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हमारे आंकड़ों की विश्वसनीयता कम : उपराष्ट्रपति

पटना : उपराष्ट्रपति मो हामिद अंसारी ने कहा कि वैश्विक स्तर पर भारतीय आंकड़ों की विश्वसनीयता कम हुई है. देश के सामाजिक आंकड़े के क्षेत्र में सब कुछ ठीक नहीं है. नीति के बावजूद हमारे आधिकारिक आंकड़ों के संबंध में समस्याएं बनी हुई हैं. उन्होंने कहा कि सरकारी आंकड़े और इनके विश्लेषण की खामियों को […]

पटना : उपराष्ट्रपति मो हामिद अंसारी ने कहा कि वैश्विक स्तर पर भारतीय आंकड़ों की विश्वसनीयता कम हुई है. देश के सामाजिक आंकड़े के क्षेत्र में सब कुछ ठीक नहीं है. नीति के बावजूद हमारे आधिकारिक आंकड़ों के संबंध में समस्याएं बनी हुई हैं.

उन्होंने कहा कि सरकारी आंकड़े और इनके विश्लेषण की खामियों को दूर करने की जरूरत है, क्योंकि बेहतर नीति निर्माण के लिए गुणवत्तापूर्ण आंकड़े जरूरी हैं. वे शुक्रवार को यहां एशियन डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट (आद्री) के रजत जयंती समारोह

में ‘सोशल स्टैटिक्स इन इंडिया’ विषय पर आयोजित अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी को संबोधित कर रहे थे. उद‍्घाटन सत्र में उपराष्ट्रपति ने कहा कि भारत जैसे विकासशील देश को अपनी नीतियों को तैयार करने के लिए यहां की आबादी की सामाजिक और आर्थिक

जानकारी जुटाने की जरूरत है. लेकिन, आज भी विश्वसनीय और पूर्ण आंकड़ा प्राप्त करना एक चुनौती बना हुआ है. आंकड़ों की गुणवत्ता और उसे एकत्र करने में दोहराव, राष्ट्रीय अभिलेखागार की अनुपलब्धता और आंकड़ा एकत्रित करने के दौरान निजता के अतिक्रमण के संबंध में चिंताजनक स्थिति है.

उन्होंने कहा कि लैंगिक भेदभाव, असमानता, गरीबी और प्रगति जैसे महत्वपूर्ण सामाजिक मुद्दों को मापने की जब बात आती है, तो सरकारी आंकड़ों की आलोचना सही प्रतीत होती है. उन्होंने फ्रांसीसी अर्थशास्त्री टामस पिकेट्टी का हवाला देते हुए कहा कि आयकर के संबंध में आंकड़ों की कमी और जातिगत आधारित जनगणना के परिणाम जारी करने के प्रति सरकार की अनिच्छा इसके उदाहरण हैं. उन्होंने कहा कि 2012-13 में आयकर के आंकड़े जारी करने के बावजूद यह बात सामने आयी कि उच्च स्तर पर आयकर विवरणी भरनेवालों की संख्या बहुत कम है.

अपने 30 मिनट के संबोधन में उपराष्ट्रपति ने कहा कि जाति आधारित जनगणना से जाति, आय व संपत्ति और आय की समानता के बीच के संबंधों को स्पष्ट करना था. लेकिन, ऐसा नहीं हो पा रहा है. उन्होंने कहा कि सिर्फ विदेश में ही नहीं, बल्कि देश में भी सरकारी आंकड़ों की आलोचना की जा रही है. इसके लिए उन्होंने 2011 में रिजर्व बैंक द्वारा इस संबंध में जतायी गयी चिंता का जिक्र किया.

उन्होंने कहा कि आंकड़े हमेशा देश के सामाजिक आयामों से गहरे रूप से जुड़ा होते हैं. 17वीं सदी के अंतिम और 18वीं सदी की शुरुआत में यूरोप में सांख्यिकी को राजनीतिक अंकगणित कहने का अधिक प्रचलन था. पहले विश्लेषकों का मानना था कि बढ़ती हुई आबादी मजबूत देश का प्रमाण है.

समय के साथ-साथ सांख्यिकी का विकास हुआ. आगस्टस काम्टे , हरबर्ट स्पेंसर टेल्कोट पार्सन्स ने इसे वैज्ञानिक पद्धति प्रदान की. सांख्यिकी से सामाजिक ढांचे में परिवर्तन की जानकारी मिलती है. इसके जरिये हम सामाजिक स्तर को और बेहतर कर सकते हैं. आज सामाजिक सांख्यिकी समाजशास्त्र और सामाजिक अध्ययनों की संरचनात्मक- कार्यात्मक परंपरा की आधारशिला है. सांख्यिकी से दो लाभ मिलते हैं, एक तो समाज की सटीक और वास्तविक जानकारी मिलती है और दूसरा यह कि सामाजिक समस्याओं के पैदा होने पर इसका उपयोग किया जा सकता है. सांख्यिकी हमें तथ्यों के खोज और उसे समझने में मदद करता है.

उपराष्ट्रपति ने कहा कि सांख्यिकी की वैधता और उपयोगिता का आकलन करने के लिए इसका परीक्षण किया जाना चाहिए. नीतिगत निर्णयों की प्रासंगिकता आंकड़ों की गुणवत्ता पर निर्भर करती है. देश में हर 10 साल पर होनेवाली जनगणना विश्व की सबसे बड़ी प्राथमिक आंकड़ा संग्रहण प्रक्रिया है.

15वीं जनगणना में 2.7 मिलियन अधिकारियों को नियुक्त किया गया था. आज विभिन्न विभाग आंकड़ों के आधार पर अपने कार्यक्रम बनाते हैं. 2001 की रंगराजन रिपोर्ट की सिफारिशों के आधार पर 2005 में राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग बना था. सांख्यिकी मंत्रालय ने 2009 मेें नयी आंकड़ा नीति और 2012 में राष्ट्रीय आंकड़ा उपलब्धता नीति जारी की थी. फिर भी आंकड़ों की गुणवत्तापूर्ण हम सुनिश्चित नहीं कर पाये हैं.

संगोष्ठी को राज्यपाल रामनाथ कोविंद और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी संबोधित किया. इस मौके पर उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव मौजूद थे.

जातिगत जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक हों : मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सामाजिक सांख्यिकी विषय पर आयोजित आद्री की संगोष्ठी में जातिगत जनगणना की जरूरत पर जोर दिया और कहा कि इससे सही तथ्य सामने आयेंगे. सामाजिक व आर्थिक बदलाव में मदद मिलेगी. उन्होंने जातिगत जनगणना के आंकड़ों को जारी करने की भी मांग की. मुख्यमंत्री ने कहा कि अभी सभी अपनी-अपनी जाति की आबादी के बारे में अलग-अलग दावे करते हैं, जबकि 1931 के बाद अपने देश में जातिगत जनगणना नहीं हुई है.

उन्होंने कहा कि हम जातीयता बढ़ाने के लिए नहीं, बल्कि सामाजिक-आर्थिक बदलाव और गरीबी हटाने के लिए जातिगत जनगणना की बात कह रहे हैं. उन्होंने कहा कि आद्री ने विचार मंथन के लिए अच्छा विषय रखा है. यह

समय की जरूरत है. हम आंकड़े तो जुटाते हैं, लेकिन उसका उपयोग कम करते हैं. आंकड़ों की गुणवत्ता पर भी ध्यान देने की जरूरत है. सांख्यिकी पर अपने देश में काफी दिनों से काम हो रहा है. कृषि उत्पादन, स्वास्थ्य, शिक्षा सहित हर क्षेत्र में आंकड़े की जरूरत है. सामाजिक सांख्यिकी का कैनवास बहुत बड़ा है. 1989 में पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने जातिगत जनगणना की बात उठायी थी. अनुसूचित जाति व जनजाति की गणना तो हो जाती है, लेकिन अन्य जातियों की नहीं हो पाती है. गरीबी का निर्धारण सिर्फ भोजन की कैलोरी और आर्थिक आधार नहीं होना चाहिए.

मुख्यमंत्री ने कहा कि आंकड़ों पर हमेशा सवाल खड़े होते रहते हैं. आज हमारे पास जो आंकड़े हैं, वे सही नहीं हैं. जनगणना के आंकड़ों से जाति की सीमा को तोड़ने में मदद मिलेगी. आंकड़ों से विकास की योजनाओं में मदद मिलती है. आंकड़ों से नीति निर्धारण में मदद मिलती है.

बिहार में मानव विकास की दिशा में मिशन मोड पर काम हो रहा है. मुख्यमंत्री ने माना कि स्कूली शिक्षा की स्थिति अब भी बहुत अच्छी नहीं है. इसके बाद भी बच्चे स्कूल जा रहे हैं, यह बड़ी बात है और इससे शिक्षा का दायरा बढ़ रहा है. बिहार बदल रहा है और बदलाव में आंकड़े बड़ी भूमिका निभाते हैं. सामाजिक- आर्थिक जनगणना के आंकड़ों का प्रकाशन होना चाहिए.

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