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बढ़ रहे हैं दलितों और अल्पसंख्यकों पर जुल्म

सुभाष चंद्र कुशवाहा साहित्यकार यूं तो भारतीय कबीलाई और सामंती सामाजिक व्यवस्था में, जातिवादी घृणा और हिंसा की संस्कृति पहले से रही हैं, लेकिन साठ के दशक में महाराष्ट्र में दलित चेतनाके विकास और प्रतिकार की लड़ाइयों ने केवल दलितों को ही नहीं, अल्पसंख्यकों के प्रति अत्याचार को भी कम किया. नस्लीय और जातीय अत्याचारों […]

सुभाष चंद्र कुशवाहा
साहित्यकार
यूं तो भारतीय कबीलाई और सामंती सामाजिक व्यवस्था में, जातिवादी घृणा और हिंसा की संस्कृति पहले से रही हैं, लेकिन साठ के दशक में महाराष्ट्र में दलित चेतनाके विकास और प्रतिकार की लड़ाइयों ने केवल दलितों को ही नहीं, अल्पसंख्यकों के प्रति अत्याचार को भी कम किया.
नस्लीय और जातीय अत्याचारों के विरुद्ध आवाज मुखर किया. दलित चेतना के उभार की धमक राजनीति में भी देखी गयी. तमाम वर्णवादी दलों में भी दलितों और अल्पसंख्यक नेताओं को एक हद तक महत्व मिलना प्रारंभ हुआ.
दलित चेतना की दूसरी बड़ी अंगड़ाई अस्सी के दशक में उत्तर प्रदेश में दिखायी दी. यहां तमाम परंपरागत रूढ़ियों और अमानवीय परंपराओं के विरुद्ध दलितों ने मुखर होकर आवाज उठायी.
कांशीराम का उदय हरियाणा जैसी सामंती मनोवृत्ति की जमीन के बजाय, उत्तर प्रदेश के वर्णवादी जमीन पर हुआ. यानी दलित महानायकों से लेकर उनके आत्मबलिदानों को सम्मान से देखनेवाले वर्ग ने अपनी धमाकेदार उपस्थिति दर्ज की. इससे सामंतों में बेचैनी भी पैदा हुई.
दलित चेतना को उभरने से रोकने के लिए दलित कुलीनतावादी नेताओं को सत्ता सुख दे, अपने पाले में डाल लिया गया है. कुछ को अपरोक्ष रूप से नियंत्रित किया गया है. हालात यहां तक पैदा कर दिये गये हैं कि दलित जुल्मों के विरुद्ध संघर्ष करने में, दलित नेताओं की घिग्घी बंध गयी है.
यह दलितों और अल्पसंख्यकों के विरुद्ध जुल्म ढाने का नया दौर है. सामंतों ने पिछड़ों के नये कुलकों को भी अपने पाले में करने का खेल रचा है और यह अकारण नहीं है कि पिछड़ों के नये कुलकों ने भी दलितों और अल्पसंख्यकों पर अत्याचार में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया है. इधर जाटों और निषादों के आरक्षण मांग संबंधी उभार को भी इसी संदर्भ में देखा जा सकता है.
छोटी-छोटी सामान्य घटनाओं को उभार कर आग सुलगा देना, सामंती और कुलीनतावादी सोच का पुराना औजार है. आंबेडकर संबंधी गीत बजाने पर एक मराठा युवक, दलित युवक की हत्या कर देता है.
यह अकारण नहीं है कि जिस भिंडरवाला या खालिस्तान समर्थकों के साथ पंजाब का कोई युवक नहीं था, उसे उभारने का काम शुरू हो गया है. यह दलितों-अल्पसंख्यकों की अक्ल ठिकाने लगाने का दौर है और उन्हें दासत्व को स्वीकारने को मजबूर करनेवाली अतीत की संस्कृति का उभार है. यह संस्कृति अपने स्वर्णिमकाल की ओर लौटने को बेचैन दिख रही है और उसे लगता है कि वर्तमान शासन व्यवस्था, उसकी सोच और समझ को हवा देने के अनुकूल है.
हमें इस उभार को जितनी जल्द हो सके दबाने और अराजकता खत्म करने की दिशा में सोचना चाहिए. दलित और अल्पसंख्यकों के प्रगतिशील तत्वों को अपनी चेतना के विकास के साथ-साथ पाखंडी मूल्यों को तिलांजलि देने की ओर बढ़ना चाहिए.
दोनों को एकाकार कर, बढ़ती हिंसक प्रवृत्तियों के खिलाफ आंदोलन विकसित करनी चाहिए. भारतीय समाज में हाशिये के समाज को अपनी सुरक्षा और विकास के लिए इसके अलावा अन्य कोई रास्ता भी नहीं है.

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