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गुरु-विद्या की सिद्धि और सद्भाव का प्रतीक है दासाञ परब

राजेन्द्र प्रसाद महतो ‘राजेन’ झारखंड विविधतापूर्ण जनजातीय पर्व -त्योहारों का प्रदेश है. कृषिजीवी जनजातीय समुदाय को उनकी पारंपरिक विशिष्ट संस्कृति व अनोखे नेगाचारि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक अलग पहचान दिलाती है. इन्हीं पर्व-त्योहारों व संस्कृति की एक कड़ी है ‘दासाञ परब’. इस समाज में प्राथमिक उपचार, विशेषकर सर्पदंश का, आज भी जड़ी-बूटी, झाड़-फूंक व तंत्र-मंत्र […]

राजेन्द्र प्रसाद महतो ‘राजेन’
झारखंड विविधतापूर्ण जनजातीय पर्व -त्योहारों का प्रदेश है. कृषिजीवी जनजातीय समुदाय को उनकी पारंपरिक विशिष्ट संस्कृति व अनोखे नेगाचारि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक अलग पहचान दिलाती है. इन्हीं पर्व-त्योहारों व संस्कृति की एक कड़ी है ‘दासाञ परब’. इस समाज में प्राथमिक उपचार, विशेषकर सर्पदंश का, आज भी जड़ी-बूटी, झाड़-फूंक व तंत्र-मंत्र का प्रयोग कर किया जाता है.
इस विद्या के जानकार को बिषहइर के नाम से जाना जाता है. बिषहइर को उनके गुरु दासाञ ही पूजा अर्चना कर झाड़-फूंक करने की स्वतंत्रता प्रदान करते हैं. विशेषकर संताल बहुल क्षेत्र में दासाञ परब खास महत्वपूर्ण होता है. दासाञ परब सामाजिक एकता व भाईचारे का त्योहार है.
आपसी झगड़े व विवादों को भूलकर एक साथ बांहों से बांहें मिलाकर मादेइर की थाप पर थिरकते हैं. आसिन मास की अष्टमी के दिन रंभा, कचु, हल्दी, जयंती, बेल, डालिया, अशोक, धान एवं मान, इन नौ प्रकार की कृषि उपज को सजाकर इस जनजाति के लोग पूजा-अर्चना करते हैं. इसलिए इस त्योहार को ‘कृषि त्योहार’ या ‘शस्य उत्सव’ भी कहा जाता है. अष्टमी के दिन को ‘जागरण’ के रूप में मनाया जाता है.
जागरण की संध्या कृषक अरवा चावल की गुड़ि को दूध या पानी के साथ मिलाकर घोल बनाते हैं. इस घोल का कृषक अपनी फसलों, पेड़-पौधे, तथा सभी घरेलू सामानों पर छींटा लगाते हैं.
इनका का विश्वास है कि ऐसा करने पर फसल निरोग रहती है, उत्पादन अच्छा होता है और घर में समृद्धि आती है? आश्विन की नवमी को संताल जनजातीय समुदाय द्वारा शुभ दिन के रूप में मनाया जाता है.
यह शुभ दिन पूजा-अर्चना का होता है. अंतिम दिन यानी दशमी को ‘दासाञ परब’ होता है, जिसका काफी महत्व है. दासाञ पर्व तंत्र-मंत्र से भी जुड़ा है. तंत्र-मंत्र के ज्ञाता यानी गुनी चेले की सहायता से दासाञ के पहले नौ दिन ‘दासाञ थापना’ करते है. थापना में प्रतिदिन पूजा-अर्चना के साथ गुरु चेले को गुन विद्या सिखाते हैं.
दासाञ के दिन सिद (सिद्ध) खिलाकर चेले को तंत्र-मंत्र करने का अधिकार दिया जाता है. पूर्ण रूप से गुण-विद्या ग्रहण करने के बाद ही सिद खिलाया जाता है.
उस दिन हर घर के लोग आस-पास में जाकर बड़े-बूढ़े का चरण स्पर्श करते हैं और दीर्घायु का आशीर्वाद लेते हैं. परब का अंतिम दिन मौज मस्ती व मिलन का होता है. प्रत्येक परिवार में अच्छे-अच्छे पकवान बनाये जाते हैं. आदिम जनजाति के बीच आज भी अनोखे ढंग से ‘दासाञ परब’ मनाया जाता है.
महीने पर पहले से ‘दासाञ परब’ की तैयारी में गांव-गांव घूमकर संगीत व नृत्य के माध्यम से ‘दासाञ परब’ को आमंत्रित करते हैं. गांव के बीच में संगीत व नृत्य प्रस्तुत करके नम्रतापूर्वक दासाञ परब के आगमन का स्वागत करते हैं. ग्रामीण प्रत्येक परिवार से चावल, तेल व नकद राशि देते है.
चावल का हड़िया बनाकर सामूहिक रूप से प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है. इसके बाद सामूहिक नृत्य भी होता है. दासाञ के अवसर पर कई गांवों में दस रात्रि मेले का आयोजन किया जाता है. मेले में दासाञ गीत व नृत्य प्रस्तुत किये जाते हैं. सामूहिक नृत्य संगीत में युवक-युवतियां भाग लेते हैं.
Prabhat Khabar Digital Desk
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