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जनकवि नागार्जुन की जयन्‍ती पर विशेष ”विषकीट”

नागार्जुन जनकवि हैं. इसलिए भी क्योंकि उनकी कविताओं में विक्षोभ है. यह जन की पीड़ा से उपजा विक्षोभ है. कभी जो भूख, तो कभी भूख से होने वाली मौत पर अभिव्यक्त हुआ है. यह विक्षोभ सामंतवाद और साम्राज्यवाद के खिलाफ भी है. बाबा नागार्जुन की जयंती के अवसर पर इस विक्षोभ की वजहों और कविता […]

नागार्जुन जनकवि हैं. इसलिए भी क्योंकि उनकी कविताओं में विक्षोभ है. यह जन की पीड़ा से उपजा विक्षोभ है. कभी जो भूख, तो कभी भूख से होने वाली मौत पर अभिव्यक्त हुआ है. यह विक्षोभ सामंतवाद और साम्राज्यवाद के खिलाफ भी है. बाबा नागार्जुन की जयंती के अवसर पर इस विक्षोभ की वजहों और कविता लेखन के बीज के बारे में जानिए उनके ही शब्दों में..

नागार्जुन जयंती : 30 जून

मैंने सहज मुद्रा में कहा-‘ आप यदि अमृत की एकाध बूंद मेरे लिए टपका दें, तो मेरा आमूल परिवर्तन हो जाये..’ इस पर महाकवि मुस्कुरा कर बोले- ‘नहीं अब कुछ नहीं होगा.. अब आजीवन तुमको विषकीट बनकर रहना होगा..’

कवि-कर्म कोई कुकर्म नहीं

पिता जी पढ़े-लिखे नहीं थे. चाचा और नाना संस्कृत साहित्य के अच्छे पंडितों में से थे. संस्कृत के छंदों का अभ्यास मुझे अपने गांव के सुकवि श्री अनिरुद्ध मिश्र, काव्यतीर्थ की कृपा से हुआ था. उन्होंने अनुष्टुप्, उपजाति, वसंत-तिलका आदि दस-पांच छंदों के क्रम विन्यास बतला दिये थे. समस्या पूर्ति का तरीका बतला दिया था. अपनी देखरेख में आरंभिक कविकर्म की रुचि उन्होंने मेरे अंदर अच्छी तरह जगा दी थी.

संस्कृत मध्यमा की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद काशी रहने लगा. वहां मामा के रूप में मुझे ऐसे अभिवावक मिले, जिन्होंने काव्य रचना के प्रति मुझे लगातार प्रोत्साहित किया और मैथिली के प्रख्यात कवि आचार्य श्री सीताराम झा से मिला दिया.

झा जी रचना प्रक्रिया में मेरे लिए दूसरे गुरू प्रमाणित हुए. आपने मेरे अभ्यास क्रम को भाषिक छंदों की ओर मोड़ दिया. दोहा, सोरठा, रोला छप्पय, सवैया, कवित्त जैसे छंदों के नाम मैंने पहले नहीं सुने थे. वर्ष-भर के अंदर गुरुजी ने मुझसे सौ समस्याओं की पूर्ति करावाई थीं.

काशी में रहनेवाले एक मैथिल छात्र से जब चाचा जी को मेरी कवि-कीर्ति के प्रसंग में मालूम हुआ तो वह बड़े ही कुपित हुए. मेरे पिता से उन्होंने कहा-‘लड़का चौपट हो गया! काशी में आपने उसे क्या यही सब करने के लिए रख छोड़ा है?’ मेरे पिता जी नाममात्र के लिए साक्षर थे. उनके लिए इतना ही काफी था कि बेटा काशी में रह कर पढ़ाई कर रहा है. उनकी समझ में नहीं आया कि काशी में रहते हुए लड़के ने ऐसा कौन-सा बुरा काम किया है.. अचंभे में हकलाकर उन्होंने कारण जानना चाहा. चाचा ने बतलाया-‘गोकुल भाई, गोकुल भाई आपका लड़का वहां पढ़ाई नहीं कर रहा है. वह तो दिन-रात रजनी-सजनी में लगा रहता है..’

रजनी-सजनी से तुकबंदी का मतलब था. कोई छात्र पढ़ाई लिखाई छोड़कर ‘रजनी-सजनी’ के पीछे लग जाये तो वह विद्वान कैसे होगा, और काशी में वर्षो रह कर कोई छात्र विद्वान न हुआ तो उसका काशी-निवास व्यर्थ होगा. अपठित रहने पर भी मेरे पिताजी को यह तो भासित हो ही गया कि लड़का आवारागर्दी की तरफ कदम बढ़ा रहा है. चाचा उम्र में छोटे थे, फिर भी व्याकरण के विद्वान थे. मेरे पिता जी ने उनसे अनुरोध किया कि अपने भतीजे को आप ही समझा-बुझा कर रास्ते पर ला सकते हो..

कई महीने बाद गरमी की छुट्टियों में घर आने पर मुझे चाचाजी के प्रकोप की जानकारी मिली. सीधे-सीधे चाचा ने या पिता ने मुझे कुछ नहीं कहा. इससे मेरे मन में यह छाप पड़ी कि कवि-कर्म कोई कुकर्म नहीं. यदि कुकर्म होता तो चाचा जी आमने-सामने मुझे डांटते. काशी में जिन लोगों के बीच रहना होता था, वे सब के सब महाविद्यालयों में पढ़नेवाले व्यस्क छात्र थे. व्याकरण, न्याय, वेदांत, ज्योतिष, वेद आदि विषयों के शास्त्री एवं आचार्य परीक्षाओं की तैयारी में लगे हुए ‘दो-दो तीन-तीन’ विषयों के आचार्य परीक्षोत्तीर्ण.. लगता था आजीवन विद्याभास ही उनका मुख्य कर्म रहेगा. उनमें से दो ही चार थे, जिनको मेरे कविकर्म के प्रति सहानुभूति थी.

यह था विक्षोभ रस

भारतीय काव्य की समीक्षा में नौ रस माने गये हैं. परंतु अपन कटु-तिक्त-चरपरी रचना के सिलसिले में मुझे एक और ही रस की अनुभूति होने लगी. यह था विक्षोभ रस. मेरे कई मित्रों को विक्षोभ रस की इस बात पर हंसी आती है परंतु विक्षुब्ध मन:स्थिति में रचित पंक्तियां उन्हें बहुत मार्मिक लगती हैं. आलोचकों ने बार-बार इन पंक्तियों का उल्लेख किया है. वैसी पंक्तियों को मात्र वक्रोक्ति अथवा मार्मिक कह देने से बात साफ नहीं होगी.

अभावग्रस्त और संघर्षशील श्रोता किस प्रकार की पंक्तियां सुनना पसंद करेगा. कई दिनों का भूखा व्यक्ति सड़क से गुजरते वक्त निकट की बागीची में खिले हुए जूही के फूलों का सौरभ भला क्योंकर ग्रहण करेगा. उसके दिल और दिमाग में उस समय रोटी और भात ही परम तत्व के रूप में नाचते होते हैं. अरहर के दाल की सोंधी महक उसके पैरों में गति भरती है. यदि आपका पेट भरा हो शरीर और मन प्रसन्न हों, तब आपको फूलों की बागीची में टहलना अच्छा लगेगा. तब शायद आपको वह कौआ आकर्षित नहीं करेगा क्योंकि वह बिजली के तारों में उलझा है. उसके प्राण पखेरू उड़ चुके हैं. बहुजन समाज की व्यापक विपन्नता से यदि आपका प्रत्यक्ष परिचय है, तब आपको विक्षोभ रस का अनुभव होगा. भावशून्य तरीके से यदि आप अन्न संकट पर कुछ लिखेंगे, तो उससे नकली हमदर्दी की बास आयेगी. गरीबी की सीमा-रेखा से नीचे रहनेवाले लोगों की संख्या दस-पांच लाख की नहीं है, यह तो हमारी संपूर्ण जनसंख्या की आधे से ऊपर चली गयी है.. ऐसी स्थिति में यदि मेरी चेतना विक्षुब्ध भावभूमि पर विराजमान हो गयी, तो अस्वाभाविक नहीं है.

यह तो विषकीट निकला

श्री सियारामशरण गुप्ताजी ने मुझसे एक बार कहा था- ‘आपको देखता हूं तो शंकित हो उठता हूं. लगता है विष का मटका इधर डोलता आ रहा है..’ उन्होंने बतलाया था कि हंस, नया पथ, नया साहित्य आदि में प्रकाशित रचनाएं देखने के बाद दो-एक बंधुओं से मेरे बारे में पूछताछ की थी.. संयोगवश, उस समय आदरणीय मैथिलीशरण गुप्त भी अपने अनुज की ये बातें सुन रहे थे. उन्होंने अपने अनुज से कहा- ‘संस्कृत का विद्वान होने पर भी इसके अंदर इतना जहर भरा है.. ब्राह्मण वंश में जन्म हुआ, विद्यापति की मिथिला में पैदा होने से अमृत इसके लिए सहज लभ्य था, किंतु यह तो विषकीट निकला..’ मैंने सहज मुद्रा में कहा-‘ आप यदि अमृत की एकाध बूंद मेरे लिए टपका दें, तो मेरा आमूल परिवर्तन हो जाये..’ इस पर महाकवि मुस्कुरा कर बोले- ‘नहीं अब कुछ नहीं होगा.. अब आजीवन तुमको विषकीट बनकर रहना होगा..’

कबीर से लिया अक्खड़पन

ऐसा नहीं है कि विक्षोभ मात्र नागार्जुन को बपौती में मिला हो. प्रत्येक कवि अपने-अपने ढंग से प्रतिकूल भावनाओं के प्रति विक्षुब्ध होता है. वह अपनी रचनाओं में विक्षोभ को व्यक्त करता है. साम्राज्यवादी अंगरेज शासकों के प्रति उतना अधिक विक्षोभ न होता तो ‘भारत-भारती’ की रचना न हुई होती. दानवीय अत्याचारों के प्रति विक्षोभ न होता तो रामचरितमानस की एक भी पंक्ति कवि के ह्रदय से बाहर नहीं आई होती! परंतु आवेगधर्मिता, असह्यनीयता, तीव्रता की दृष्टि एक जैसे लगने पर भी विक्षोभ के आलंबन पृथक -पृथक होंगे. मेरे अंदर विक्षोभ तब फूटता है, जबकि लगातार बढ़ती हुई महंगाई के मारे लोगों को परेशान पाता हूं..

परम मेधावी बालक और बालिकाएं गरीबी के चलते अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ने को बाध्य हो जाते हैं. धूर्तो की जमात वर्ष दो वर्ष के भीतर ही लाखों की रकम बटोर लेती है, मेहनत-मशक्कत की कमाई करनेवाला रिक्शा-मजदूर महीनों फटी बनियान पहनता है.. किसान, खेतिहर, टीचर, किरानी.. कौन नहीं है संकट का शिकार. ये वे नहीं हैं जो कवि सम्मेलनों की अगली कतार में बैठते हैं. यह भी विक्षुब्ध हैं. इन्हीं का विक्षोभ पुंजीभूत होकर मेरी रचनाओं में फूटता रहता है.

प्राइमरी स्कूल का वह मास्टर मुझे कभी नहीं भूलेगा जिसके परिवार का, भूख के मारे सफाया हो गया था, और अंत में जो स्वयं भी कालकलवित हुआ. उसी की पीड़ा ने मुझसे ‘प्रेत का बयान’ जैसी तिक्त रचना तैयार करवा ली थी! उच्चवर्ग के रहन-सहन के ढंग को, प्राचार्य और उच्चशिक्षाधिकारी की व्यक्ति केंद्रिकता को, नेताओं के बहुरूपियापन को मैंने कभी क्षमा नहीं किया. ऐसा नहीं कि मैंने अपना माखौल न उड़ाया हो..

मुझे स्पष्ट भासित होता है कि आचार्य श्री रामचंद्र शुक्ल मेरी इन रचनाओं को बेहद पसंद करते. काव्य-तत्व को वस्तुनिष्ठता के तराजू पर तौलनेवाला वैसा कोई मनीषी भारत में नहीं पैदा हुआ. भारतेंदु के साथ प्रताप नारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट, बालमुकुंद गुप्त, की रचनाओं का बारंबार पारायण करने पर सर्वसाधारण जनता के प्रति मेरी पक्षधरता परिपुष्ट होती आई है. कबीर से मैंने दो-टूक अक्खड़पन लिया और निराला से स्वाभिमान का संस्कार.

(साभार: राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित ‘नागार्जुन रचनावली: खंड 6’ में शामिल एक लेख का अंश)

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