पाकिस्तान में उदारवादी पत्रकारों की ज़िंदगी बहुत आसान नहीं है.
यहां ईशनिंदा का मुक़दमा लड़ रहे किसी व्यक्ति के बारे में लिखना पाप जैसा है और ज़ल्द ही आप भारी परेशानी में पड़ सकते हैं.
कुछ महीनों से पाकिस्तान में पत्रकारों के लिए माहौल काफ़ी ख़राब हो गया है, ख़ासकर उनकी ज़िंदगी तो और ख़तरे में है जो उदारवादी हैं.
बीबीसी उर्दू संवाददाता मोहम्मद हनीफ़ की रिपोर्ट-
गत मार्च लाहौर में एक टीवी पत्रकार रज़ा रूमी एक हमले में बाल बाल बच गए जबकि उनके ड्राईवर की मौत हो गई. रूमी अब विदेश चले गए हैं और नज़दीक भविष्य में उनके पाकिस्तान लौटने की कम ही संभावना है.
इसके बाद पाकिस्तान के मशहूर टीवी पत्रकार हामिद मीर को अप्रैल में हुए एक हमले में छह गोलियां लगीं और अब भी वो टीवी पर नहीं आते हैं. विदेश से इलाज कराने के बाद अभी भी वो कड़ी सुरक्षा में ज़ख़्मों से उबने की कोशिश कर रहे हैं.
इसी तरह एक और लोकप्रिय टीवी एंकर शाइस्ता वाहदी को रातों रात देश छोड़ कर भागना पड़ा.
उन पर आरोप लगा था कि उन्होंने अपने शो में एक ऐसा गाना प्रसारित किया था जिसमें पैग़म्बर के परिवार के ख़िलाफ़ अनादर व्यक्त किया गया था.
ईशनिंदा का चाबुक
लाहौर में एक पत्रिका के संपादक व प्रकाशक 49 वर्षीय शोएब आदिल की कहानी भी कुछ ऐसी ही है और अब वे सार्वजनिक जीवन से ग़ायब होना चाहते हैं या संभव हुआ तो देश छोड़ना चाहते हैं.
पिछले महीने जब उनके ख़िलाफ़ ईशनिंदा का मामला दर्ज हुआ तो पुलिस ने उनसे कहा कि वो घर नहीं लौट सकते हैं. जिस शहर में वो पले बढ़े अब वो वहां दिख भी नहीं सकते. उनके लिए यह शहर सुरक्षित नहीं रहा.
एक पत्रकार के रूप में आदिल धार्मिक चरमपंथ के मुखर आलोचक रहे हैं, लेकिन उनकी जान को ख़तरा तालिबान से नहीं है.
वो पाकिस्तान के ताक़तवर धार्मिक समूहों के निशाने पर रहने वालों में से एक हैं.
पिछले 14 वर्षों से आदिल एक मासिक पत्रिका ‘नया जमाना’ निकालते हैं, जो पाकिस्तान में उर्दू मीडिया की एक दुर्लभ उदारवादी आवाज़ है.
‘नया जमाना’ के पिछले अंक मानवाधिकार उल्लंघन के दस्तावेज जैसे लगते हैं.
उदाहरण के लिए, पत्रिका ने अपने जून अंक में मानवाधिकार वकील राशिद रहमान की मुल्तान में हुई हत्या को आवरण कथा के रूप में प्रकाशित किया था.
सात साल पहले का मामला
रहमान ईशनिंदा के अभियुक्त एक प्रोफेसर के वकील थे और अदालत में ही दूसरे पक्ष के वकील ने उन्हें धमकी दी थी कि यदि उन्होंने पैरवी करना बंद नहीं की तो वो अगली सुनवाई तक ज़िंदा नहीं बचेंगे.
और अगली सुनवाई के पहले ही रहमान को उनके कार्यालय में ही गोली मार दी गई.
‘नया जमाना’ में इस घटना को प्रकाशित करने के साथ ही आदिल पर मुश्किलों का पहाड़ टूट पड़ा, हालांकि उनका अंजाम रहमान जैसा नहीं हुआ.
लाहौर में अपने कार्यालय में दर्जनों मौलवियों के साथ पुलिस की एक टुकड़ी पहुंची. उनके हाथ में एक क़िताब ‘माई जर्नी टू हायर कोर्ट’ थी जिसे उन्होंने सात वर्ष पूर्व प्रकाशित किया था.
यह लाहौर हाई कोर्ट के जज मोहम्मद इस्लाम भट्टी की आत्मकथा थी जिसमें उन्होंने अपने अहमदी मत से ताल्लुक रखने का ज़िक्र किया था.
पाकिस्तान में इस समुदाय को 40 वर्ष पहले ही ग़ैर मुस्लिम क़रार दे दिया गया था और तभी से इसके सदस्य सरकारी और धार्मिक समूहों के निशाने पर रहते हैं.
आदिल कहते हैं, ”मौलवियों ने इस क़िताब की अन्य प्रतियों की तलाश में कार्यालय को तहस नहस कर दिया. इस दौरान पुलिस अधिकारियों ने बताया कि इंटरनेशनल काउंसिल फॉर डिफेंस ऑफ़ फाइनैलिटी ऑफ़ प्रोफ़ेटहुड ने उनके ख़िलाफ़ ईशनिंदा का मामला दर्ज करने की मांग की थी.”
क़ानून जिससे बच नहीं सकते
पाकिस्तान में यह कम ख़तरनाक संगठन माना जाता है, लेकिन इसका मुख्य उद्देश्य अहमदी सदस्यों को पकड़ना है. यह संगठन बहु सक्रिय नहीं है. अहमदियों के ख़िलाफ़ बना क़ानून इतना कड़ा है कि बचने का कोई मौका नहीं देता.
उन्हें शादी के निमंत्रण पत्र पर क़ुरान की कोई आयत लिखने या प्रार्थना को नमाज़ या मस्जिद को मस्जिद कहने भर से जेल में डाला जाता रहा है.
पाकिस्तान में यदि कोई किसी व्यक्ति की सावर्जनिक ज़िंदगी को बर्बाद करना चाहे तो उसे अहमदी या उनका समर्थक घोषित कर दीजिए.
काउंसिल के कार्यकर्ताओं की निगरानी में आदिल को पुलिस थाने लाया गया. उन्होंने जान पहचान वाले प्रिंट और टीवी पत्रकारों को फ़ोन किया और अंततः पुलिस ने आदिल पर कोई मामला दर्ज नहीं किया.
पुलिस ने उन्हें तब तक थाने में ही रुकने को कहा जब तक कि काउंसिल के कार्यकर्ता चले नहीं जाते. सुबह चार बजे जब वे चले गए तो पुलिस ने उन्हें घर न जाने की सलाह दी और वो थाने से सीधे दूसरे शहर को जाने वाली बस में सवार हो गए.
पुलिस ने उनसे कहा कि वो सार्वजिनक जीवन से बिल्कुल ग़ायब हो जाएं और अपने शहर लौटने के बारे में सोचें भी न.
अपने ही मुल्क में शरणार्थी
वो अगले कुछ हफ़्ते तक अपने मित्र के घर पर छिपे रहे जबकि उनका परिवार अपने अन्य रिश्तेदारों के यहां पनाह लिए रहा.
देश के शीर्ष मानवाधिकार कार्यकर्ता ने भी उन्हें छिपे रहने की सलाह दी. एक प्रभावशाली नेता ने उन्हें देश छोड़ने की सलाह दी और वीज़ा दिलाने में मदद का वादा किया.
आदिल को अब भी उम्मीद है कि उनके ख़िलाफ़ ईशनिंदा का मामला ख़त्म हो जाएगा. जस्टिस भट्टी लाहौर हाईकोर्ट के साथी जजों से भी मिले, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला.
आदिल अपने ही देश में शरणार्थी बन कर रहे हैं और मामले के शांत होने का इंतज़ार कर रहे हैं.
आदिल इतने डरे हुए हैं कि उन्होंने अपने एकमात्र पूर्णकालिक कर्मचारी को भी घर में रहने और ‘नया जमाना’ से अपने ताल्लुकात छिपाने की बात कही.
अपनी कहानी बताते हुए उन्होंने एक अपील की, ”आप इसे अंग्रेज़ी में लिखें क्योंकि यदि यह उर्दू में छपा और उन लोगों ने इसे पढ़ा तो वे और खार खा जाएंगे.”
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