भारत की भूमि प्राचीन काल से ही विभिन्न धर्मो और संप्रदायों तथा मत-मतांतरों के उद्भव और प्रसार की साक्षी रही है. विभिन्न धार्मिक विचारों में परस्पर सहिष्णुता और सह-अस्तित्व भी रहा है तथा एक-दूसरे से संवाद भी होता रहा है. लेकिन, आपसी संघर्षो, खूनी झड़पों और भयावह हिंसा की उपस्थिति भी इस इतिहास में रही है. अक्सर राज्य- पहले राजा-महाराजा, और अब लोकतांत्रिक सरकार- भी इस परंपरा में बड़ी भागीदारी निभाता रहा है. ऐसे में विवाद स्वाभाविक परिणति होते हैं. रामपाल प्रकरण भी इसी श्रृंखला की नवीन कड़ी है. ऐसे मामले हमारे सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और प्रशासनिक वातावरण की समीक्षा की आवश्यकता को भी रेखांकित करते हैं. रामपाल प्रकरण और उसके बहाने ऐसे विवादों के महत्वपूर्ण पहलुओं पर विमर्श आज के समय में..
सरकारें जिम्मेवारी निभाने में फेल होती हैं तो बाबा पैदा होते हैं
देखा गया है कि आमतौर पर ऐसे बाबाओं के शिष्य दलित और निचली जातियों के होते हैं. ऐसे लोग, जिन्हें सरकार से मदद नहीं मिल पाती है, जिनके मर्ज का इलाज सरकार मुहैया नहीं करा पाती है, निराश होकर बाबाओं की शरण में आ जाते हैं. लोगों को लगता है कि जिस बाबा के पास बड़े-बड़े नेता जा रहे हैं, माथा झुका रहे हैं, आशीर्वाद मांग रहे हैं, ऐसे बाबा में कुछ तो चमत्कारिक शक्ति होगी ही..
लंबे ड्रामे के बाद आखिरकार हरियाणा पुलिस ने संत रामपाल को गिरफ्तार कर पंजाब हरियाणा हाइकोर्ट में पेश कर ही दिया. अदालत ने उसे 28 नवंबर तक जेल भेज दिया है. अब देखना होगा कि हरियाणा पुलिस रामपाल के खिलाफ कितने समय में चार्जशीट दायर करती है. देखना होगा कि आरोप तय होने के बाद अदालत में कितने समय में मामले का निपटारा होगा. देखना होगा कि संत रामपाल के मामले में इंसाफ होने में कितना वक्त लगेगा. लेकिन, इन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या अब रामपाल जैसे अन्य संतों के खिलाफ संबंधित राज्य सरकारें सख्त कदम उठाएंगी और पुलिस को समय रहते कार्रवाई का निर्देश देगी? और क्याभविष्य में फिर किसी ‘संत’, ‘मौलवी’ या अन्य धर्मगुरु का दुस्साहस सामने नहीं आयेगा? देखना होगा कि कुछ राज्यों में बड़ी संख्या में कुल गये आश्रमों की जांच होती है या नहीं. उनकी संपत्ति की, उनके सुरक्षा दस्तों के हाथों में टंगी बंदूकों की और उन्हें करोड़ों रुपये का चंदा देनेवाले अनुयायियों की जांच होती है या नहीं. यह भी देखना होगा कि कोई राजनीतिक दल या उसका नेता अब किसी संत या इमाम से वोट मांगने जाता है या नहीं. अब किसी संत को सरकार की तरफ से सुरक्षा मिलती है या नहीं.
इतने सारे सवाल इसलिए उठाये जा रहे हैं, क्योंकि संत रामपाल पहले संत नहीं हैं, जिन्हें अदालत का सम्मान नहीं करने, सरकारी कामकाज में बाधा डालने, भक्तों को भड़काने, लोगों की जान मुश्किल में डालने और तोड़फोड़ एवं आगजनी को बढ़ावा देने के आरोप में पकड़ा गया हो. जब भी कोई रामपाल जैसा संत पकड़ा जाता है, तो इसी तरह मीडिया में उसका कवरेज होता है, इसी तरह मीडियाकर्मियों की पिटाई होती है और बाद में मीडिया, पुलिस और अदालतें उस संत को भूल जाती हैं. कुछ समय बाद उसकी ‘दुकान’ फिर से चलने लगती है. और एक नये संत रामपाल के पकड़े जाने पर फिर से यही कहानी दोहरा दी जाती है.
ऐसा शायद इसलिए होता है, क्योंकि आज हर राजनीतिक दल के कुछ अपने ‘संत’ होते है. हर बड़े राजनेता का एक अपना ‘संत रामपाल’ होता है. हर संत रामपाल के पास अपना एक वोट बैंक होता है, जो चुनाव के समय महत्वपूर्ण हो जाता है और चुनाव जीतनेवाला दल अगले पांच सालों तक संत का शुकराना अदा करता रहता है. बाल ब्रह्मचारी और चंद्रास्वामी से लेकर बाबा राम रहीम और संत रामपाल तक यह सिलसिला अनवरत चल रहा है. खेमेबाजी इतनी साफ हो गयी है कि बाबा रामदेव खुल कर नरेंद्र मोदी का समर्थन करते हैं. जगत्गुरु शंकराचार्य कांग्रेस के नजदीकी बताये जाते हैं. संत आसाराम खुद को भाजपा के करीबी बताते रहे हैं.
हरियाणा में एक बाबा राम रहीम भी हैं. उन पर एक पत्रकार की हत्या से लेकर बलात्कार तक के आरोप हैं. मामले की सीबीआइ जांच कर रही है. बाबा राम रहीम कितने चमत्कारिक हैं, यह तो पता नहीं, लेकिन चुनावों के समय हवा की दिशा जरूर सूंघ लेते हैं. पिछली बार कांग्रेस का समर्थन किया था (हुड्डा जीते थे), इस बार भाजपा का साथ दिया (पार्टी जीती). हैरानी की बात है खुद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह इस बाबा से समर्थन मांगने पहुंचे थे और जीतने पर 40 भाजपा विधायक चमचमाती गाड़ियों से बाबा की चौखट पर शुक्रिया अदा करने पहुंचे थे. बाबा राम रहीम अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वच्छता अभियान से अभिभूत होकर सफाई करने भी निकले हैं. हाल ही में मुंबई में झाड़ू लगा रहे थे. यह एक उदाहरण मात्र है, लेकिन बताता है कि कैसे संत सत्ता का इस्तेमाल करते हैं और सत्ता संतों का इस्तेमाल करती है.
पिछले साल आसाराम की गिरफ्तारी के समय मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार के कुछ मंत्री किस तरह ढाल बनने की कोशिश कर रहे थे, यह सबने देखा था. अगर नरेंद्र मोदी ने (जो उस समय भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे) अपने गुजरात में आसाराम के खिलाफ सख्त कार्रवाई नहीं की होती, तो आसाराम को कुछ रियायतें मिल जातीं. लेकिन, आसाराम ने राजस्थान में उस समय की अशोक गहलोत सरकार को हराने की अपील की थी, लिहाजा वहां भाजपा नेता आसाराम के खिलाफ बोलने से खुद को रोकते रहे. यह और बात है कि राजस्थान में भाजपा सरकार आने के बाद भी आसाराम की मुश्किलें आसान नहीं हुई, क्योंकि तब तक सीबीआइ आरोपपत्र दायर कर चुकी थी और मामला अदालत के पास पहुंच गया था.
संत रामपाल चाहते तो अदालत में हाजिर हो सकते थे. आखिर मामला अदालत की अवमानना का है, जिसमें अदालत अक्सर यही उम्मीद करती है कि आरोपी कठघरे में खड़े होकर माफी मांग ले और मामले को रफा-दफा कर दिया जाये. लेकिन, संत रामपाल को लगा होगा कि जिन नेताओं को वे आशीर्वाद देते हैं, वे अदालतों में तब तक नहीं जाते, जब तक कि ऐसा करना मजबूरी न हो जाये, तो फिर उन्हें पहले या दूसरे फरमान के बाद ही क्यों हाजिर हो जाना चाहिए! हमने देखा है कि कोई आरोप लगने पर नेताजी कैसे नखरे करते हैं, उसे राजनीतिक साजिश करार देते हैं, अदालतों के बाहर शक्ति प्रदर्शन करते हैं, अदालत जब जेल भेजती है तो सीने में अचानक दर्द हो जाता है और अस्पताल में भर्ती हो जाते हैं, डॉक्टर भी ऐसा सर्टिफिकेट बना देता है कि नेताजी जेल की अवधि अस्पताल में बिता देते हैं और वहां से उनकी राजनीति चलती रहती है.
पुलिस पूछताछ में रामपाल ने माना कि उसका दिमाग घूम गया था, बुद्धि भ्रष्ट हो गयी थी, इसलिए उसने अदालत की अवमानना वाले मामले में पुलिस प्रशासन से पंगा ले लिया. लेकिन बड़ा सवाल यह है कि उसकी बुद्धि इस तरह भ्रष्ट क्यों हुई? देखा गया है कि आमतौर पर ऐसे बाबाओं के शिष्य दलित और निचली जातियों के होते हैं. ऐसे लोग, जिन्हें सरकार से मदद नहीं मिल पाती है, जिनके मर्ज का इलाज सरकार मुहैया नहीं करा पाती है, निराश होकर बाबाओं की शरण में आ जाते हैं. लोगों को लगता है कि जिस बाबा के पास बड़े-बड़े नेता जा रहे हैं, माथा झुका रहे हैं, आशीर्वाद मांग रहे हैं, जिनके आश्रम लगातार फैलते जा रहे हैं, ऐसे बाबा में कुछ तो चमत्कारिक शक्ति होगी ही. कथित धार्मिक और दूसरे चैनलों पर आधे घंटे का वक्त खरीद कर ऐसे बाबा अपने चमत्कार का प्रदर्शन करते हैं और अपनी शक्तियों की मार्केटिंग भी. इस दौरान दिखाया जाता है कि कैसे बाबा की शरण में आने से किसी भक्त की जिंदगी बदल गयी, सारी परेशानियां दूर हो गयी.
निष्कर्ष साफ है, जहां सरकारें अपनी जिम्मेवारियां निभाने में विफल रहती है, वहां ऐसे बाबा पनपते हैं. जहां हिंदू धर्म के ठेकेदार दलितों से दूरी बनाते हैं, वहां ऐसे बाबा पनपते हैं. बाबा के भक्त नेता के वोट बैंक बनते हैं. जितने ज्यादा भक्त, उतना ही ज्यादा राजनीतिक प्रभाव. समय के साथ भक्त भी बढ़ते जाते हैं और उसी अनुपात में बाबा का प्रभाव भी. इसके बाद तो पूरी सरकार ही बाबा के साथ हो जाती है, तो फिर समाज अपनी आंखें मूंद लेता है, विरोध करनेवाले किनारे कर दिये जाते हैं और बाबा का रसूख हावी होता जाता है.
इसी हरियाणा का उदाहरण है. चौटाला की पार्टी के एक विधायक होते थे- बाली पहलवान. उन पर हत्या का आरोप लगा. रोहतक पुलिस को वे तीन दिन तक नचाते रहे. आखिरकार बाली पहलवान ने जुलूस निकाला और अदालत के बजाय पुलिस के सामने आत्मसमर्पण किया. बाबा राम रहीम भी सीबीआइ अदालत में तमाम तामझाम के साथ पेश होते रहे हैं. कारवां में इतनी महंगी गाड़ियों का काफिला चलता है कि राष्ट्रपति का कारवां शरमा जाये. पंजाब और हरियाणा में ऐसे डेरों और आश्रमों की संख्या सौ से ज्यादा है, जिनके प्रमुखों की संपत्ति संदेह के घेरे में है. इसीलिए यह देखना महत्वपूर्ण हो जाता है कि अब संत रामपाल के बहाने ऐसे बाबाओं के खिलाफ जांच की शुरुआत होगी या बाबा के साथ वोट की राजनीति चलती रहेगी?
विजय विद्रोही
कार्यकारी संपादक
एबीपी न्यूज
धर्म व राजनीति के घालमेल से पनपते स्वयंभू बाबा
आधुनिकता के इस दौर में पहले की तुलना में लोगों का जुड़ाव धर्म की ओर अधिक बढ़ रहा है. इसकी वजह सामाजिक बिखराव, एकल परिवारों का बढ़ता चलन और तेज होती जीवन-शैली है. लोगों की इस परेशानी से बाबा वाकिफ हैं. इसी का फायदा उठा कर वे धर्म की आड़ में करोड़ों का साम्राज्य स्थापित कर लेते हैं.
हरियाणा के हिसार स्थित सतलोक आश्रम के तथाकथित संत रामपाल की गिरफ्तारी के बाद देश में बाबाओं के बढ़ते प्रभाव पर एक बार फिर चर्चा तेज हो गयी है. इससे पहले आसाराम ने भी गिरफ्तारी से बचने के लिए कई तरह के हथकंडे अपनाये थे. काफी हो-हल्ले के बाद पुलिस को उन्हें भी गिरफ्तार करना पड़ा था. आसाराम अब भी जेल में हैं. यह सिलसिला सिर्फ आसाराम और रामपाल पर ही खत्म नहीं होता, बल्कि इस कड़ी में और भी कई तथाकथित बाबा शामिल हैं.
दरअसल, समाज के आधुनिक होने के बावजूद इन धार्मिक बाबाओं की ताकत के बढ़ने की मुख्य वजह है- लोगों के सामने आनेवाली कई तरह की कठिनाइयां. आधुनिक होती जीवनशैली के कारण लोग कई नये तरह की समस्याओं से घिर रहे हैं. ऐसे में उनका झुकाव धर्म की तरफ होने लगता है. ये बाबा लोग ऐसे लोगों की भावनाओं को अच्छी तरह से समझते हैं और उसी अनुरूप प्रवचन सुनाकर उन्हें फौरी तौर पर संतुष्ट करने की कोशिश करते हैं. इससे मिलनेवाली संतुष्टि के कारण ही कई और तरह के बंधन उत्पन्न होते हैं, जिनके चलते लोग ऐसे बाबाओं के चंगुल में फंस जाते हैं. इस तरह से बाबाओं के पास उनके भक्तों का एक भक्त-समूह तैयार हो जाता है. जाहिर है कि किसी भी समूह की अपने तरह की एक ताकत होती है. इसका मानसिक असर दूसरे लोगों पर भी पड़ता है और भक्तों की तादाद धीरे-धीरे और भी बढ़ती जाती है. यही नहीं, इससे लोगों में सुरक्षा की भावना भी उत्पन्न होने लगती है और वे धीरे-धीरे हर बात के लिए बाबाओं पर निर्भर हो जाते हैं.
इन बाबाओं से आम लोगों का ही शोषण होता है. संपन्न लोग अपनी जीवन-शैली से उत्पन्न होनेवाली समस्याओं के कारण इनसे जुड़ते हैं, तो गरीब अपनी गरीबी के कारण. भक्तों का यह समूह बाबा के लिए डेमोग्राफिक वोट बैंक में तब्दील हो जाता है. राजनेता फिर चुनावी फायदे के लिए बाबाओं की शरण में पहुंचने लगते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि बाबा के फरमान का सियासी लाभ मिल सकता है. इससे बाबाओं की ताकत और बढ़ जाती है. अक्सर चुनावों के समय विभिन्न राजनेता बाबाओं का समर्थन हासिल करने के लिए उनके दरबार में पहुंचते रहते हैं. यही वजह है कि बाबा खुद को कानून से ऊपर समझने लगते हैं. आश्रम के संचालन और अपना दम-खम दिखाने के लिए निजी सेना बनाते हैं. सिलसिला आगे बढ़ता है और भक्तों के समूह एवं राजनीतिक संरक्षण में बाबा खुद को भगवान मानने लगते हैं. लोगों की धार्मिक भावनाओं का फायदा उठा कर बाबा पहले गैरकानूनी तरीके से जमीनों पर कब्जा कर आलीशान आश्रम बनाते हैं और फिर धार्मिक उपदेश के नाम पर अपना प्रभाव बढ़ाते हैं. जब बाबाओं के भक्तों की तादाद बढ़ने लगती है, तो इसकी आड़ में खुद को कानून से ऊपर समझने लगते हैं. वे सोचते हैं कि छोटे-मोटे अपराध के लिए उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता है. यही नहीं जब बाबा के भक्त राजेनता से लेकर प्रशासनिक अधिकारी हों, तो फिर कौन क्या बिगाड़ सकता है. इसी कारण कुछ ही वर्षो में बाबा करोड़ों रुपयों का साम्राज्य खड़ा कर लेते हैं. निश्चित रूप से यह चलन लोकतंत्र और समाज के लिए काफी चिंता की बात है.
आधुनिकता के इस दौर में पहले की तुलना में लोगों का जुड़ाव धर्म की ओर अधिक बढ़ रहा है. इसकी वजह सामाजिक बिखराव, एकल परिवारों का बढ़ता चलन और तेज होती जीवन-शैली है. बाबा लोगों की इस परेशानी से वाकिफ हैं. इसी का फायदा उठा कर बाबा धर्म की आड़ में करोड़ों रुपये का साम्राज्य स्थापित कर लेते हैं. संत रामपाल के आश्रम की तसवीरों को देख कर लग रहा था कि वहां भीड़ जमा होती थी. गरीब लोगों के पास कोई विकल्प नहीं है. इसी मजबूरी का फायदा ऐसे संत उठाते हैं. यही वजह है कि अधिकांश आश्रमों में खाने और रहने की मुफ्त व्यवस्था के साथ चिकित्सा सुविधा भी उपलब्ध होती है.
भारत में राजनीति और धर्म का घालमेल हो गया है. चुनावी राजनीति में राजनेताओं में असुरक्षा की भावना होती है और वे इसके लिए धार्मिक बाबाओं का सहारा लेते है. बाबाओं और नेताओं की मिलीभगत के कारण ही देश में कई स्वयंभू बाबा बन गये हैं. साथ ही संचार माध्यमों के विकास ने भी बाबाओं की पहुंच को आम जनता तक काफी आसान बना दिया है. राजनेताओं से मुलाकात को बाबा काफी प्रचारित करते हैं और इससे भी भक्तों के बीच बाबा के शक्तिशाली होने का अहसास होता है.
यही नहीं बाबा प्रवचन के मीठे बोल से लोगों का दिल जीतने के साथ ही ऐसा आडंबर बनाते हैं कि भक्तों को यह अहसास हो जाये कि वे उनके तारणहार हैं. अगर मीडिया का दबाव न हो, तो ऐसे बाबाओं पर कानूनी शिकंजा कसना मुश्किल हो जायेगा. ऐसे बाबाओं से बचने के लिए लोगों को जागरूक होना होगा. साथ ही धार्मिक आश्रमों के कामकाज पर निगरानी रखने की व्यवस्था बनानी होगी और नेताओं और बाबाओं की मिलीभगत को खत्म करना होगा. चुनावों को प्रभावित करने की बाबाओं की ताकत के कारण ही ऐसे स्वयंभू संतों की संख्या बढ़ती जा रही है. यह स्थिति न तो लोकतंत्र के लिए ठीक है और न ही समाज के लिए अच्छी है. अगर इस दिशा में गंभीरता से विचार नहीं किया गया, तो ऐसे कई रामपाल समय-समय पर सामने आते रहेंगे.
(विनय तिवारी से बातचीत पर आधारित)
शिव विश्वनाथन
समाजशास्त्री
संत संविधान से ऊपर नहीं
भारतीय समाज में संत व ज्ञानी लोगों का हमेशा से सम्मान रहा है. वे समाज को राह दिखाते हैं. भगवान से पहले अपनी प्रीत बढ़ाते हैं,और उसी प्रीत की बदौलत वे अनुयायियों का सम्मान पाते हैं, उनके प्रति लोगों की श्रद्धा बढ़ती है. धर्म का काम ही समाज को दिशा देना है. यह तो सदियों से चला आ रहा सिलसिला है. लेकिन इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि हम हर किसी को संत का दर्जा देने लगेंगे. पहले तो हमें यह देखना होगा कि वह व्यक्ति संत के श्रेणी में है या नहीं. आस्तिक होना एक बात है, धार्मिक होना दूसरी बात. आस्तिकता के साथ धार्मिकता का होना भी जरूरी है. यदि कोई व्यक्ति संत है, तो इस पद की अपनी मर्यादा होती है, और उसे मर्यादा में रह कर ही आचरण करना होता है. उसे अपने कर्म में सदाचार को भरना होता है. उसे कोई भी कर्म करते हुए यह महसूस करना चाहिए कि उसके आचरण को कोई देख रहा है. बाहर वाले देख रहे हैं, यह बात तो उसे ध्यान में रखना ही चाहिए. लेकिन इससे भी ज्यादा जरूरी है, भीतर भी कोई देख रहा है, खुद उसके भीतर, जिस पर काबू पाने के लिए ही उसने संत का चोला धारण किया है. सांसारिकता के मोह का परित्याग किया है. ऐसे में जब उसके अंदर यदि लोभ, मोह, काम की भावना बनी ही रह जाती है तो फिर वो संत कैसे हो सकता है. यदि वह संत है तो वह कोई ऐसा कर्म नहीं करेगा, जिससे धर्म के प्रति लोगों की आस्था कम हो.
इस समाज में आस्तिकता के साथ अंधविश्वास भी फैला हुआ है. यदि विश्वास पर अंधविश्वास का परदा पड़ जाता है, तो संत की पहचान में धोखा हो जाती है, और अज्ञान व अंधविश्वास के कारण यदि कोई व्यक्ति गलत संत (ढोंगी बाबा) के पास जाता है, और जब उसके विश्वास को चोट पहुंचती है, तो इससे धर्म को नुकसान होता है. धर्म के प्रति, धर्म से जुड़े लोगों के प्रति आस्था को चोट पहुंचता है. इसलिए प्रभु के प्रति विश्वास के साथ ही हमें अपने ज्ञान के चक्षु को भी खोल कर रखना होगा, ताकि ऐसे लोगों के प्रति समाज को जागरूक किया जा सके. जैसा कि मैने कहा कि धर्म का काम दिशा देना होता है, और जिस दिशा में धर्म बढ़ता है, समाज भी वैसा ही बनता है. संत न सिर्फ समाज बनाता है, बल्कि समाज व व्यक्ति विशेष के आध्यात्मिक और आत्मिक उन्नति का मार्ग भी प्रशस्त करता है. इसलिए बाहर के साथ भीतर की जागरूकता भी बनाए रखनी है. संत समाज, जोधार्मिकता का वाहक है, को तो विशेष तौर पर अपने आचरण को इस स्तर का बनाना होगा, ताकि उनके अनुयायियों की श्रद्धा किसी भी कीमत पर खंडित न होने पाये.
लेकिन यह बात भी सही है कि समाज में इस तरह के संत, जो अनुयायियों के आस्था को अपने आचरण से खंडित करते हों, गिने-चुने ही हैं. समाज में बहुत सारे अच्छे संत है, जो देश और समाज के लिए जीते हैं. परमात्मा के साथ अपने जुड़ाव के जरिए भक्तों के मन में उनके प्रति अपार श्रद्धा है. उनके जीवन में द्वेष, दुगरुण, अहंकार जैसे दोषों का कोई स्थान नहीं है. जिन लोगों में द्वेष, दुगरुण व अहंकार जैसी खामियां हैं, वे भला अपने अनुयायियों को इन दुर्गुणों से मुक्ति कैसे दिला सकते हैं.
अभी जिस संत के संदर्भ में ये सारी बाते हों रही हैं, उनके पास हथियारो का बड़ा जखीरा होने की बात भी कही जा रही है. उनके पास व्यापक संपदा होने की बात भी सामने आयी है. संत को भला किससे शत्रुता है, उसे भय की जरूरत कहां है? संत तो भाव से भरा होता है, और भगवान के प्रीत में लीन होता है. आखिर कोई भी संत अपने मर्यादा से बाहर कैसे जा सकता है? उसका दुरुपयोग कैसे कर सकता है?
धार्मिकता कभी समाज, संविधान और सरकार के खिलाफ नहीं हो सकती. कोई भी संत जैसे भगवान के विधान का उल्लंघन करने का अधिकारी नहीं हो सकता, ठीक उसी तरह वह देश के नागरिक होने के हैसियत से देश के कानून और संविधान के मर्यादा में भी बंधा होता है. देशभक्ति से बड़ी कोई चीज नहीं हो सकती. जो भी व्यक्ति लालच में पड़कर कानून का उल्लंघन करता है, वह अपना तो नुकसान कर ही रहा है, पूरे समाज, अपने धर्म और अपने अनुयायियों का नुकसान कर रहा है.
भारत युवाओं का देश है. धर्म के प्रति युवा पीढ़ी की आस्था बढ़ी है. वे धर्म से दिशा खोजते हैं. युवा मन बहुत ही कोमल होता है. वह विज्ञान को भी महत्व देता है, और धर्म के प्रति भी अपनी आस्था रखता है. ऐसे संतो के कारनामों से इन युवाओं के कोमल मन पर बहुत ही नकारात्मक असर पड़ता है. अंधभक्ति को नहीं, इस देश को देशभक्ति की जरूरत है. अंधभक्ति भ्रांति पैदा करती है, और देशभक्ति प्रेम बढ़ाती है.
आज बहुत सारे संत भक्त की आस्था की बदौलत खुद ऐशो-आराम की जिंदगी व्यतीत करते हैं. उनको चिंतन करना चाहिए कि यह सारी संपत्ति उनकी नहीं है. उनको यह सब इस सोच की बदौलत है कि ‘तेरा तुझको सौंप दिया, क्या लागे है मोरा’. अगर यह भाव है तो उनका जीवन सादगीपूर्ण होगा और भक्तों द्वारा दी गयी संपदा को वे देश और आम जनता के काम में लगायेंगे.
मीडिया की समाज को सशक्त करने में अहम भूमिका है. यह मीडिया ही है, जो लोगों को चौपाल पर, चाय की दुकान में, शौचालय या देवालय में समाज से जुड़ी समस्यायों और विभिन्न तरह की भ्रांतियों को दूर करने में मदद करता है. भारत को जगाने में और देश को आगे बढ़ाने में मीडिया की अहम भूमिका है. लेकिन इसी मीडिया की यह जवाबदेही भी है कि किसी भी मामले पर सभी पहलू को पूरी तरह से जांच-पड़ताल कर तथ्य जनता के सामने रखे. इससे गलत लोग बेनकाब होंगे और समाज की नजर में सच्चे संतो और देशभक्तों के सम्मान में बढ़ोतरी होगी.
(संतोष कुमार सिंह से बातचीत पर आधारित)
स्वामी चिदानंद सरस्वती जी
अध्यक्ष परमार्थ निकेतन आश्रम, ऋषिकेश