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सुपौल : ढ़ाई दशक से एक ही नेता पर भरोसा

सुपौल विधानसभा की सीट पर बीते ढ़ाई दशक से बिजेंद्र प्रसाद यादव जीत मिलती रही है. उनके मुकाबले उम्मीदवार बदलते रहे पर यादव के प्रति वोटरों का भरोसा बरकरार रहा. वह लालू प्रसाद से लेकर नीतीश कुमार की सरकार में महत्वपूर्ण विभागों का दायित्व संभाल चुके हैं. बाढ़ग्रस्त सुपौल में वोटर इस बार क्या फैसला […]

सुपौल विधानसभा की सीट पर बीते ढ़ाई दशक से बिजेंद्र प्रसाद यादव जीत मिलती रही है. उनके मुकाबले उम्मीदवार बदलते रहे पर यादव के प्रति वोटरों का भरोसा बरकरार रहा.
वह लालू प्रसाद से लेकर नीतीश कुमार की सरकार में महत्वपूर्ण विभागों का दायित्व संभाल चुके हैं. बाढ़ग्रस्त सुपौल में वोटर इस बार क्या फैसला सुनाते हैं, यह समय के गर्भ में है. राज्य की दूसरी सीटों की तरह ही सुपौल का सामाजिक-राजनीतिक समीकरण इस दफे बदला-बदला हुआ है.
इस बार उनका मुकाबला एनडीए से होगा.हालांकि यह तय नहीं है कि भाजपा उम्मीदवार देगी या यह सीट किसी दूसरे घटक दल के खाते में जायेगी. बीते चुनाव में बिजेंद्र यादव ने राजद के ही यादव उम्मीदवार को विकास के मुद्दे पर पराजित किया था. हॉट सीट की कड़ी में आज पढ़िए सुपौल विधानसभा सीट की तसवीर.
विधानसभा चुनाव का बिगुल बजते ही यूं तो जिले के सभी पांच विधानसभा क्षेत्रों में राजनीतिक सक्रियता तेज हो गयी है, लेकिन इन सबमें सुपौल विधानसभा सीट सर्वाधिक चर्चा का केंद्र बनी हुई है. दरअसल, इसके कई कारण हैं.
एक तो जिला मुख्यालय की सीट होने की वजह से इसकी महत्ता स्वत: बढ़ जाती है. दूसरा महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले विजेंद्र प्रसाद यादव बिहार सरकार के कबीना मंत्री हैं. पिछले 25 वर्षो से वह विधायक हैं.
सुपौल विधानसभा सीट से वह पहली बार 1990 में जनता दल के टिकट पर जीते. 1995 में कांग्रेस के प्रमोद कुमार सिंह और 2000 के चुनाव में राजद के विनायक प्रसाद यादव को हराया. फरवरी 2005 के आम चुनाव और अक्तूबर 2005 उपचुनाव में उन्होंने राजद के इशराइल राइन को हराया. 2010 के चुनाव में उन्होंने राजद के रवींद्र कुमार यादव को हरा कर लगातार छठी बार जीत दर्ज की. पिछले दोनों चुनावों में जीत-हार का अंतर बड़ा था. यादव पहले जनता दल में थे. बाद में जदयू में शामिल हो गये.
बिहार की राजनीति में उनका दखल रहा है. 15 वर्षो से अधिक समय तक वह विभिन्न विभागों के मंत्री रहे. विकास की बात करने वाले यादव बीते चुनाव में राजद के स्व जातीय उम्मीदवार को भी परास्त किया और जातीय राजनीति के मिथक को तोड़ा.
क्षेत्र का राजनीतिक तापमान बढ़ा
चुनाव को लेकर सुपौल विधानसभा क्षेत्र का राजनीतिक तापमान बढ़ने लगा है. भाजपा के परिवर्तन रथ, जदयू के हर घर दस्तक तथा सभी दलों के विधानसभा स्तरीय कार्यकर्ता सम्मेलन जैसे कार्यक्रमों के बहाने मतदाताओं को जागरूक कर उनका समर्थन पाने की कवायद प्रारंभ हो चुकी है. इस बात करीब तीन पहले से सभी दलों और प्रमुख नेताओं ने चुनावी तैयारी
शुरू कर दी. दरअसल, पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव और राज्य में गंटबंधन के आधार पर दलों के नये ध्रुवीकरण ने समय से काफी पहले चुनवी जोड़-तोड़ का महौल पैदा कर दिया.
खास कर वैसे नेता ज्यादा सक्रिय हो गये, जो पिछले चुनाव में भी मैदान में थे और इस बार गंठबंधन के नये स्वरूप में जिन्हें टिकट से वंचित होने का भय सताने लगा.
हालांकि गंठबंधन की राजनीति के नये समीकरण में घटक दलों के बीच सीट और उम्मीदवार को लेकर बहुत कुछ स्पष्ट अब भी नहीं है. फिर भी चुनाव को लेकर जिले में दो राजनीतिक धाराएं दिख रही हैं. एक धारा महागंठबंधन की और दूसरी एनडीए की. अन्य दल तीसरी धारा को आकार-गति देने में लगे हैं. वहीं वाम दल भी अपनी जमीन को मापने की तैयारी में हैं. झारखंड मुक्ति मरचा जैसी पार्टियां अपनी राजनीतिक पहचान बनाये रखने की कोशिश में फिर जुट रही हैं.
सब ने भिड़ायी ताकत, पहुंच रहे वोटरों के बीच
बीते चुनाव में जदयू के साथी रहे भाजपा ने अलग होने के बाद वर्तमान चुनाव की तैयारी में पूरी ताकत झोंक दी है. कोसी, सीमांचल व मिथिलांचल में चुनावी नियंत्रण को लेकर सुपौल में भाजपा का क्षेत्रीय कार्यालय खोला गया है.
स्वाभाविक तौर पर उक्त कार्यालय में पार्टी के बड़े नेताओं का दौरा जारी है. बैठकों के दौर के बीच चुनावी रणनीति की बिसात बिछाने की तैयारी चल रही है. सभी सीटों के लिए संभावित प्रत्याशियों पर मंथन किया जा रहा है. सूत्रों की मानें तो विरोधी दल के दिग्गजों की बैठक में सुपौल सीट को सबसे बड़ी चुनौती मानी जा रही है. यह तकरीबन स्पष्ट है गंठबंधन के तहत सुपौल विधानसभा सीट भाजपा के कोटे में रहेगी. प्रत्याशी के चुनाव के लिए शीर्ष नेताओं के बीच माथा-पच्ची चल रही है.
कई नामों की चर्चा भी है, जिनमें जिलाध्यक्ष नागेंद्र नारायण ठाकुर के अलावा किशोर कुमार मुन्ना, कार्तिक कुमार सिंह, सुमन कुमार चंद आदि शामिल हैं. हालांकि टिकट पाने की होड़ में अन्य कई नेता भी शामिल हैं. महागंठबंधन की ओर से वर्तमान जदयू विधायक श्री यादव का प्रत्याशी बनना तय माना जा रहा है. इस बार भी निर्दलीय प्रत्याशी मैदान होंगे और वोटों के दलीय आधार पर ध्रुवीकरण में सेंधमारी करेंगे.
बदले समीकरण का होगा असर
प्रदेश स्तर पर बदले राजनीतिक समीकरण का असर इस सीट पर भी स्पष्ट जाहिर होने लगा है. भाजपा के साथ जहां लोजपा, रालोसपा व हम के कार्यकर्ता एकजुट हैं. वहीं, जदयू के धुर विरोधी रहे राजद व कांग्रेस इस बार उसके साथ हैं. वर्षो से अजिर्त राजनीतिक जमीन के साथ ही माय समीकरण की ताकत वर्तमान विधायक के पक्ष में है. वहीं विरोधी खेमा अति पिछड़ा, वैश्य, सवर्ण, दलित व महादलित वोट पर दावेदारी जता रहा है. वर्तमान विधायक यादव की विकासपरक छवि रही है.
यह दीगर बात है कि जदयू के साथ राजद के आने से विरोधी दल के लोग एक बार फिर जंगलराज पनपने की बात कर मतदाताओं का समर्थन पाने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं. बहरहाल टक्कर कांटे की होगी. ऐसे में चुनावी परिणाम किसके हिस्से जायेगा, इसकी भविष्यवाणी अभी नहीं की जा सकती.
(इनपुट : सुपौल से अमरेंद्र कुमार अमर)
2,52,583 मतदाता
इस बार के विधानसभा चुनाव में सरायरंज सीट पर 2,55,583 वोटर अपने जनप्रतिनिधि का चुनाव करेंगे. इनमें 1,31,791 पुरुष हैं और करीब 1,20,786 लाख महिला वोटर हैं.
उच्च शिक्षण संस्थानों का अभाव
सुपौल में उच्चस्तरीय व व्यावसायिक शिक्षण संस्थान की स्थापना नहीं हुई. पड़ोसी जिले में मेडिकल व इंजीनियरिंग कॉलेज हैं. यहां के लोगों को बेहतर शिक्षा के लिए दूसरा जिला जाना पड़ता है.
जिलें में एक भी सरकारी महिला कॉलेज या लाइब्रेरी नहीं हैं. जिला मुख्यालय में एक ही बालिका विद्यालय है. कृषि विकास के लिए कुछ खास पहल नहीं हुई है. कोल्ड स्टोरेज व सुगर मिल जैसे मुद्दे हर चुनाव में उठते हैं. किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य नहीं मिलता है.
पावर ग्रिड की हुई स्थापना
2013 में जिला मुख्यालय में पावर ग्रिड की स्थापना हुई. इससे विद्युत आपूर्ति व्यवस्था बेहतर हुई. शिक्षा की दिशा में भी प्रयास हुआ. महिला आइटीआइ की स्थापना की पहल हुई. महिलस आटीआइ का यहां शिलान्यास भी हुआ. अब काम शुरू होना है. इसके अलावा भी क्षेत्र के बुनियादी विकास और आधारभूत संरचना के विस्तार के लिए कई काम हुए हैं.
इनमें जिला मुख्यालय में स्टेडियम का निर्माण खास है. सड़कों और भवनों के निर्माण की दिशा में इस क्षेत्र ने प्रगति की है. सबसे बड़ा सुधार बिजली के क्षेत्र में हुआ है. अब जिला मुख्यालय में करीब-करीब 24 घंटे बिजली रहती है. आसपास के क्षेत्रों में भी निर्बाध विद्युत आपूर्ति हो रही है. स्थानीय लोग अपने विधायक की पहल को मानते हैं.
नहीं बनी सड़क
सुपौल विधानसभा क्षेत्र के मरौना प्रखंड को कोसी विभाजित करती है. विधायक ने घोषणा की थी कि तटबंध के अंदर बैरिया मंच से मरौना तक सड़क निर्माण कराया जायेगा.
इसके बीच एक बड़े पुल का भी निर्माण भी होना था, लेकिन काम नहीं हो पाया है. सड़क नहीं बन पाने के कारण लोगों को नाव से नदी पार करनी पड़ती है. यदि नदी पार करना नहीं चाहें, तो सरायगढ़ से घूम कर जिला मुख्यालय आना पड़ता है.
इससे 70 किमी की अतिरिक्त दूरी तय करनी पड़ती है. सड़क बन जाती, तो मरौना वासी मात्र सात किमी की दूरी तय कर जिला मुख्यालय पहुंच पाते. जिला मुख्यालय और बाजार से सीधा संपर्क नहीं होने से यह इलाका काफी पिछड़ा रह गया है. अधिकांश इलाकों में बिजली नहीं पहुंची है.

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