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जात-पात में बंटे पुलिस लाइन के चूल्हे

नीरज सहाय बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए क़ानून जाति नहीं देखता, इसलिए उम्मीद की जाती है कि क़ानून का राज क़ायम रखने के लिए ज़िम्मेदार पुलिस भी जात-पात से ऊपर उठकर काम करे. लेकिन, बिहार की राजधानी पटना में संसाधनों के घोर अभाव से जूझती पुलिस लाइन की हक़ीक़त कुछ और ही है. यहाँ पुलिस […]

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क़ानून जाति नहीं देखता, इसलिए उम्मीद की जाती है कि क़ानून का राज क़ायम रखने के लिए ज़िम्मेदार पुलिस भी जात-पात से ऊपर उठकर काम करे.

लेकिन, बिहार की राजधानी पटना में संसाधनों के घोर अभाव से जूझती पुलिस लाइन की हक़ीक़त कुछ और ही है.

यहाँ पुलिस के हज़ारों जवान अपनी-अपनी जाति के बैरक में रहना पसंद करते हैं. जाति विशेष के चूल्हे पर बना खाना ही पसंद करते हैं.

रहने और खानपान में भेदभाव और अस्वच्छ माहौल का असर ड्यूटी निभाने के तौर तरीक़े पर भी पड़ता है.

मानवाधिकार उल्लंघन के भी कुछ मामले सामने आते हैं.

पढ़िए पूरी रिपोर्ट

बिहार राज्य मानवाधिकार आयोग (बीएचआरसी) ने पुलिस लाइन की जातिवादी बैरक और रसोई पर कड़ा ऐतराज़ किया है.

अक्तूबर, 2014 में आयोग द्वारा जारी आदेश के जवाब में पुलिस मुख्यालय ने स्वीकार किया है कि पटना की न्यू पुलिस लाइन की रसोई और बैरक अलग-अलग जातियों में बंटी हुई है.

इससे पहले साल 2006 में तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी पुलिस लाइन के जातीय चूल्हे बंद कराने का निर्देश दिया था. लेकिन कोई फ़र्क़ पड़ा नहीं.

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मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपने क़रीब आठ साल के कार्यकाल में भी जातिवादी बैरक बंद नहीं करा सके और न ही पुलिसकर्मियों के रहने लायक़ स्वच्छ बैरक का निर्माण करा सके.

नहीं जलता सांझा चूल्हा

बीएचआरसी के एसपी अमिताभ कुमार दास पुलिस मुख्यालय की रिपोर्ट को निराशाजनक बताते हैं.

सितम्बर, 2014 को भेजी गई रिपोर्ट में आयोग को बताया गया है कि पटना की न्यू पुलिस लाइन की बैरक और रसोई जातीय आधार पर बंटी हैं.

बैरक नंबर तीन और छह में राजपूत और भूमिहार जाति के पुलिसकर्मी रहते हैं.

लेकिन बिहार पुलिस मेंस एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष जितेन्द्र नारायण सिंह इसे सिरे से ख़ारिज करते हैं.

जितेन्द्र सिंह कहते हैं कि यहाँ रहना अपने आप में एक चुनौती है. समस्याओं के बीच लोग अपनी सहूलियत के अनुसार रहते हैं.

आयोग ने दिया निर्देश

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आयोग की ओर से पुलिस मुख्यालय को वास्तविक फील्ड इनपुट प्राप्त करने की सलाह दी गई है.

साथ ही इसकी विस्तृत रिपोर्ट नवम्बर, 2014 तक जमा करने का आदेश भी दिया गया.

मानवाधिकार कार्यकर्ता प्रोफ़ेसर विनय कंठ के अनुसार बिहार में जातियों का रंग पुलिस की वर्दी के रंग से ज़्यादा गाढ़ा है, इसलिए जाति के चूल्हे बंद नहीं हो सकते.

विनय कंठ कहते हैं, ”जब-तक नेता जाति के चूल्हे पर रोटी सेकते रहेंगे, सरकारें न जातिमुक्त पुलिस बना सकेगी, न उनके चूल्हे बंद करा सकेंगी.”

सरकार के लिए यह कोई मुद्दा ही नहीं जान पड़ता है, इसलिए जब कोई शिकायत आती है, तब प्रशासन के कुछ हलक़ों में ज़रा-सी हलचल हो जाती है.

उसके बाद फिर वही शांति.

शिकायत

इस बार जो हलचल हुई है, उसकी वजह सुप्रीम कोर्ट के वकील राधाकांत त्रिपाठी की राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में दर्ज कराई गई एक शिकायत है.

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लेकिन, वकील की याचिका से सिर्फ़ समस्या का एक पहलू सामने आया है.

दूसरा पहलू पुलिसकर्मियों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी से जुड़ा है. इनकी रसोई में साफ़ सफ़ाई का अभाव है.

बैरक के ही किसी कोने में काम-चलाऊ रसोई में खाना पकता है.

यहाँ सफ़ाई की व्यवस्था नहीं होती. पटना पुलिस लाइन में मच्छर तक पलते हैं.

बैरक नंबर तीन के एक सिपाही कहते हैं कि पिछले साल कई पुलिसकर्मी डेंगू के शिकार भी हुए थे.

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