बिहार के सारण जिले में मिड डे मील खाने से बच्चों की हुई मृत्यु के बाद पूरे देश में इस योजना के क्रियान्वयन को लेकर एक बहस की शुरुआत हुई है. इस बहस के साथ-साथ बच्चों की पढ़ाई और सुरक्षा को लेकर भी चिंताएं की जा रही है. इस बार आमने-सामने के अंक में हमने देश के दो बड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं से बात की हैं. एक ओर देश में जहरीले उर्वरक और कीटनाशकों के खिलाफ और जैविक खेती के पक्ष में माहौल बनाने के लिए जानी जाने वाली सामाजिक कार्यकर्ता वंदना शिवा हैं तो वहीं दूसरी ओर बाल अधिकारों की पैरोकार डॉ. शांता सिंहा हैं.
वंदना शिवा जहां इस महत्वपूर्ण मसले पर सवाल खड़े कर रही हैं कि कीटनाशकों को इस तरह से घर में रखना हमेशा खतरनाक साबित होता है. उन्होंने कीटनाशकों को दवा कहने के बदले जहर कहने की परंपरा विकसित करने का सुझाव दिया और कहा मिड-डे मील योजना के संचालन का जिम्मा पंचायतों को दिया जाये. वहीं नेशनल कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ चाईल्ड राईट की पूर्व चेयरमैन डॉ. शांता सिंहा ने शिक्षकों से गैर शैक्षणिक काम लिये जाने को शिक्षा का अधिकार कानून का उल्लंघन बताया है. इन दोनों से संतोष कुमार सिंह ने विस्तृत बातचीत की है.
हाल ही बिहार के सारण जिले में मिड डे मिल खाने के बाद बच्चों की हुई मृत्यु के विषय में आपने भी सुना होगा? क्या कहना चाहेंगी?
यह बहुत ही अफसोसनाक घटना है. इस घटना में इतनी बड़ी संख्या मे बच्चों की मृत्यु हुई, तब इसको लेकर चर्चा शुरू हुई. लेकिन यह पहली घटना नहीं है, एक या दो पहले भी मरे हैं, बीमार हुए हैं लेकिन वो बातें सामने नहीं आयीं. इसलिए मामले को गंभीरता से नहीं लिया गया. सिर्फ 23 बच्चे ही नहीं मरे हैं, बड़ी संख्या में किसान भी मर रहे हैं. आप इससे अंदाजा लगा सकते हैं कि जमीनी स्थिति कितनी भयावह है. हरित क्रांति के नाम पर अनाज के उत्पादन को बढ़ाने के नाम पर बड़ी संख्या में कीटनाशकों का प्रयोग शुरू किया गया और इसे जहर कहा जाना चाहिए था ताकि लोगों में इनके प्रति जागरूकता पैदा होती लेकिन इसे कीटनाशक दवा का नाम दिया गया. यही कारण है कि लोग इसके प्रति सजग नहीं हुए और जो सजगता जहर से दूर रहने के लिए बरती जाती है, वह इनके साथ नहीं है. ये सारे बच्चे भी ऑर्गेनोफॉस्फेट कीटनाशक से मरे हैं. यह सिर्फ व्यवस्था का प्रश्न नहीं है, कीटनाशकों के बढ़ते प्रयोग से आगे भी इसका खतरा बना ही रहेगा. इसी विषय पर मैने एक पुस्तक भी लिखी है, पॉयजन्स इन आवर फू ड, जिसमें विस्तार से हमारे भोजन में कीटनाशको के दुष्प्रभाव की चर्चा की गयी है.
बच्चों के खाने में कीटनाशक का मिला होना या तो किसी साजिश का हिस्सा हो सकता है, या फिर संयोग़? इसे आप भोजन में बढते कीटनाशक के प्रभाव से क्यों जोड़ना चाहती हैं?
साजिश का हिस्सा है या संयोग यह तो जांच का विषय है. मैं उस तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहती हूं कि कीटनाशकों जिनका उपयोग खाद्यान्न के पैदावार बढ़ाने के लिए किया जा रहा है, इनके उपयोग से मनुष्य के शरीर पर खराब प्रभाव पड़ता है. और इसके विषय में जैसी जागरूकता होनी चाहिए वह जागरूकता पैदा करने का प्रयास सरकार के स्तर पर नहीं हुआ है. आपको किसी भी बड़े–छोटे किसानों के घर में यह चीज आसानी से देखने को मिल सकती है. वह उन्ही घरों में कीटनाशक भी रखता है, जहां खाने का सामान या उसका गल्ला–गोदाम है. वे उसी बर्तन में कीटनाशक घोलने से जरा भी परहेज नहीं करते जिसमें वे पानी पीते हैं. यह सब इस नाम पर होता है कि हमने कीटनाशकों को जहर की श्रेणी में नहीं बल्कि दवा की श्रेणी में रखा है. लेकिन खाद्यान्न का उत्पादन बढाने व खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए अनाजों का पैदावार बढाना जरूरी है. हरित क्रांति के बाद पैदावार में बढोतरी हुई है यह तो सर्वविदित तथ्य है. फसलों के बेहतरी के लिए कीटनाशक का प्रयोग तो हर जगह प्रचलित है.
खाद्य सुरक्षा के लिए और उत्पादन बढ़ाने के लिए हम जैविक खेती, जैविक बीज और जैविक खाद को भी अपना कर पैदावार बढ़ा सकते हैं. आखिर हम पैदावार क्यों बढ़ाना चाहते हैं, खाद्य सुरक्षा क्यों सुनिश्चित करना चाहते हैं. हम ऐसा इसलिए करना चाहते हैं क्योंकि लोगों को भरपेट भोजन मिले, उन्हें बेहतर पोषण मिले. किसानों की आमदनी बढे, खेती बढें किसान खुशहाल हों, नागरिक स्वस्थ हों. लेकिन ऐसा करने के लिए हमें आयातित बीज, खाद और बड़े पैमाने पर कीटनाशक के उपयोग की जरूरत नहीं है. हम जैविक खेती, जैविक खाद के जरिए भी इसे कर सकते हैं. इसके उपयोग से उपजे अनाज न सिर्फ हमारी खाद्य जरूरतों को पूरा करेंगे बल्कि हमें बेहतर पोषण भी मिलेगा. हमारे किसान कर्ज के बोझ से भी बचेंगे.
मिड डे मिल में बड़े पैमाने पर अनाज की आवश्यकता होती है, क्योंकि यह योजना सारे देश में संचालित की जा रही है. ऐसे में बच्चे भी कीटनाशक युक्त भोजन ग्रहण करेंगे ही,आखिर बच्चों को कीटनाशक के बढ़ते प्रभाव से कैसे अवगत कराया जाये, और इससे बचाव का क्या रास्ता है?
योजना अच्छी है, इसने ग्रामीण और शहरी गरीब बच्चों को स्कूल से जुड़ने में बहुत मदद मिली है. लेकिन इस योजना में स्थानीयता को महत्व दिये जाने की जरूरत है. ऐसी योजनाओं को सिर्फ इसलिए न संचालित करें कि बच्चों को खाना देने के नाम पर कुछ भी खिला दिया जाये, और सिर्फ बड़ी कंपनियों को फायदा हो. एक तरफ हम बच्चों को खेत से हटा रहे हैं, और दूसरी तरफ हम खाद्य सुरक्षा और पोषण की बात करते हैं. क्या ऐसा नहीं किया जा सकता कि प्रत्येक स्कूल में स्थानीय स्तर पर उपजाये गये अनाज, साग-सब्जी से खाना पके ताकि बच्चों को पोषणयुक्त भोजन भी मिले और वह ज्ञान विज्ञान, मिट्टी, कीटाणु आदि के विषय में जानकारी प्राप्त करे. इसके लिए प्रत्येक स्कूल में सागवाड़ी शुरू किये जाने की जरूरत है. स्कूल के आसपास के क्षेत्र को प्राइमरी न्यूट्रीशन सोर्स के रूप में विकसित किये जाने की जरूरत है, ताकि बच्चों को पोषणयुक्त भोजन मिले और स्थानीय लोगों को रोजगार सुनिश्चित हो.
लेकिन सारण में घटी घटना के बाद और इसके पहले भी बच्चों को डिब्बा बंद खाना दिये जाने की मांग जोर–शोर से उठ रही है?
देखिए कुछेक इलाकों के लिए यह सही हो सकता है, कुछेक संस्थाएं जैसे कि अक्षय पात्र अपनी जिम्मेवारी समझते हुए बच्चों को गर्म और पोषण युक्त खाना मुहैया कराने की दिशा में अहम प्रयास कर सकती हैं. लेकिन यह व्यवहारिक नहीं है. केंद्रीकृत प्रणाली अपनाने से बच्चों को बेहतर खाना नहीं दिया जा सकता. इसे मैं एक तरह के साजिश के रूप में ही देखती हूं ताकि बच्चों को गर्म पका हुआ खाना न मिले, विभिन्न स्कूलों में महिलाओं के हाथ से गर्म और पोषण युक्त खाना दिये जा रहा है, उसे बंद कराया जाये.
यह उचित नहीं होगा. खाना कभी भी बाजारी वस्तु नहीं हो सकता. गरीबों को स्वस्थ पोषण युक्त भोजन का उतना ही अधिकार है, जितना कि अमीरों को और यह स्थानीयता को सहेजते हुए ही संभव हो सकता है. अगर आज डिब्बा बंद खाने की इजाजत दे दी गयी, तो शुरू में तो सबकुछ ठीक चलेगा लेकिन आगे चलकर यह फास्ट फूड और बिस्कुट व पावरोटी में तब्दील हो जायेगा. इसलिए स्थानीय स्तर पर ही इसका प्रबंध किया जाना चाहिए ताकि किसानों व ग्रामीणों को रोजगार भी मिले और बच्चों को पोषण युक्त भोजन भी.
मिड डे मिल योजना को सुचारू रूप से संचालित किये जाने में पंचायतों की भूमिका किस रूप में देखती हैं?
अगर पंचायत को इस योजना के कार्यान्यवयन सौंप दिया जाये तो इससे बेहतर कुछ नहीं होगा. पंचायत अपने स्कूल की जरूरतों के मद्देनजर स्थानिय स्तर पर उपलब्ध भूमि से न सिर्फ खाद्यान्न सुरक्षा सुनिश्चित करा सकता है,बल्कि लोगों की मांग के अनुरूप फसल, साग–सब्जी का उत्पादन कर बेहतर भोजन मुहैया करा सकता है. हमें न तो डिब्बाबंद खाने की जरूरत है, और न ही किसी कंपनी को मिड डे मिल मुहैया कराने की जिम्मेवारी और इसकी गुणवत्ता को सुनिश्चित करने के लिए आपाधापी मचाने की. हम जब माफिया और बिल्डर को जमीन दे सकते हैं तो आखिर क्यों अपने बच्चों को बेहतर भोजन देने के लिए सामुदायिक खेती शुरू नहीं कर सकते. यदि कुछेक एकड़ भूमि स्कूल के लिए अन्न उपजाने के नाम पर दे दिया जाये तो हमारी दिक्कते दूर हो सकती हैं. हमें बेहतर भोजन भी मिलेगा और रोजगार भी. इस कार्य में महिला समूहों का उपयोग किया जा सकता है.