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नेताओं के बसपा छोड़ने से मायावती को फ़र्क पड़ेगा?

बद्री नारायण समाजशास्त्री, बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को इन दिनों झटके पर झटके लग रहे हैं. पहले बसपा के राष्ट्रीय महासचिव और उत्तर प्रदेश विधान सभा में विपक्ष के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने बसपा से त्यागपत्र दिया. उसके थोड़े ही दिन बाद पार्टी के दूसरे राष्ट्रीय महासचिव आरके चैधरी […]

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बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को इन दिनों झटके पर झटके लग रहे हैं. पहले बसपा के राष्ट्रीय महासचिव और उत्तर प्रदेश विधान सभा में विपक्ष के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने बसपा से त्यागपत्र दिया.

उसके थोड़े ही दिन बाद पार्टी के दूसरे राष्ट्रीय महासचिव आरके चैधरी ने पार्टी छोड़ी.

दोनों ने अभी किसी और दल की सदस्यता नहीं ली है. वे अपने समर्थकों से विचार-विमर्श कर अपनी स्वयं की पार्टी बनाना चाहते हैं.

स्वामी प्रसाद मौर्य बसपा में मौर्य समाज और आरके चैधरी पासी समाज के कद्दावर नेता के रुप में माने जाते रहे हैं.

मीडिया और राजनीतिक विश्लेषक यह आकलन करने में लगे हुए हैं कि इससे बसपा को कितना घाटा होगा?

बसपा 2017 के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में सत्ता की प्रबल दावेदार मानी जा रही है लेकिन ऐसी घटनाओं से उसके संभावित ‘विजयी होने वाले दल’ की आम धारणा को थोड़ा नुकसान पहुंचा है.

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ज़मीनी स्तर पर भी संभव है कि इससे मौर्य और पासी जाति के कुछ वोट बसपा से अलग हो जाएं.

लेकिन दूसरे दलों की तरह बसपा- नेताओं का दल न होकर, कार्यकर्ताओं का दल है. यहां जातीय नेता संबंधित जाति का प्रतिनिधित्व करते हैं.

नेताओं के जाने से अब तक बसपा के जनाधार को ज्यादा घाटा नहीं हुआ है.

मायावती और बसपा संबंधित जातियों से अपने कार्यकर्ताओं के माध्यम से सीधे-सीधे जुड़ी हुई हैं, हालांकि वो जाति की जगह ‘समाज’ की बात करती हैं.

मायावती कहती भी हैं कि ‘हम समाज (जाति) के साथ गठबंधन करते हैं, न कि राजनीतिक दलों और बिचौलिए नेताओं के साथ.’

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इसलिए ज़रूरी है कि बसपा से जुड़ी घटनाओं का विश्लेषण दूसरे दलों की तरह, और उस तरह की अवधारणा के साथ न किया जाए.

अगर आप बसपा के इतिहास को देखें तो 1984 में बसपा के गठन के बाद से अब तक, पार्टी से अनेक बड़े नेताओं ने या तो इस्तीफा दिया है या निकाले गए हैं.

अनेकों ने नए दल भी बनाए, लेकिन ये सभी नेता और इनके दल महत्वहीन और अप्रासंगिक होकर रह गए.

1990 के दशक में सबसे पहले कांशीराम के बेहद करीबी रहे बसपा के महत्वपूर्ण नेता राज बहादुर और जंग बहादुर ने पार्टी छोड़ी.

ये दोनों ही नेता कुर्मी जाति से हैं. राज बहादुर ने पार्टी छोड़ने के बाद बसपा (आर) एवं जंगबहादुर ने बहुजन समाज दल बनाया.

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आज न ये नेता और न इनके दल उत्तर प्रदेश की राजनीति में मौजूद रह गए हैं.

1994 में बसपा-सपा गठबंधन सरकार में बसपा कोटे से कैबिनेट मंत्री रहे और कांशीराम के करीबी डॉक्टर मसूद ने पार्टी छोड़ राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी बनाई.

डॉक्टर मसूद और उनका दल आज कहीं भी नहीं दिखता. 1995 में सोने लाल पटेल ने बसपा से अलग होकर ‘अपना दल’ नाम की पार्टी का गठन किया.

2001 में आरके चैधरी ने बसपा से अलग होकर राष्ट्रीय स्वाभिमान पार्टी बनाई.

लेकिन यह राजनीतिक प्रयास भी बेकार रहा और वापस 11 साल बाद 2013 में आरके चैधरी बसपा में शामिल हुए. अब उन्होंने एक बार फिर से 2016 में पार्टी छोड़ दी है.

2002 में ओम प्रकाश राजभर ने बसपा छोड़ी और सुहलदेव भारतीय समाज पार्टी बनाई.

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इनके अलावा बाबु सिंह कुशवाहा, दद्दू प्रसाद जैसे बसपा के अनेक बड़े नेता बसपा से भ्रष्टाचार और अन्य आरोपों के कारण निकाले गए. ये सभी नेता बसपा में कांशीराम के करीबी थे और पार्टी में कांशीराम के बाद मायावती को दूसरा स्थान मिलने से दुखी रहते थे.

बसपा के इन कद्दावर नेताओं के पतन के इतिहास से यह साबित होता है कि कांशीराम और मायावती ने सामाजिक समूहों के भीतर पार्टी की पैठ बना रखी थी.

ये नेता कांशीराम के द्वारा तैयार की गई ‘जातियों के रेनबो’ में लाकर बस प्रतीक के रूप में बैठा दिए गए थे, इसीलिए इनके अलग होने का ज्यादा प्रभाव बसपा पर नहीं पड़ा.

इनमें सिर्फ सोने लाल पटेल का ‘अपना दल’ और ओम प्रकाश राजभर का सुहलदेव भारतीय समाज पार्टी उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में अब सक्रिय हैं.

हालांकि कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि कांशीराम के नहीं रहने पर मायावती का जातीय समाजों से सीधा संबंध टूट गया है और इसीलिए इन समुदायों के नेता के निकलने से होने वाले नुकसान की भरपाई मुश्किल होगी.

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