिंग करते हुए. दरअसल, अब तो बहुएं भी सहनशील हैं. सहनशीलता का एकमात्र उदाहरण अब सिगरेट के ग्राहकों में ही तलाशे जा सकते हैं, साल दर साल.

गौर से देखें, तो सिगरेट और शराब के ग्राहक इस बात के जीते-जागते उदाहरण हैं कि महंगाई को कैसे झेला जाये. ऐसे ग्राहक यदि सभी टमाटर, आलू वालों को मिल गये होते, तो इस मुल्क के किसान बहुत स्पीड से अमीर हो गये होते. शराब-सिगरेट के मामले में जो ग्राहक विकट सहनशीलता दिखाते हैं, उनकी पत्नियां आलू-टमाटर-टूथपेस्ट की जरा सी भी महंगाई पर हल्ला करना शुरू कर देती हैं. परम सहनशील शराब-ग्राहक अपनी सहनशीलता का 10 प्रतिशत भी अपनी पत्नियों को ट्रांसफर नहीं कर पाते.

एक बार एक वित्त मंत्री ने ऑफ दि रिकॉर्ड बात में कहा था कि अगर हमारे देश के ग्राहक शराब-सिगरेट ग्राहकों की तरह हो जायें, तो महंगाई की समस्या उठे ही नहीं. भाव चाहे जहां तक बढ़ा लो, मंदी नहीं आती इनकी मांग में. इतिहास में कहीं यह दर्ज नहीं है कि शराब का ग्राहक महंगाई से परेशान हुआ हो. शराब का ग्राहक इस कदर सहनशील, कुछ न मांग करनेवाला रहा है कि कभी उसने मांग नहीं की है कि हमारे आइटम पर हमें डिस्काउंट दो. कभी उसने एक के साथ एक बोतल फ्री नहीं मांगी. कभी उसने कस्टमर केयर की मांग नहीं की. दुकान पर लाइन में लग कर धक्के खाकर अपना आइटम खरीदा, जो भी कीमत मांगी गयी, उसे चुकाया. कभी बारगेन नहीं किया. सिगरेट- शराब के ग्राहकों की सहनशीलता वित्त मंत्रियों के लिए आदर्श हो गयी है. सिगरेट- शराब के ग्राहकों से हर साल जम कर वसूली की जाती है.

कुछेक नये टैक्स अगर इस बजट में लगा दिये गये होते, तो बहुत कर-संग्रह संभव था. एक टैक्स हो सकता था- यू-टर्न टैक्स. इस टैक्स का फॉर्मेट यूं होना चाहिए था कि जो भी नेता अपनी बात से पलटे या उस पार्टी के साथ सरकार बनाये, जिसे चुनाव से पहले गरियाया हो, तो उसे यू-टर्न टैक्स देना पड़े. यह यू-टर्न टैक्स चालू हो जाये, तो बिहार से लेकर दिल्ली तक कई नेताओं और पॉलिटिकल पार्टियों को बहुत टैक्स देना पड़ जाये. महाराष्ट्र में भाजपा ने उस शिवसेना के साथ सरकार बनायी, जिस पर तमाम आरोप लगाये थे.

कश्मीर में भी भाजपा मुफ्ती मुहम्मद सईद की उस पार्टी के साथ सरकार बनाने जा रही है, जिस पर तमाम आरोप भाजपा ने पहले लगाये थे. बिहार में लालू प्रसाद और नीतीश कुमार द्वारा एक-दूसरे पर दिये पुराने बयान और नये बयानों को देख लें. यू-टर्न टैक्स लग जाये इन सब पर, तो इतना कर इक ट्ठा होगा कि संसाधनों का संकट निपट जायेगा. यू-टर्न टैक्स लगा कर अरबों की कमाई संभव थी. एडवांस यू-टर्न टैक्स का कंसेप्ट लाया जा सकता था. सौ करोड़ का एडवांस यू-टर्न टैक्स नेता जमा करा दें, फिर सालभर चाहे जितने यू-टर्न लें.

लेकिन नहीं, शराब-सिगरेट वालों से सारी वसूली करनी होती है, यू-टर्न वालों को खुला छोड़ दिया जाता है. शराब को खराब मान कर टैक्स ठोक दिया जाता है, पर गिरगिटनुमा राजनीति पर कोई टैक्स नहीं लगता. यू-टर्न वाले मौज में रहते हैं, सहनशील ग्राहक हर साल पिटते जाते हैं. शराब- सिगरेट को हर साल महंगा करो, बेहतर है. पर वैसी खतरनाक और भी चीजों को हर साल महंगा होना चाहिए. हर बदलते नेताई- बयान पर यू-टर्न टैक्स लगा दिया जाये कि एक बयान बदलने का पांच करोड़ का बीस करोड़ सरकारी खजाने में जमा कराना होगा. और यू-टर्न टैक्स भी हर साल बढ़ाया जाये. पर साहब, हाल वही रहने हैं, न शराबी सुधरनेवाले, न यू-टर्न वाले नेता सुधरेंगे.

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