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किस ओर जाएगी शिव सेना की राजनीति?

आकार पटेल वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए महाराष्ट्र और हरियाणा में विधानसभा चुनावों के नतीजे आने से पहले हर सर्वेक्षण में भाजपा की जीत को पक्का बताया गया था. महाराष्ट्र में चुनाव से पहले शिव सेना और भाजपा का दशकों पुराना गठबंधन टूट गया था और इस लिहाज से चुनाव परिणाम दोनों […]

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महाराष्ट्र और हरियाणा में विधानसभा चुनावों के नतीजे आने से पहले हर सर्वेक्षण में भाजपा की जीत को पक्का बताया गया था.

महाराष्ट्र में चुनाव से पहले शिव सेना और भाजपा का दशकों पुराना गठबंधन टूट गया था और इस लिहाज से चुनाव परिणाम दोनों दलों के लिए राजनीतिक दिशा तय करने वाले होंगे.

महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के नतीजों के संदर्भ में शिव सेना के उत्थान, उसकी दशा और दिशा का विश्लेषण कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार आकार पटेल.

आकार पटेल का विश्लेषण

ओपिनियन पोल के मुताबिक़ भारत की सबसे ‘विचित्र’ राजनीतिक पार्टी को आने वाले चुनाव परिणाम में ख़राब ख़बर मिलने वाली है.

शिव सेना साल 2016 में अपनी 50वीं वर्षगांठ मनाने जा रही लेकिन लगता नहीं है कि ये पार्टी और कैडर के लिए ख़ुशी का वक़्त होगा.

शिव सेना का अस्तित्व एक ही राज्य में है लेकिन देश की अधिकांश पार्टियों के साथ यही स्थिति है.

यह पार्टी कई मायनों में विचित्र है. अव्वल तो यह स्ववित्त पोषित पार्टी है.

जातीय आधार

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महाराष्ट्र के बड़े शहरों में इसके दफ़्तर हैं. इन दफ़्तरों में मराठी बोलने वाले नौजवान हिंदू त्यौहार गणेश चतुर्थी का आयोजन करते हैं.

ये लोग अक्सर व्यापारियों से सुरक्षा के एवज में जबरदस्ती चंदा वसूलते हैं जिसका मतलब अमूमन उनसे मिलने वाली सुरक्षा से ही होता है.

पार्टी की ओर से किए जाने वाले धरना-प्रदर्शन और बंद में एक तरह के डर का अहसास होता है. ख़ासकर मुंबई जैसी जगहों पर जहां शिवसेना का मुख्यालय है और जहां ये सबसे ज़्यादा मज़बूत है.

इस पार्टी को 60 और 70 के दशक में भारत के करिश्माई नेताओं में से एक बाल ठाकरे ने खड़ा किया था. वह एक कार्टूनिस्ट थे और अपना नाम उपन्यासकार विलियम मेकपीस की तर्ज पर लिखने पर ज़ोर देते थे.

ठाकरे को मराठी में वैसे लिखते हैं जैसा भारतीय जनता पार्टी के नेता कुशाभाऊ ठाकरे लिखते थे.

ठाकरे एक पिछड़ी जाति चंद्रसेनिया कायस्थ प्रभुस से आते थे. उन्होंने जाति के आधार पर पार्टी का गठन नहीं किया जैसा कि देश की अधिकांश दूसरे पार्टियों ने किया.

मराठियों का आक्रोश

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उन्होंने मुंबई की तरक्की में पीछे छूट गए मराठियों के आक्रोश को मुद्दा बनाया. मुंबई का निर्माण 17वीं और 18वीं सदी में अंग्रेजों ने सूरत के बंदरगाह के बर्बाद होने के बाद किया.

चूंकि मुंबई में आबादी नहीं के बराबर थी और मराठियों में व्यापारी वर्ग नहीं था इसलिए अग्रेजों ने सूरत से बनियों को व्यापार संभालने के लिए बुलाया.

जल्दी ही सूरत के अन्य व्यापारी समुदाय मसलन पारसी, बोहरा, खोजा और मेमन भी आ गए.

मराठी मछुआरों के गांव हमेशा से यहां थे लेकिन शहर बसने के साथ दूसरे लोग भी यहां आए. हालांकि इन लोगों का योगदान व्यापार के क्षेत्र में नहीं था.

गुजराती इस बात को जानते थे और 1950 के दशक तक उन्हें इस बात को लेकर मुगालता भी था मुंबई कभी गुजरात का हिस्सा हो सकता है. बांबे मर्चेंट चैंबर ने इसके पक्ष में मत भी दिया था.

बी आर अंबेडकर ने मुंबई में रहने वाले गुजरातियों के बंदोबस्त के बारे में खुलासा करते हुए एक बेहतरीन लेख लिखा था. उन्होंने यहां के गुजरातियों के बंदोबस्त के आधार को अंग्रेजों से जोड़ा था.

मुस्लिम विरोध

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20वीं शताब्दी के अंतिम दौर में मराठियों को यह लगने लगा कि वे अन्य पेशों में भी पीछे छूटते जा रहे हैं. देश के दूसरे हिस्से से आए हुए लोग नौकरियों के साथ-साथ व्यवसाय में भी उन्हें मात दे रहे हैं.

ठाकरे ने मराठियों के लिए मुंबई के सिद्धांत पर शिवसेना का गठन किया. इस मुहिम में उन्हें मराठियों को ज़ोरदार साथ मिला जो 2012 तक उनकी मृत्यु तक कायम रहा.

वे कोई ज़मीनी नेता नहीं थे और उन्होंने अपने साथ लोगों को अपने भाषणों के दम पर बांध कर रखा था.

जैसा कि मैंने कहा कि वे एक करिश्माई नेता थे. वे खुलेआम शराब पीते थे, सिगार पीते थे और इस बात पर ज़ोर देते थे कि वे भगवान को नहीं मानते हैं, ख़ासकर उनकी पत्नी की मृत्यु के बाद और किसी भी मायने में रूढ़िवादी नहीं थे.

अस्सी के दशक के अंतिम सालों में उन्होंने देखा कि बाबरी मस्जिद आंदोलन के बाद मुस्लिम विरोधी भावनाएं भड़क रही हैं तब उन्होंने अपनी किस्मत का दांव भाजपा के साथ लगाया. हालांकि तब भी शिव सेना में कुछ मराठी बोलने वाले मुस्लिम नेता थे.

बाबरी मस्जिद को गिराने के बाद 1992 में मुंबई में भड़के दंगों में शिव सेना और इसके नेतृत्व पर न्यायमूर्ति श्रीकृष्ण आयोग के रिपोर्ट में आरोप लगाए गए थे.

पराभव की शुरुआत

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हालांकि पार्टी को इससे फ़ायदा हुआ था वह भाजपा के साथ मिलकर साल 1995 में महाराष्ट्र में सरकार बनाने में कामयाब हुई थी.

ये कांग्रेस की राज्य में पहली वास्तविक हार थी. तब से राज्य में ये दो पार्टियां स्वाभाविक सहयोगी के रूप में मौजूद हैं.

इससे शिवसेना का मुस्लिम विरोधी रवैया भी विकसित हुआ जबकि भाजपा का तो मूल रूप से था ही.

ये गठबंधन बराबरी का नहीं था. भाजपा ज़मीन पर शिव सेना से कहीं अधिक मज़बूत थी. शिव सेना बिखरी, अव्यवस्थित और निरंकुश थी.

लेकिन शिव सेना भाजपा पर भारी पड़ती थी और 2004 के बाद जब भाजपा सत्ता से बाहर हुई तो यह जाहिर भी हुआ.

नरेंद्र मोदी के उभार के साथ भाजपा ने शिव सेना को अपने से दूर कर लिया और चुनाव के नतीजे संभवत: इस सबसे विचित्र और अनोखी पार्टी के पराभव की शुरूआत हो.

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