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मैं टीवी न्यूज़ चैनल क्यों नहीं देखता?

ज़ुबैर अहमद बीबीसी संवाददाता, नई दिल्ली से फ़लस्तीनियों के ख़िलाफ़ इसराइल के सैन्य अभियान के कारण ग़ज़ा में भारी तबाही का मंज़र है. ग़ज़ा से आने वाली तस्वीरों को देखकर कोई भी विचलित हुए बिना नहीं रह सकता. आजकल समाचार चैनलों पर तबाही की ये तस्वीरें आम हैं. यह कोई प्राकृतिक आपदा नहीं है. यह […]

फ़लस्तीनियों के ख़िलाफ़ इसराइल के सैन्य अभियान के कारण ग़ज़ा में भारी तबाही का मंज़र है. ग़ज़ा से आने वाली तस्वीरों को देखकर कोई भी विचलित हुए बिना नहीं रह सकता. आजकल समाचार चैनलों पर तबाही की ये तस्वीरें आम हैं.

यह कोई प्राकृतिक आपदा नहीं है. यह इंसान की बनाई आपदा है जिसकी ज़द में बूढ़े, बच्चे, महिलाएं और नौजवान हैं. ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, 2012 में भी ग़ज़ा में ऐसे मंज़र दिखे थे.

पढ़िए ग़ज़ा की हालत पर बीबीसी संवाददाता ज़ुबैर अहमद का विश्लेषण

मैं पत्रकार होते हुए भी टीवी न्यूज़ चैनल नहीं देखता हूं.

इसका कारण टीवी न्यूज़ चैनलों पर प्रसारित वो तस्वीरें और वीडियो हैं जो साल 2012 में ग़ज़ा में होने वाली तबाही को दिखा रही थीं.

इन दिनों जिस तरह इसराइली हमले में ग़ज़ा के आम नागरिक मारे जा रहे हैं और जिस तरह वो बेबस नज़र आ रहे हैं उसी तरह का हाल 2012 के हमलों के दौरान भी था.

मैं वे तस्वीरें देखते देखते इतना भावुक और हताश हो गया कि एक दिन अचानक टीवी देखना ही बंद कर दिया. तब से समाचार चैनल नहीं देखता हूं. ख़ुद अपना बीबीसी न्यूज़ चैनल भी देखने से परहेज़ करता हूं.

हमारे पेशे में भावना की कोई जगह नहीं, लेकिन पत्रकार होने के अलावा मैं एक इंसान भी हूं.

तस्वीर की ताक़त

मैंने पत्रकारिता के अपने लम्बे करियर में भयानक हत्याएं, ऑनर किलिंग, बम धमाके और प्राकृतिक आपदाएं देखी हैं और उनमें होने वाली तबाही और जान-माल के नुक़सान से लोगों को होने वाली तकलीफ़ों को महसूस किया है.

लेकिन ग़ज़ा में इसराइली सैनिक कार्रवाई से होने वाली तबाही और क़त्लेआम का मंज़र टीवी चैनल पर नहीं देख रहा हूं. इनके बारे में समाचार पत्रों और वेबसाइट पर छपने वाली ख़बरें ज़रूर पढ़ रहा हूं.

साल 2012 में भी ग़ज़ा के लोगों का हाल कुछ ऐसा ही था जब इसराइली फ़ौजी कार्रवाई में मासूम बच्चे, मजबूर बूढ़े और बेबस महिलाएं मारी जा रही थीं. सारी दुनिया इस नज़ारे को रोज़ टीवी चैनलों पर देख रही थी, जैसा कि इन दिनों देख रही है.

कहते हैं मीडिया पर प्रसारित होने वाली छवि उसकी असलियत से अधिक शक्तिशाली हो सकती है.

गुजरात दंगों का ज़िक्र जब भी आता है तो वह तस्वीर ज़रूर दिखाई जाती है जिसमे एक मुस्लिम युवक को हाथ जोड़े अपनी जान बख़्शने की विनती करते देखा जा सकता है.

इस तस्वीर में उस युवक की आँखों में भय जिस तरह से कैप्चर हुआ है वह किसी के भी दिल को छू सकता है.

इसी तरह से वियतनाम में 1967 में खींची गई एक आधे नंगे बच्चे की तस्वीर है जो सड़क पर रोता हुआ अमरीकी बमबारी से बचने की कोशिश में भागा जा रहा है.

वह तस्वीर पुरस्कृत हुई और आज भी वियतनाम युद्ध के सन्दर्भ में इसका ज़िक्र आता है.

‘कोई तुलना नहीं’

ग़ज़ा से आने वाले इसी तरह के वीडियो क्लिप्स और तस्वीरों के कारण दुनिया भर में लोगों की हमदर्दी फ़लस्तीनियों की तरफ़ अधिक है.

इसराइल मीडिया ‘वॉर’ में हमास से पीछे नज़र आता है. इसका मुख्य कारण है टीवी चैनलों और पत्रिकाओं में फ़लस्तीनी बच्चों के शव, बूढ़ों की लाशें और बुरी तरह से तबाह उनके घरों की छवि जो टीवी चैनलों पर बार-बार दिखाई जा रही हैं.

इन्हीं तस्वीरों और वीडियो को सोशल मीडिया पर भी दिखाया जा रहा है. मेरे ऐसे कई दोस्त और रिश्तेदार हैं जो ग़ज़ा के संघर्ष पर होने वाली लाइव कवरेज के समय चैनल बदल देते हैं.

वे आम तौर पर कहते हैं कि हमास के रॉकेट हमलों और इसराइल के जवाबी हमलों में कोई तुलना नहीं.

कुछ ऐसे भी मुस्लिम दोस्त हैं जो कहते हैं कि इससे मुस्लिम समाज में यह पैग़ाम जाता है कि वह बेबस और नपुंसक है. इन हमलों की निंदा न करने पर वह अमरीका से भी उतना ही नाराज़ होते हैं जितना इसराइल से.

इसराइल के भी 28 सैनिक मारे गए हैं और वह युद्ध विराम के लिए तैयार है.

यह लगभग तय है कि जंग में फ़ौरी तौर पर जीत इसराइल की होगी, लेकिन दीर्घकाल में शायद वह युद्ध जीत न सके.

लेकिन अगर मारकाट और तबाही रुक भी गई तो टीवी न्यूज़ चैनलों को दोबारा देखना शुरू कर दूं? ऐसा कोई इरादा नहीं है.

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