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सच किसी सुविधा का नाम नहीं

चंदन श्रीवास्तव एसोसिएट फेलो, कॉमनकॉज सच किसी सुविधा का नाम नहीं है कि कोई उसके साथ मनमाने का बरताव करे. लेकिन मीडिया, जिस पर रोजमर्रा की राजनीति का सच खोजने की जिम्मेवारी है, सच को अपनी सुविधा के हिसाब से बरते तो कोई क्या करे! उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजों के साथ मीडिया का बरताव […]

चंदन श्रीवास्तव
एसोसिएट फेलो, कॉमनकॉज
सच किसी सुविधा का नाम नहीं है कि कोई उसके साथ मनमाने का बरताव करे. लेकिन मीडिया, जिस पर रोजमर्रा की राजनीति का सच खोजने की जिम्मेवारी है, सच को अपनी सुविधा के हिसाब से बरते तो कोई क्या करे! उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजों के साथ मीडिया का बरताव कुछ ऐसा ही रहा, खासकर देवबंद और आजमगढ़ के मामले में.
भूगोल के भीतर देवबंद और आजमगढ़ एक-दूसरे से एक हजार किलोमीटर दूर हैं, लेकिन देश की आजादी के इतिहास के भीतर एक-दूजे के पड़ोसी. 1857 के बाद के वक्त में भारतीय उप-महाद्वीप में इसलामी पहचान को नये सिरे से गढ़ने में जो मरकज प्रमुख रहे, उनमें देवबंद का नाम आता है, तो आजमगढ़ का भी. पैगम्बर मुहम्मद साहब की मशहूर और प्रामाणिक जीवनी सिरात-उन-नबी लिखनेवाले शिबली नोमानी आजमगढ़ के थे. उनका इसलामी शिक्षा का ‘नेशनल स्कूल’ आज भी शिबली नेशनल कॉलेज के नाम से आजमगढ़ में कायम है. कुछ यही बात देवबंद के साथ भी है. 19वीं सदी में अंगरेजों के खिलाफ इसलामी पुनरुत्थान का आंदोलन खड़ा करनेवाला मशहूर मदरसा दारुल उलूम यहीं है.
1857 की भयावह पराजय की एक प्रतिक्रिया के रूप में बने इस मदरसे के संस्थापक मोहम्मद कासिम ननौतवी और राशिद अहमद गंगोही सोचते थे कि पैगम्बर साहब के जीवन-प्रसंग और कर्म के दस्तावेजी रूप ‘हदीस’ को इसलामी शिक्षा का प्रमुख आधार बनाया जाना चाहिए.
आज के वक्त में भी आजमगढ़ और देवबंद एक खास सोच के सांचे में साथ-साथ जड़ दिये जाते हैं. मसलन, जिन केशव प्रसाद मौर्य को बीजेपी ने यूपी का उप-मुख्यमंत्री बनाया है, उन्होंने पिछले साल बीजेपी की परिवर्तन-यात्रा के दौरान आजमगढ़ को सीधे-सीधे आतंकवाद की फैक्ट्री कह दिया था. देवबंद के बारे में तो खैर यह बात 1990 के दशक से ही कही जा रही है कि उसका इसलामी अतिवाद के वैश्विक रूप से गहरा रिश्ता है. संक्षेप में कहें, तो इसलामी अतिवाद की प्रचलित रूढ़छवि (स्टीरियोटाइप) में देवबंद और आजमगढ़ एक-दूसरे के प्रतिरूप हैं. इसे जायज ठहराने के लिए यहां कायम मदरसे और इलाके के मुसलिम बहुल होने का तर्क दिया जाता है.
उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजों ने इस बार आजमगढ़ और देवबंद को लेकर बने स्टीरियोटाइप को तोड़ा. आजमगढ़ की ज्यादातर सीटों (10 में 9) पर बीजेपी हारी. भाजपा का उम्मीदवार यहां के सिर्फ फूलपुर पवई सीट से जीता. यहां भी एसपी और बीएसपी को पड़े कुल वोट बीजेपी के विजयी उम्मीदवार से 31 हजार ज्यादा हैं. दूसरी तरफ, देवबंद की सीट से बीजेपी का उम्मीदवार अपने नजदीकी प्रतिद्वंद्वी बीएसपी के माजिद अली से तकरीबन 30 हजार वोटों से जीता. मतलब मदरसा और मुसलिम बहुल एक इलाके में बीजेपी हारी तो दूसरे में जीती.
मीडिया ने आजमगढ़ के चुनावी नतीजों की चर्चा न के बराबर की, उसका ज्यादा जोर देवबंद के नतीजे पर रहा. इस जीत के आधार पर मीडिया के बड़े हिस्से ने फैसला दिया- ‘अब बीजेपी का सामाजिक आधार सर्व-समावेशी हो चुका है. बीजेपी का एजेंडा जाति-धर्म की हदबंदी से एकदम ऊपर उठ चुका है, हर जाति-धर्म के लोग बीजेपी के विकास के एजेंडे को वोट कर रहे हैं. देवबंद के चुनावी नतीजे इसी की मिसाल हैं. यहां तीन तलाक के चलन से नाराज मुसलिम महिलाओं ने बीजेपी को वोट डाला है. इसी कारण बीजेपी इस मुसलिम बहुल गढ़ में जीत गयी है.’
कोई देवबंद के चुनावी इतिहास पर नजर डाले, तो मीडिया में पसरी इस व्याख्या पर उसे हैरत होगी. देवबंद के चुनावी नतीजों से यह निष्कर्ष निकाला ही नहीं जा सकता कि बीजेपी हर धर्म या जाति के वोटर की पसंद बन कर उभरी है. पहली बात तो यह कि देवबंद की सीट पर अब तक 18 बार चुनाव हुए हैं. इसमें 16 दफे किसी ना किसी दल के हिंदू प्रत्याशी को जीत मिली. मतलब, या तो यहां के मुसलिम मतदाता पहले भी प्रत्याशी के धर्म को प्रमुख मान कर वोट नहीं करते थे या फिर यह धारणा ही झूठी है कि मुसलिम मतदाताओं के वोट किसी एक पार्टी को इकट्ठे पड़ते हैं.
दूसरे, देवबंद की सीट से पहले भी दो बार बीजेपी के प्रत्याशी जीत चुके हैं. 1993 में इस सीट से बीजेपी की शशिबाला पुंडीर जीती थीं, तो 1996 में सुखबीर सिंह पुंडीर. मतलब, बीजेपी से दुराव और लगाव की रीत देवबंद के वोटर में एक जमाने से चली आ रही है, वह कोई ऐसी अनोखी बात नहीं है कि अलग से व्याख्या की मांग करे. तीसरी बात यह कि देवबंद की सीट पर भी एसपी और बीएसपी के उम्मीदवारों को पड़े वोट बीजेपी के विजयी प्रत्याशी से ज्यादा हैं.
आजमगढ़ और देवबंद के चुनावी नतीजे दो अलग-अलग सच्चाई का इजहार कर रहे हैं. इस सच्चाई से आंख चुरा कर ही कहा जा सकता है कि सिर्फ बीजेपी विकास की राजनीति करती है और उत्तर प्रदेश का मुसलिम वोटर सिर्फ विकास के नाम पर वोट डालता है.

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