चन्द्रहासोज्ज्वलकरा शार्दुलवरवाहना ।
कात्यायनी शुभं दद्दाद देवी दानवघातिनी ।।
जिनके हाथ उज्ज्वल चन्द्रहास (तलवार) से सुशोभित होते हैं तथा सिंहप्रवर जिनका वाहन है, वे दानव संहारिणी दुर्गा देवी कात्यायनी मंगल प्रदान करें.मंगलमयी मां के दर्शन के लिए उत्सुक ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर जब विमान से उतर कर उनके समीप गये, तब तीनों उसी क्षण स्त्री रूप में आ गये. वहां के अद्भुत दृश्य का वर्णन करते हुए ब्रह्माजी ने नारद को बताया : नारद, अतीव अद्भुत दृश्य था. हम लोगों (स्त्री रूप में त्रिदेवों ने) ने श्री भुवनेश्वरी देवी के नख दर्पण में अखिल ब्रह्माण्ड को देखा.
वैकुण्ठो ब्रह्मलोकश्च कैलासः पर्वतोत्तमः ।
सर्वे तदखिलं दृष्टं नखमध्यस्थितंचन ।।
त्रिदेवों ने देवी को स्तवों से प्रसन्न कर दिया. सुप्रसन्न देवी ने शिवजी को नवाक्षर मंत्र प्रदान किया तथा ब्रह्मा को उपदेश दिया.
सदैकत्वं न भेदोअस्ति सर्वदैव ममास्य च ।
योअसौ साहमहं याअसौ भेदोअस्ति मतिविभ्रताम् ।।
सर्व मंगलमयी मां ने ब्रह्माजी को मधुर वाणी में कहा : एकमात्र सद् ही ब्रह्म है. उनमें और मुझमें भेद नहीं है, जो वह है, वही मैं हूं. किंतु लोग मति के भ्रम से ही मुझमें और उसमें भेद समझते हैं. एकमात्र ब्रह्म ही अद्वितीय है, वही नित्य और सनातन है, परन्तु जब यह विश्व की रचना में तत्पर होता है, वह अनेक रूप हो जाता है.
भुवनेश्वरी देवी ने वहीं ब्रह्मा को महासरस्वती, विष्णु को महालक्ष्मी तथा शिव को महाकाली (गौरी) देवियों को देकर ब्रह्मलोक, विष्णुलोक तथा कैलास जाकर स्व-स्व कार्यों के पालन का निर्देश देकर भेज दिया.
स्थलान्तरं समासाद्द ते जाताः पुरुषा वयम् ।
दूसरे स्थानों पर जाने पर पुनः त्रिदेव पुरुष रूप में आ गये. इस प्रकार आद्या शक्ति की तथा तीन महाशक्तियों की उपासना का प्रवर्तन हो गया और पंचविध सम्प्रदाय विशेष गौरवास्पद माना गया.
(क्रमशः) प्रस्तुति : डॉ एनके बेरा