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शहादत दिवस विशेष : धर्म और हमारी आजादी
भगत सिंह (28 सितंबर, 1907-23 मार्च, 1931) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी के रूप में अदम्य साहस, विचारों की प्रखरता और सर्वोच्च बलिदान का अप्रतिम उदाहरण प्रस्तुत करनेवाले भगत सिंह कई पीढ़ियों के लिए आदर्श रहे हैं. युवा शक्ति और उसकी अतुलनीय मेधा और क्षमता के तो वे अनन्य प्रतीक तो हैं ही. उनका नारा […]
भगत सिंह
(28 सितंबर, 1907-23 मार्च, 1931)
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी के रूप में अदम्य साहस, विचारों की प्रखरता और सर्वोच्च बलिदान का अप्रतिम उदाहरण प्रस्तुत करनेवाले भगत सिंह कई पीढ़ियों के लिए आदर्श रहे हैं. युवा शक्ति और उसकी अतुलनीय मेधा और क्षमता के तो वे अनन्य प्रतीक तो हैं ही. उनका नारा ‘इंकलाब-जिंदाबाद’ राष्ट्र के जीवंत रहने और उच्चतम मूल्यों की ओर निरंतर अग्रसर रहने का मूल-मंत्र है.
(भगत सिंह ने मई, 1928 के ‘किरती’ में छपे इस लेख में धर्म की समस्या पर प्रकाश डाला है. पेश हैं मुख्य अंश)
स वाल यह है कि क्या धर्म घर में रखते हुए भी, लोगों के दिलों में भेदभाव नहीं बढ़ता? क्या उसका देश के पूर्ण स्वतंत्रता हासिल करने तक पहुंचने में कोई असर नहीं पड़ता? इस समय पूर्ण स्वतंत्रता के उपासक सज्जन धर्म को दिमागी गुलामी का नाम देते हैं. वे यह भी कहते हैं कि बच्चे से यह कहना कि ईश्वर ही सर्वशक्तिमान है, मनुष्य कुछ भी नहीं, मिट्टी का पुतला है, बच्चे को हमेशा के लिए कमजोर बनाना है.
उसके दिल की ताकत और उसके आत्मविश्वास की भावना को ही नष्ट कर देना है. लेकिन, इस बात पर बहस न भी करें और सीधे अपने सामने रखे दो प्रश्नों पर ही विचार करें, तो हमें नजर आता है कि धर्म हमारे रास्ते में एक रोड़ा है. मसलन हम चाहते हैं कि सभी लोग एक-से हों. उनमें पूंजीपतियों के ऊंच-नीच का, छूत-अछूत का कोई विभाजन न रहे. लेकिन, सनातन धर्म इस भेदभाव के पक्ष में है.
यदि इस धर्म के विरुद्ध कुछ न कहने की कसम ले लें, तो चुप कर घर बैठ जाना चाहिए, नहीं तो धर्म का विरोध करना होगा. लोग यह भी कहते हैं कि इन बुराइयों का सुधार किया जाये. बहुत खूब! अछूत को स्वामी दयानंद ने जो मिटाया, तो वे भी चार वर्णों से आगे नहीं जा पाये. भेदभाव तो फिर भी रहा ही. धर्म तो यह तक कहता है कि इसलाम पर विश्वास न करनेवाले को तलवार के घाट उतार देना चाहिए. और यदि इधर एकता की दुहाई दी जाये, तो परिणाम क्या होगा? सवाल यह है कि इस सारे झगड़े से छुटकारा ही क्यों न पाया जाये?
धर्म का पहाड़ तो हमें हमारे सामने खड़ा नजर आता है. मान लें कि भारत में स्वतंत्रता-संग्राम छिड़ जाये. सेनाएं आमने-सामने बंदूकें ताने खड़ी हों, गोली चलने ही वाली हो और यदि उस समय कोई मुहम्मद गौरी की तरह, जैसी कि कहावत बतायी जाती है, आज भी हमारे सामने गायें, सूअर, वेद-कुरान आदि चीजें खड़ी कर दे, तो हम क्या करेंगे? यदि पक्के धार्मिक होंगे, तो अपना बोरिया-बिस्तर लपेट कर घर बैठ जायेंगे.
धर्म के होते हुए हिंदू-सिख गाय पर और मुसलमान सूअर पर गोली नहीं चला सकते. तो हम किस निष्कर्ष पर पहुंचे? धर्म के विरुद्ध सोचना ही पड़ता है. यदि धर्म के पक्षवालों के तर्क भी सोचे जायें, तो वे यह कहते हैं कि दुनिया में अंधेरा हो जायेगा, पाप बढ़ जायेगा. बहुत अच्छा, इसी बात को ले लें.
रूसी महात्मा टॉल्स्टॉय ने अपनी पुस्तक (एसे एंड लेटर्स) में धर्म पर बहस करते हुए उसके तीन हिस्से किये हैं-
1. इसेंशियल ऑफ रिलीजन यानी धर्म की जरूरी बातें अर्थात् सच बोलना, चोरी न करना, गरीबों की सहायता करना और प्यार से रहना आदि.
2. फिलॉसफी ऑफ रिलीजन यानी जन्म-मृत्यु, पुनर्जन्म, संसार-रचना आदि का दर्शन. इसमें आदमी अपनी मर्जी के अनुसार सोचने और समझने का यत्न करता है.
3. रिचुअल्स ऑफ रिलीजन, यानी रस्मो-रिवाज आदि. पहले हिस्से में सभी धर्म एक हैं. सभी कहते हैं कि सच बोलो, झूठ न बोलो, प्यार से रहो. इन बातों को कुछ सज्जनों ने ‘इंडिविजुअल रिलीजन’ कहा है. इसमें तो झगड़े का प्रश्न ही नहीं उठता. यह ऐसे नेक विचार तो हर आदमी में होने चाहिए.
दूसरा फिलाॅसफी का प्रश्न है. असल में कहना पड़ता है कि ‘फिलॉसफी इज द आउटकम ऑफ ह्यूमैन विकनेस’ यानी फिलाॅसफी आदमी की कमजोरी का फल है. जहां भी आदमी देख सकते हैं, वहां कोई झगड़ा नहीं. जहां कुछ नजर न आया, वहीं दिमाग लड़ाना शुरू कर दिया और खास-खास निष्कर्ष निकाल लिये. वैसे तो फिलाॅसफी बड़ी जरूरी चीज है, क्योंकि इसके बगैर उन्नति नहीं हो सकती, लेकिन इसके साथ-साथ शांति होनी भी बड़ी जरूरी है.
हमारे बुजुर्ग कह गये हैं कि मरने के बाद पुनर्जन्म भी होता है, ईसाई और मुसलमान इस बात को नहीं मानते. बहुत अच्छा, अपना-अपना विचार है. आइये, प्यार के साथ बैठ कर बहस करें. एक-दूसरे के विचार जानें. लेकिन, ‘मसला-ए-तनासुक’ पर बहस होती है, तो आर्यसमाजियों व मुसलमानों में लाठियां चल जाती हैं. बात यह कि दोनों पक्ष दिमाग को, बुद्धि को, सोचने-समझने की शक्ति को ताला लगा कर घर रख आते हैं. वे समझते हैं कि वेद भगवान में ईश्वर ने इसी तरह लिखा है और वही सच्चा है.
वे कहते हैं कि कुरान शरीफ में खुदा ने ऐसे लिखा है और यही सच है. अपने सोचने की शक्ति को छुट्टी दी हुई होती है. सो जो फिलाॅसफी हर व्यक्ति की निजी राय से अधिक महत्व न रखती हो, तो एक खास फिलाॅसफी मानने के कारण भिन्न गुट न बनें, तो इसमें क्या शिकायत हो सकती है.
अब आती है तीसरी बात- रस्मो-रिवाज. सरस्वती पूजावाले दिन, सरस्वती की मूर्ति का जुलूस निकलना जरूरी है. उसमें आगे-आगे बैंड-बाजा बजना भी जरूरी है. लेकिन, हैरीमन रोड के रास्ते में एक मसजिद भी आती है. इसलाम धर्म कहता है कि मसजिद के आगे बाजा न बजे.
अब क्या होना चाहिए? नागरिक आजादी का हक (सिविल राइट्स आॅफ सिटिजन) कहता है कि बाजार में बाजा बजाते हुए भी जाया जा सकता है, लेकिन धर्म कहता है कि नहीं. इनके धर्म में गाय का बलिदान जरूरी है और दूसरे में गाय की पूजा लिखी हुई है.
अब क्या हो? पीपल की शाखा कटते ही धर्म में अंतर आ जाता है, तो क्या किया जाये? तो यही फिलाॅसफी व रस्मो-रिवाज के छोटे-छोटे भेद बाद में जाकर (नेशनल रिलीजन) बन जाते हैं और अलग-अलग संगठन बनने के कारण बनते हैं. परिणाम हमारे सामने है.
सो यदि धर्म पीछे लिखी तीसरी और दूसरी बात के साथ अंधविश्वास को मिलाने का नाम है, तो धर्म की कोई जरूरत नहीं. यदि पहली और दूसरी बात में स्वतंत्र विचार मिला कर धर्म बनता हो, तो धर्म मुबारक है. लेकिन, अगल-अलग संगठन और खाने-पीने का भेदभाव मिटाना जरूरी है. छूत-अछूत शब्दों को जड़ से निकालना होगा.
जब तक हम अपनी तंगदिली छोड़ कर एक न होंगे, तब तक हमें वास्तविक एकता नहीं हो सकती. इसलिए ऊपर लिखी बातों के अनुसार चल कर ही हम आजादी की ओर बढ़ सकते हैं. हमारी आजादी का अर्थ केवल अंगरेजी चंगुल से छुटकारा पाने का नाम नहीं, वह पूर्ण स्वतंत्रता का नाम है, जब लोग परस्पर घुल-मिल कर रहेंगे और दिमागी गुलामी से भी आजाद हो जायेंगे.
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