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पुत्र ‘मोह’: कांग्रेस का असल संकट?

मधुकर उपाध्याय वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए राजनीति में कुछ भी शाश्वत नहीं होता. यही उसका स्वभाव है. महत्व केवल अवसर का होता है. सत्ता अवसर देती है और अवसर संभावनाओं के द्वार खोलता है. कांग्रेस दस साल शासन में रही. कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के पास अवसर था. यह साबित करने के […]

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राजनीति में कुछ भी शाश्वत नहीं होता. यही उसका स्वभाव है. महत्व केवल अवसर का होता है.

सत्ता अवसर देती है और अवसर संभावनाओं के द्वार खोलता है. कांग्रेस दस साल शासन में रही.

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के पास अवसर था. यह साबित करने के लिए कि उनमें संभावनाएँ हैं.

साल 2010 में राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन हुआ लेकिन वे 1982 के एशियाड से कुछ नहीं सीखे.

तब राजीव गांधी के प्रबंधकीय कौशल की खूब तारीफ हुई थी लेकिन 2010 में राहुल ने ये मौका गंवा दिया.

उनकी माँ सोनिया गाँधी भी अपनी सास इंदिरा गांधी से सबक नहीं ले सकीं.

मधुकर उपाध्याय का विश्लेषण

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वह घटना छोटी थी पर मामूली नहीं थी. इस बात का अहसास सबको था. सबकी नज़रें एक-एक पल उस पर थीं.

शायद इसीलिए ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ ने उसे ‘गेम चेंजर’ कहा. ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ की ख़बर का शीर्षक था ‘इट टर्न्ड मेन फ्रॉम ब्वायेज़.’ बकौल ‘इंडिया टुडे’ यह प्रबंधकीय कौशल का इम्तिहान था और घटना में शामिल लोग इम्तिहान में ‘पास’ हो गए.

बात 1982 के नवंबर महीने की है. और घटना है नवें एशियाई खेलों का आयोजन.

खेलों का आयोजन भारत में हो, यह फ़ैसला पहले हुआ था लेकिन चरण सिंह सरकार ने इसे ‘फ़िज़ूलख़र्च’ क़रार देते हुए रद्द कर दिया. आम चुनाव के बाद, जब इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी हुई, आदेश बदल दिया गया. अप्रैल महीने में.

राजीव को जिम्मेदारी

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एशियाड’82 भारत का पहला बड़ा खेल आयोजन था और इंदिरा गांधी निश्चित रूप से इसका महत्त्व समझती थीं.

यह वो ज़माना था जब दिल्ली में कोई बड़ा स्टेडियम नहीं था, सड़कें दुबली-पतली थीं, फ़्लाइओवर होते ही नहीं थे और टेलीविज़न ‘ब्लैक एंड व्हॉइट’ होता था.

एशियाड आयोजन का अर्थ था, सब बदल देना. समय बहुत कम था. चुनौती बहुत बड़ी. दो वर्ष से कुछ अधिक वक़्त में सब करना था कि रंगीन टेलीविज़न पर रंग-बिरंगा दिखाई दे. और दुनिया उसे देखे.

खेलों की एक आयोजन समिति थी पर इंदिरा गांधी आश्वस्त नहीं थीं. अनौपचारिक रूप से यह काम एक विशेष समिति को सौंपा गया. ज़िम्मेदारी राजीव गांधी को दी गई. दफ़्तर खुला प्रगति मैदान में. लक्ष्य था कि आयोजन अबाधित हो, सफल हो.

घटनाएं-स्पर्धाएं

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पत्रकारिता के वे मेरे शुरुआती साल थे. डेस्क पर काम करता था और अप्रैल, 1982 में नौकरी बदलकर संवाद समिति यूएनआई की हिंदी सेवा ‘यूनीवार्ता’ में आया था.

एशियाड इतना बड़ा आयोजन था कि तत्कालीन मुख्य संपादक जीजी मीरचंदानी और ‘वार्ता’ के संपादक काशीनाथ जोगलेकर ने डेस्क से तमाम लोगों को रिपोर्टिंग का ज़िम्मा दे दिया. मैं भी उन लोगों में शामिल था.

यक़ीनन, सारी बड़ी घटनाएं-स्पर्धाएं वरिष्ठ सहयोगियों को देखनी थीं. हमें छिटपुट ख़बरें और ‘झलकियां’ इकट्ठा करनी थीं, लॉन टेनिस के मुक़ाबले ‘कवर’ करने के अलावा.

उद्घाटन समारोह की तैयारियां हो चुकी थीं. बस एक फ़िक्र थी. आसमान में कुछ बादल नज़र आ रहे थे. एक डर मन में था कि कहीं बरस न पड़ें.

इंदिरा का जन्मदिन

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आख़िर प्रधानमंत्री समारोह में उपस्थित रहने वाली थीं और कोई व्यवधान, ईश्वरीय ही सही, कोई नहीं चाहता था. वह इंदिरा गांधी का जन्मदिन भी था.

ज़ाहिर है, मैं मुख्य समारोह के समय स्टेडियम में नहीं था. उसे ‘कवर’ नहीं कर रहा था. शाम सात-साढ़े सात का समय होगा, कुछ रिपोर्टर ख़बर की तलाश में विशेष आयोजन समिति के दफ़्तर, प्रगति मैदान पहुंचे.

अंदर, रंगीन टेलीविज़न पर राजीव गांधी और उनके दो सहयोगी- अरुण नेहरु और अरुण सिंह समारोह का प्रसारण देख रहे थे. चाय मेज़ पर थी. थोड़ी देर में समारोह संपन्न होने को था.

तभी बूंदा-बांदी शुरू हुई. और उद्घाटन समारोह ख़त्म होते न होते पानी टूट कर बरसा.

तय कार्यक्रम के मुताबिक़ राजीव गांधी की ‘तिकड़ी’ इसके बाद वहां से जाने वाली थी- इंदिरा गांधी को जन्मदिन की बधाई देने. पर बारिश के कारण सब वहीं रुके रहे.

राजीव की ‘तिकड़ी’

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अरुण नेहरू, अरुण सिंह (बीच में) और राजीव गांधी.

उसी झमाझम बारिश में दफ़्तर के बाहर एक कार आकर रुकी. एक अधिकारी अंदर गया और बताया गया कि एक आयोजन स्थल पर स्टेडियम की छत टूट गयी है. स्टेडियम में पानी भर गया है.

राजीव गांधी की ‘तिकड़ी’ फ़ौरन खेलगांव के लिए रवाना हो गई. यह वही स्टेडियम था, जहां अगले दिन भारोत्तोलन की स्पर्धाएं होने वाली थीं. उस वक़्त रात के साढ़े दस बजे होंगे.

फ़ौरन दिल्ली के उपराज्यपाल, जगमोहन से संपर्क किया गया. आदेश था कि दो हज़ार लोग तत्काल उपलब्ध कराए जाएं. स्टेडियम की घेराबंदी कर दी गई.

रिपोर्टर बाहर पेड़ों के नीचे खड़े थे, बारिश से बचने के लिए. राजीव गांधी स्टेडियम के एक कोने में खड़े रहे. देखते रहे. निर्देश देते रहे. मज़दूर काम करते रहे.

स्टेडियम से पानी निकाला गया. छत की मरम्मत हुई और सुबह आठ बजे तक काम पूरा हो गया. भारोत्तोलन स्पर्धाएं निर्धारित समय पर हुईं, उसी जगह.

राष्ट्रमंडल खेल

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इस घटना ने न केवल राजीव गांधी की प्रबंधकीय कुशलता स्थापित की, उन आलोचकों का कुछ हद तक मुंह बंद कर दिया, जो उन्हें अनुभवहीन ‘बाबा लोग’ कहते हुए ख़ारिज कर रहे थे.

शायद इंदिरा गांधी को एशियाई खेलों का महत्त्व एक से ज़्यादा तरीक़े से समझ में आ रहा था. राजनीतिक तौर पर भी.

लगभग तीस साल बाद, भारत को राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन करना था. इसका फ़ैसला सात साल पहले हुआ था लेकिन स्थितियां पहले की तुलना में बहुत भिन्न नहीं थीं.

अव्यवस्था, अराजकता और भ्रष्टाचार के आरोप थे. चीज़ें एक-एक करके बनती-बिगड़ती थीं. मीडिया आलोचना कर रहा था, विपक्ष थू-थू.

तब से अब में एक अंतर था. फ़र्क यह था कि उसे संभालने के लिए कोई इंदिरा गांधी नहीं थीं.

पुत्र मोह

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राजीव गांधी की जगह उनके पुत्र, राहुल गांधी थे पर उन्हें कोई ज़िम्मेदारी नहीं सौंपी गई. उनकी ओर से भी पहल नहीं हुई.

राहुल स्वच्छंद रूप से कभी यहां-कभी वहां जाते रहे. गांवों में गए, विदेश हो आए. बाहें और त्योरियां चढ़ाए कुछ-कुछ बोलते रहे. तबतक मौक़ा हाथ से निकल गया.

अफ़रातफ़री के दौर में बुज़ुर्ग प्रधानमंत्री, मनमोहन सिंह ने कमान अपने हाथ में लेने की कोशिश की. उनका क़ाफ़िला इस से उस स्टेडियम जाता रहा.

राहुल को तब भी किसी ने कुछ नहीं कहा. सोनिया गांधी को याद नहीं दिलाया कि ऐसे ही मौक़े पर उनकी सास, इंदिरा गांधी ने क्या फ़ैसला किया था.

विफलता के डर और पुत्र मोह ने इस देश को कई बार संकट में डाला है. महाभारत काल में उसे युद्ध तक ले गया है. तमाम हुकूमतें तबाह हुई हैं.

देश का इतिहास-भूगोल बदल गया है. संगठन नष्ट हो गए हैं. राजनीति उलट-पुलट गई है. क्या कांग्रेस पार्टी भी उसी की शिकार है?

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