प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के लिए राष्ट्रीय स्वयंसवेक संघ ने नरेंद्र मोदी का समर्थन किया था.
क्या नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद संघ का राजनीति में दखल बढ़ा है? या फिर संघ की कोई ख़ास रणनीति है?
नरेंद्र मोदी की एक ख़ासियत ये भी है कि वह अपने सामने किसी को बहुत ज़्यादा तरजीह नहीं देते. लेकिन क्या वह संघ की उपेक्षा कर पाएंगे?
या फिर प्रधानमंत्री मोदी संघ के सबसे बेहतरीन प्रचारक साबित हो रहे हैं? आख़िर में संघ के साथ मोदी के रिश्तों का सच है क्या?
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी राजनीति को नजदीक से जानने वाले वरिष्ठ चिंतक केएन गोविंदाचार्य का आकलन. पढ़िए विस्तार से.
गोविंदाचार्य का विश्लेषण, विस्तार से
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार को बने करीब चार महीने ही हुए हैं. शासन में ताजी बयार साफ़ दिख रही है. नॉन-गवर्नेंस वाला दौर अब बीत गया है.
वैसे जनता की अपेक्षाएं तो बहुत हैं. लेकिन इतने थोड़े समय में सरकार के कामकाज का मूल्यांकन करना बेहतर नहीं रहेगा.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीयत बेहतर दिख रही है. अब स्वच्छता के मुद्दे को ही लीजिए, नरेंद्र मोदी ने पूरे देश का आह्वान किया. उन्होंने दलगत राजनीति से उपर उठकर सभी से अपील की. राजनीति से उपर उठकर सोचना उनकी नीयत को बताता है.
आशाएं जितनी ज्यादा बांध दी गईं, आम चुनाव के दौरान जिस तरह का माहौल बनाया गया, उसके चलते लोग जल्दी मायूस हो जाते हैं. लेकिन उपचुनाव परिणामों को मोदी के कामकाज से जोड़कर नहीं देखा जा सकता. उपचुनाव की तासीर ही अलग होती है.
हरियाणा और महाराष्ट्र में भी चुनाव हो रहे हैं. हरियाणा में पार्टी राजनीति तो कभी भी गहरी नहीं रही. छोटे-छोटे गुट ही आगे बढ़ते रहे. हरियाणा से अखिल भारतीय स्थिति की बात नहीं हो सकती.
संघ और सरकार की दूरी
महाराष्ट्र में वर्षों बाद एक नई स्थिति उभरी है. तो देखना होगा कि कौन क्या कर पाता है. लेकिन इन दोनों राज्यों के परिणाम को भी नरेंद्र मोदी जी से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए. स्थानीय तौर पर उभरी नई राजनीति को केंद्र की राजनीति से जोड़ कर देखना उचित नहीं होगा.
हालांकि मोदी सरकार के बीते चार महीने के शासन के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने सरकार में हस्तक्षेप करने के बजाए अपने दूसरे संगठनों में सुधार करने की कोशिश करने को अपना लक्ष्य बनाया है. संघ के लोग ये मानते हैं कि सरकार में भी स्वयंसेवक ही हैं, उन्हें सब कुछ मालूम है ही. संघ के लोग सरकार से दूरी बनाए हुए हैं.
संघ के लोगों ने ये भी सोचा हुआ है कि वे दो साल तक कुछ भी नहीं बोलेंगे. इस दौरान वे देखते रहेंगे. उसके बाद जैसी स्थिति होगी, वैसी वे आपस में बातचीत करेंगे.
हालांकि आलोचकों का कहना है कि संघ अब सरकारी शिक्षण संस्थानों में रद्दोबदल करना चाहता है, अपने लोगों को शैक्षणिक केंद्रों में लाना चाहता है, कइयों को हटाना चाहता है. तो मेरा यही मानना है कि किसी को लाने-हटाने में ग़लत क्या है. लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनादेश का सम्मान तो इसी बात में है कि जनादेश की भावना के मुताबिक चीज़ें चलें.
संघ की कोशिश
जहां तक शिक्षा की भी बात है, भारतीय जीवन-मूल्यों के मुताबिक शिक्षा हो, इसपर आपत्ति किसी को भी क्यों होनी चाहिए? ये तो विचारधारा का कठमुल्लापन ही होगा कि शिक्षा जड़ता की दिशा में चले. शिक्षा और ज्ञान तो एकाधिकार की वस्तु है ही नहीं.
जहां तक संघ के किसी प्रचारक की सियासी कामयाबी की बात है, तो इसके बारे में हम लोग सोचते भी नहीं. मेरा मानना है कि पंडित दीन दयाल उपाध्याय सबसे कम समय तक जनसंघ के प्रमुख रहे, लेकिन सबसे सफल रहे. उन्होंने पार्टी को वैचारिक अनुष्ठान भी दिया और कार्य संस्कृति के दृष्टिकोण से ऊंचे मानक स्थापित किए.
हरेक की अपनी शिफत होती है. जैसे पंडित दीन दयाल उपाध्याय जी ने वैचारिक अनुष्ठान, कार्य संस्कृति और आचरण संहिता के बारे में ऊंचे मानदंड स्थापित किए. वैसे ही नरेंद्र मोदी सर्वाधिक मेहनती प्रधानमंत्री साबित हो रहे हैं. साथ ही मैसेज-इमेज सिग्नल्ड पालिटिक्स में उनसे माहिर व्यक्ति कोई दूसरा नहीं हुआ. ये उन्होंने प्रमाणित किया है.
मोदी और संघ का रिश्ता
हालांकि नरेंद्र मोदी के कुछ आलोचक ये मानते हैं कि वह अपने सामने किसी को टिकने नहीं देते हैं, पार्टी, संगठन यहां तक कि संघ के सामने उनका अपना अंदाज बुलंद रहता है, उनके इस अंदाज़ के चलते गुजरात में संघ को नुकसान भी हुआ है. कइयों को मोदी जी संघ से भी ऊपर नजर आने लगे हैं.
लेकिन जहां तक संघ की बात है तो, संघ हमेशा मानना है कि संगठन बड़ा होता है. संघ में व्यक्ति को संगठन से ऊपर नहीं माना जाता. उसकी सबसे बड़ी वजह तो यही है संगठन की ताक़त एक व्यक्ति की ताक़त से बड़ी होती है.
दरअसल, राजनीति का टाइम स्केल छोटा होता है. सत्ता का भी टाइम स्केल बेहद कम होता है. संघ का टाइम स्केल बहुत लंबा है. लंबे टाइम स्केल में, किसी भी एक व्यक्ति में चाहे कितनी भी प्रतिभाएं हों, उसकी अपनी सीमाएं रहती हैं.
जहां तक मोदी जी की आलोचनाओं का सवाल है, तो मैं केवल यही सोचता हूं कि नरेंद्र मोदी जी भी काम करते हुए सीखे होंगे. गुजरात के अपने अनुभवों को वे अखिल भारतीय स्तर पर दोहराएं, जरूरी नहीं है. संघ के लोग भी आशा करते हैं कि वो भी वक्त से सीखकर अपने और गुणों को बढ़ाएंगे और अपने दोषों को घटाएंगे.
उनके अब तक के करीब चार महीने के कार्यकाल का आकलन अटकलबाजी के रूप में होगा, ये उचित नहीं होगा. उनके कामकाज के समाकलन के लिए उन्हें साल- छह महीने का वक्त देना चाहिए. फिलहाल मैं तो इतना ही कहूंगा कि तेल देखिए, तेल की धार देखिए.
(बीबीसी संवाददाता ज़ुबैर अहमद से बातचीत पर आधारित)
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